साॅरी दीदी – रेनू दत्त : Moral Stories in Hindi

वीनू दीदी की आज बहुत याद आ रही है। मेरे अंतस के किसी गहन कक्ष में एक अदालत बन गई है जहां जज, वादी, प्रतिवादी, गवाह सब मैं ही हूं।

दीदी मुझसे चार साल बड़ी थी। उजले सूरज सा खिलता रंग, फुर्सत में बनाए गए नैन नक्श और उस पर सौम्यता की ऐसी परत कि जो भी, देखता उनके मोह पाश में बंध जाता। मां पापा को अभिमान था उन पर। मैं सदा से ही जानती थी कि दीदी मुझसे इक्कीस हैं पर तब सबकी तरह मैं भी मुरीद थी उनकी। उनके निश्छल स्नेह में ओतप्रोत, उनके अभिराम व्यक्तित्व के पाश में मस्त और सुरक्षित।

मैं स्कूल में थी जब दीदी ने ग्रैजुएशन खत्म किया। पापा के एक मित्र ने सचिन जी का रिश्ता सुझा दिया।अच्छा धनी व्यवसायी परिवार व सज्जन से सचिन सबको पसन्द आ गए,तुरत फुरत ही दीदी की शादी हो गई।जीजाजी की मां कुछ वर्ष पहले गुजर चुकी थीं केवल पिता थे। दीदी ने कुशलता से अपनी गृहस्थी संभाल ली थी।

दीदी अपने ससुराल में खुश थी।जब भी घर आती हम ढेरों बातें करते।छत की मुंडेरें,कमरों की दीवारें, रसोईघर की स्लैब जिस पर मैं धमक कर बैठ जाती थी हमारे ठहाकों, अनवरत बातों से गुंजायमान होता था। उनके चमकते चेहरे पर संतुष्टि के भाव होते। डेढ़ साल बाद प्यारी सी गुड़िया उनकी गोद में आ गई।

हम सभी खुश थे। गुड़िया में उस समय मेरी जान बसती थी। उसकी तुतली बोली पर मैं निहाल हो जाती थी।

मैं एम बी ए कर रही थी कि खबर आई कि दीदी फिर से मां बनने वाली है। घर में खुशी की लहर दौड़ गई पर भविष्य के गर्भ में ईश्वर की कौन सी योजनाएँ छिपी हैं ये कोई नहीं जानता। मेरा जीवन कितनी तेजी से बदलने वाला था इसका अहसास मुझे उस समय स्वप्न में भी नहीं था।

प्रसव के समय जटिलताओं के कारण दीदी की हालत खराब हो गई,लाख डाक्टरों की कोशिशों और पानी की तरह पैसा बहाने पर भी दीदी और बच्चे को बचाया ना जा सका। घर में कोहराम मच गया। हम सब का दुख से बुरा हाल था। रातों रात हमारी और सचिन जीजाजी की दुनिया उजड़ गई थी।गुड़िया किसी से संभल नहीं रहीथी।जीजाजी हार कर उसे हमारे यहां छोड़ गए।मां को याद कर वह सुबकती रहती आखिर धीरे धीरे हम सबने हालात से समझौता कर लिया। महीने भर बाद जब जीजाजी उसे लेने आए तो गुड़िया मुझे छोड़ने को तैयार ना थी। उन्हें खाली हाथ ही जाना पड़ा।

एक दिन मां ने बताया कि गुड़िया के दादा ने मेरा रिश्ता सचिन जीजीजी के लिए मांगा है,उनके अनुसार गुड़िया को मां मिल जाएगी। मेरे लिए यह सब अप्रत्याशित था। पर

मां पापा के समझाने पर कि कोई सौतली मां जाने कैसी हो,मैंने हां कर दी थी। मेरी एक ही शर्त थी मेरी एम बी ए पूरी होनी चाहिए। जिसे सचिन जी ने स्वीकार  कर लिया। बस अपनी ही दीदी के ससुराल में एक सादे समारोह के बाद मैं दुल्हन बनकर आ गई।

गृहप्रवेश करते ही हॉल में लगी दीदी की तस्वीर ने मानो मुस्कुराते हुए मेरा स्वागत किया। पहले इस घर में मैं मेहमान की तरह आती थी अब स्वामिनी बन गई थी।

