स्वयंसिद्धा – निभा राजीव निर्वी : Moral Stories in Hindi

विवाह की रौनक पूरे घर से छलकी पड़ रही थी। पूरा घर रिश्तेदारों से भरा पड़ा था। उत्सव का सा वातावरण हो आया था। वंदिता जी का उत्साह तो देखते ही बन रहा था, उनकी इकलौती बिटिया दुल्हन बनने जा रही थी। इस दिन को देखने के लिए उनके नयन न जाने कब से तरसे जा रहे थे। कितनी बड़ी तपस्या की थी

उन्होंने इस सबके लिए। विवाह के कुछ वर्षों के पश्चात ही पति के गुजर जाने के बाद जब धीरे-धीरे सभी रिश्तेदारों ने भी मदद करने से हाथ पीछे खींच लिया था तो उन्होंने लोगों के कपड़े सीकर गुजारा भी किया और अपनी इकलौती बेटी सुनिधि को पढ़ा लिखा कर इस योग्य बना दिया कि वह आज एक अच्छे पद पर कार्यरत है

और इतनी सुंदर, सुसंस्कृत और प्रतिभाशाली है कि उसके लिए स्वयं सामने से चल कर रिश्ता आया… वह भी इतनी ऊंचे खानदान से और लड़का स्वयं भी बहुत ही उच्च पद पर पदस्थापित है। आज उन्हें लग रहा है कि उनके पूरे जीवन की तपस्या सफल हो गई। उनके तप का प्रतिदान आज उन्हें मिल गया।

                  आज हल्दी की रस्म है। आज बिटिया सुनिधि को सब सखियों ने मिलकर फूलों के गहनों से श्रृंगार किया है। सारी गहमा गहमी के बीच वंदिता जी को ऐसा लग रहा था कि कहीं उन्हीं की नजर ना लग जाए उनकी लाडो को.,.. फूली नहीं समा रही थी वो..। दृष्टि से ही बलैयां ले रही थी अपनी चंदा की चांदनी जैसी बिटिया की….

               शीघ्र ही हल्दी की रस्म शुरू होने वाली थी। सारी आवश्यक वस्तुएं हल्दी के साथ सुंदर सी डलिया में सुंदर सजावट के साथ रखी गई थी। मंगलगान चल रहे थे। 

पीले वस्त्रों में सुनिधि ऐसी लग रही थी मानो स्वयं वसंत ऋतु का श्रंगार कर दिया गया हो। सखियों की अनवरत चलने वाली छेड़छाड़ और चुहलबाजियों से शर्माती सकुचाती और उन्हें झूठी झिड़कियां देती हुई सुनिधि कितनी प्यारी लग रही थी। 

तभी सुनिधि की बुआ, मौसी, चाची, ताई सब पहुंच गईं और मस्तियां और चुहल करती लड़कियों से कह उठी, “अरे छोरियों.. अब बस भी करो तुम सब अपनी शरारतें और हंसी ठिठोली… तुम लोगों के तो चोंचले ही खत्म नहीं होते… तुम लोगों की इस छेड़छाड़ में तो हल्दी का मुहूर्त भी निकल जाएगा…. चलो अब जल्दी-जल्दी रस्म शुरू करें! और भी बहुत सारे काम पड़े हैं…. ” 

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                 वंदिता जी सबसे पीछे खड़ी वहीं से सब कुछ देख रही थी। उनकी आंखें छलक गईं। आज अगर सुनिधि के पिता जीवित होते तो कितना प्रसन्न होते। आंचल के कोर से उन्होंने आंखें पोंछी और जैसे अंतस की पीड़ा को भी उसी आंचल में सुखाने का प्रयत्न कर रही हो, उन्होंने स्वयं को कड़ा करते हुए मुस्कुराने का प्रयास किया। उनका मन भी मचल रहा था

कि वह अपनी फूलों सी कोमल बिटिया के शरीर पर अपने हाथों से हल्दी लगाएं… मगर कैसे…. समाज ने एक पतिविहीना को यह अधिकार कहाँ दे रखा है… एक विधवा को तो शगुन के कार्यों में एक काले धब्बे से भी निकृष्ट माना गया है.. ‘नहीं नहीं… अपनी ही बिटिया के लिए ऐसा अपशगुन सही नहीं है.. ऐसा तो सोचना भी नहीं चाहिए..’ उन्होंने अपने आंदोलित हृदय को समझाते हुए कारण देने का प्रयास किया…।

             तभी सुनिधि की ताई जी का स्वर गूंजा, “-चलो लो.. हल्दी लगाओ सब अब बारी-बारी से सुनिधि को और सुनिधि का रूप ऐसा निखार दें कि इसके ससुराल वाले बस देखते ही रह जाएं…” सब एक साथ खिलखिला पड़ीं। 

       ताई जी ने अपने हाथ में हल्दी उठाई और सुनिधि की ओर हाथ बढ़ाया ही था कि तभी सुनिधि बोल उठी, “- अरे रुक जाइए ताई जी…पहले माँ को तो आ जाने दीजिए.. माँ कहाँ है?”

