…आज कई सालों बाद प्रियंवदा जी ने अपनी पुरानी संदूक खोली थी…
पुराने कपड़े लत्ते… कागज पुर्जों के बीच… एक पीतल का बड़ा कलसा चमक उठा…
अपने कांपते हाथों से कलसे को उठाने की कोशिश करने लगीं… लेकिन वह इतना भारी था कि निकाल नहीं पाईं… फिर उन्होंने उस पर पड़ा ढक्कन हटाया….
उसके भीतर कितने ही छोटे बड़े चांदी और पीतल के बर्तन, मूर्तियां पड़े हुए थे… एक-एक कर उन सबको बाहर निकाल… किसी तरह कलशे को बाहर खींचा…
दादी को संदूक खोले देख मिनी मां के कानों में धीरे से बोल आई…” मां जल्दी चलो दादी ने संदूक खोला है…!”
” आज फिर क्या आफत आई…!” अनीता तेज कदमों से चलते हुए प्रियंवदा जी के कमरे में आई… तो वे शांति से बैठे उस कलश को घुमा घुमा कर निहार रही थीं…
“क्या अम्मा आज फिर यह क्या सूझी आपको… कहीं कमर में कुछ ऊपर नीचे हो गया तो लेने के देने पड़ जाएंगे… इतना भारी उठाने को किसने कहा आपसे…!”
“किसने कहा… मेरा संदूक… मेरे बर्तन… बड़ी आई मुझे सिखाने वाली… मैं जो करूं…!”
अनीता वहीं चौखट पर पैर रख खड़ी रह गई… कमर टेढ़ी होने के साथ-साथ अम्मा की जबान भी तीखी हो गई थी……
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दो बेटियों की मां अनीता जब ब्याह कर आई थी तो बड़ा जमींदारी परिवार था… पर पति की कोई कमाई नहीं होने के कारण… धीरे-धीरे सब संचित धन एक-एक कर निकलता गया…
धन लुटाते लुटाते पति भी 10 साल हुए मां पत्नी और दो बेटियों को पीछे छोड़ चल बसे… संपत्ति के नाम पर पुश्तैनी घर और बचा खुचा धन ही था…
बहुत सुख के दिन देखे थे प्रियंवदा जी ने इस घर में… रानियों की तरह ठाठ से रही थीं…
अपने निकम्मे बेटे का ब्याह जब अनीता से किया था… तो इतने शान से की पूरे इलाके में गूंज हुई थी… कि ठाकुर जी के बेटे का ब्याह है… शुद्ध घी की पूड़ियां और जलेबी खिलाई गई थी 10 गांवों में…
अनीता जब ससुराल आई थी तो कई नौकर चाकर लगे हुए थे घर में… काम करने को हाथ हिलाने की भी जरूरत नहीं थी…
पर समय कब एक सा रहा है… प्रियंवदा जी के कपूत ने पिता, दादा, परदादा की सारी दौलत अपने बुरे शौकों में गंवा दी… और एक दिन जान भी…
पीछे रह गया दुखी रोता परिवार…
अनीता ने पति के जाने के बाद बिखरे घर को संभालने की बहुत कोशिश की… पर एक-एक कर घर के सारे कीमती सामान… धन दौलत सब लुटते चले गए… कुछ बचे हुए खेतों का सहारा था…
अब दोनों बेटियां ही उसका सब कुछ थीं… दोनों बेटियां पढ़ाई लिखाई में होशियार थीं…
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मन लगाकर पढ़ाई में लगी पोतियों को कई बार दादी की घुड़की भी सहनी पड़ती थी…
“क्या करेगी इतना पढ़ लिखकर… जो बचा है ले देकर विदा करे छोड़ियों को… यह नहीं तो बेकार का फितूर पाले है…!”
पिछले हफ्ते मिनी का बड़े इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिले के लिए नाम आ गया…दिन रात मेहनत किया था बच्ची ने इसके लिए…
दो दिन बाद जाना था… एडमिशन के लिए… पर पैसे का कोई अता पता नहीं था…
मां अनीता सारी मुमकिन कोशिश करने में लगी थी… मगर फिर भी कुछ काम नहीं बन पाया…
जहां से मदद मांगने जाती… सभी परिवार, नाते-रिश्तेदार, यही सलाह दे रहे थे की बेटी का ब्याह करोगी… तब जो बन पाएगा जरूर करेंगे… पर ऐसे फिजूल में पैसे खर्चने की क्या जरूरत है…
अनीता हर जगह से हार मान सोच में बैठी थी… कि मिनी ने आकर दादी के बारे में बताया…
प्रियंवदा जी ने इतने अच्छे दिन देखे थे कि बुरे दिन पचा ही नहीं पाई थीं…
उनका रवैया बहुत चिड़चिड़ा गुस्सैल हो गया था… यही कुछ बचा खुचा सामान था… जो प्रियंवदा जी अपनी संदूक में संभाल कर… अपनी दौलत की तरह रखे घूमती थीं…
गले में संदूक की चाबी डाल… मजाल नहीं की कोई संदूक खोल दे…
इसलिए आज संदूक खुला देख सभी सोच में पड़ गए…
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अनीता जी ने अम्मा के हाथ से कलश लेकर… उसे वापस रखने की कोशिश की तो अम्मा बिगड़ उठी… “क्या करती है… अब और कितने दिन संभालूं…!”
कब से अक्खड़ बनी फिर रही अम्मा आज अचानक भावुक हो गई…
थोड़ी दूर खड़ी मिनी का हाथ खींच अपने पास ले आई… गालों पर हाथ फेरते बोली…
“लल्ली कल जो होगा देखा जायेगा… अब यह जो भी है सब तेरा है…
बहु रानी ले जाओ… यह जो धन बचा है…
लल्ली के पढ़ाई में कोई कमी नहीं करना… अभी तक तो बस गंवाती आई हूं… पर अब कुछ तो कमा लूं…
जा लली… खूब मन लगाकर पढ़ना… अब तेरे ब्याह कि मुझे कोई चिंता नहीं… पहले काबिल बन जा.…
अगर आज तेरे पिता काबिल होते तो शायद तुम लोगों को यह दिन देखना नहीं पड़ता… जब सुख नहीं रहा तो दुख भी नहीं रहेगा…
लली एक सीख गांठ बांध ले… धन वहीं रहता है जहां ज्ञान हो… अज्ञानी तो बस लुटाना ही जानता है…
जीवन तो सुख-दुख का ही संगम है… पर अगर ज्ञान साथ हो तो दुख अधिक देर नहीं ठहरता…!”
दादी के इस बदले ढंग को देख मिनी खुशी से पुलकित हो उनसे लिपट गई…अनीता जी की आंखें भी भर आई… आज उन्हें भी अपनी अम्मा पर गर्व हो रहा था…
स्वलिखित
रश्मि झा मिश्रा