             ताई जी ने उसे समझाते हुए कहा, “-अरे बावली हो गई है क्या?? कैसी बात कर रही है… शगुन के रस्मों में तेरी माँ का क्या काम! यह सब रस्में में केवल सुहागन ही कर सकती हैं। उसे इन सब से दूर ही रहना चाहिए….उसे तो…”

          इतना सुनते ही सुनिधि की मुख मुद्रा अचानक कठोर हो गई। उसने ताई जी की बात बीच में ही काटते हुए एक-एक शब्द पर जोर देते हुए कहा, “- अच्छा ताई जी.. ये आपने अच्छी कही.. एक विधवा अकेले अपना परिवार चला सकती है.. अकेले अपने बच्चों को पाल सकती है और दुनिया के झंझावातों से जूझ सकती है….

उन सब में तो कभी किसी ने शगुन नहीं देखा और अभी अचानक मेरी माँ अपशगुनी हो गई! एक बात सुन लीजिए आप सब लोग.. मेरी माँ और मेरे पिता के मध्य अटूट अनुराग था। मेरे माता-पिता हर संभव मुझे अच्छे संस्कार, नैतिक मूल्यों और अनुशासन से सींचते हुए पाल रहे थे।

लेकिन जब मेरे पिता का अकस्मात निधन हो गया तो मेरी माँ की सहायता करने के लिए कोई नहीं था। तब मेरी माँ ने केवल अपने बल पर मुझे पाला पोसा, पढ़ाया लिखाया और इस योग्य बनाया कि आज मैं स्वावलंबी बनकर अपने पैरों पर खड़ी हूं। बचपन से देखती आ रही हूं कि पिता के नहीं रहने के बाद भी मां की हर प्रार्थना में मेरे पिता शामिल होते थे, मुझे संस्कार देने में माँ मेरे पिता के उदाहरण दिया करती थी।

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उन्हें याद किए बगैर उन्होंने कभी एक निवाला मुंह में नहीं डाला। मेरे पिता तो हमारे बीच से कभी गए ही नहीं… वह अभी भी जीवित है… मेरी माँ की प्रार्थनाओं में… उनके आकाश से ऊंचे हौसलों में… उनके अटल आत्मविश्वास में… मेरे संस्कारों में… और मेरे नैतिक मूल्यों में… मेरे आदर्शों में!!! दोनों का प्यार एक साथ दिया मुझे मेरी माँ ने… तो मेरी माँ तो कभी विधवा हुई ही नहीं…

वह सौभाग्यवती थी.. सौभाग्यवती है और सदा सौभाग्यवती रहेगी!!! स्वयंसिद्धा है मेरी माँ और मुझे बहुत गर्व है कि मैं उनकी बेटी हूँ। और आज पहली हल्दी मुझे मेरी माँ ही लगाएगी अन्यथा मुझे यह रस्म नहीं करनी।”

           उसकी बातें सुनकर वंदिता जी हड़बड़ाती हुई आगे आई, “-कैसी बातें कर रही है लाडो… ऐसा कभी होता है… समाज के अपने कुछ नियम होते हैं।”

          सुनिधि का स्वर अचानक तीव्र हो गया, “- किस समाज की बात कर रही हो माँ… जिसने कभी एक बार भी मुड़कर तुम्हारा हाल नहीं पूछा… जिसने कभी तुम्हें सहारा देने के लिए अपना हाथ नहीं बढ़ाया…. बीच मझदार में छोड़ दिया था डूबने के लिए और आज वे सभी न्यायाधीश बने बैठे हैं। मैं नहीं मानती इन निरर्थक ढकोसलों को! तुम्हारा स्नेह और

तुम्हारे आशीर्वाद से बड़ा तो कोई शगुन मेरे लिए हो ही नहीं सकता है माँ! या तो तुम मुझे हल्दी लगाओ या फिर ना तो मुझे यह रस्म करनी है और ना ही विवाह! और जिन जिन को मेरी बात पर आपत्ति है, वह लोग यहां से जा सकते हैं। मेरे विवाह में सम्मिलित होने के लिए यहाँ आने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद !”

             सुनिधि वापस जाने के लिए पलटी तभी वंदिता जी ने उसका हाथ पकड़ कर रोक लिया, “- रुक जा लाड़ो..” और अपने हाथों से हल्दी लेकर उसके माथे पर और गालों पर मल दिया। और मुंह से अस्फुट स्वर में आशीर्वाद निकला, “- सदा सौभाग्यवती रहना मेरी लाडो!” सभी समाज के ठेकेदार मुंह बाए देखते रह गए। आज एक नई पहल हो चुकी थी। 

                 स्वार्थी समाज आज भी अपने स्वार्थवश ही सही मगर उनका साथ देने को तैयार हो गया। सुनिधि के साथ संबंध रखने से उनका रुतबा जो बढ़ जाने वाला था। उनका यह रूप देखकर सुनिधि के अधरों पर एक वक्र मुस्कान खेल गई। शहनाइयों के साथ फिर से मंगल गान गूंजने लगे।

निभा राजीव निर्वी 

सिंदरी धनबाद झारखंड 

स्वरचित और मौलिक रचना

#सौभाग्यवती

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