और ऐसे गुड़िया की ऊंगली थाम मेरे नवजीवन का सफर आरंभ हुआ था।

सचिन जी ने विवाह की पहली ही रात स्पष्ट कर दिया था कि वे दीदी को भूल नहीं पाए हैं और केवल गुड़िया की परवरिश ठीक से हो इसलिए उन्होंने विवाह की सहमति दी थी। यह वज्रपात था।मैं हतप्रभ थी लगा मैं छली गई हूं। पर उनकी मनःस्थिति भी समझ रही थी।उन्हें पति रुप में देखना मेरे लिए भी तो कठिन था। सोचा समय के साथ सब ठीक हो जाएगा।

अपनी ओर से उनका हृदय जीतने के मेरे प्रयास जारी थे।

मैंने घर व गुड़िया को अच्छे से संभाल लिया था। पर सचिन जी उदास व चुप ही रहते।उनकी नज़रें मानो किसी को ढूंढती रहतीं। दीदी ने तो बताया था खूब हँसमुख हैं,वाचाल हैं। पर मुझसे बहुत कम बात करते थे। ऐसा नहीं कि मुझे किसी चीज़ की कमी थी पर उनका मेरे साथ होकर भी साथ ना होना मुझे आहत करता था। प्रत्यक्ष रूप में सब ठीक था पर मनों की दूरी से मैं छटपटा रही थी। सब कुछ होते हुए भी प्रेम का अभाव था।ऐसे जीवन की मैंने कल्पना नहीं की थी।

मैं उलझने लगी शंकित होने लगी कि क्या मैंने जल्दबाजी में निर्णय लिया था। सचिन जी अपना पति धर्म निभा रहे थे पर रिश्ते में उष्मा नहीं थी कोई अदृश्य छाया सी हमारे बीच थी जिससे मैं निरर्थक व दुरूह लड़ाई लड़ रही थी। मैं ऐसे भंवर में फंस चुकी थी जिससे बाहर निकलना असंभव था।पढ़ाई जारी करती तो मन कहीं उलझता कुछ राहत पाता। मेरा मन पढ़ाई से भी उचाट हो रहा था।

विवाह के एक  साल  में ही मैं कटु हो चली थी। दीदी के जैसी बनने की चेष्टा में मैं स्वयं का व्यक्तित्व खो रही थी। अनजाने ही मैं दीदी की तरह सजने संवरने लगी।

धीरे धीरे मैं गुड़िया से भी विमुख होने लगी। जैसे जैसे वो बड़ी हो रही थी दीदी की रूपरेखा व उनके गुण उसमें उजागर होने लगे थे उसमें मुझे अपनी चलती फिरती हार नज़र आने लगी थी।

सचिन जी सामान्य तो हो रहे थे मेरा खूब ख्याल भी रखते थे पर मेरे मन के संदेह व शंका का कोई इलाज ना था।

कई बार उन्होंने मुझे समझाने की चेष्टा की कि अब मैं ही उनकी सब कुछ हूं। विवाह के प्रारंभ में पहली पत्नी  की याद आना स्वाभाविक था पर अब वो उन यादों से उबर चुके हैं।पर मैं उन पर ज़रा भी भरोसा नहीं कर पाई। मुझे उनकी हर बात झूठ लगती थी, हर दलील फरेब।उनके मन में कहीं ना कहीं अभी भी दीदी है यह शक जाता ही नहीं था। डाह ने मुझे बुरी तरह जकड़ लिया था। एक दिन दीदी की हॉल में लगी तस्वीर मैंने सफाई के बहाने हटवा दी क्योंकि उसके सामने टेबल पर सचिन खाना खाते थे। सचिन ने देखा पर कुछ ना बोले।

कई बार मंहगे उपहार लाकर मुझे खुश करना चाहते तो मैं सिर झटक सोचती ऐसे ही मुझे बहला ना पाओगे। मुझे उनका हर अपनी तरफ बढ़ता कदम दिखावटी लगता।

नहीं जानती थी मैं स्वयं को छल रही हूं।विवाह के तीन वर्ष बाद मुझे पुत्र विहान हुआ मेरा सारा ध्यान व समय उसे पालने में लग गया।

गुड़िया कहीं नेपथ्य में चली गई।मेरी जिस ममता के सहारे वो अपनी मां को भूल मुझे मां मान बैठी थी,अपनी हठधर्मिता से मैं उस नन्ही सी जान को उपेक्षित करती रही। उसे दीदी का अंश व प्रतिरूप मान उनकी यादों से,अदृश्य परछाईयों से लड़ती रही।मेरा सारा समय, सारी ममता विहान के पालन पोषण में लग गई।गुड़िया उससे खेलना चाहती तो मैं घुड़ककर भगा देती।

विहान मेरी इकलौती जीत था,मेरा अभिमान था। पर यहां भी विधाता ने मेरा साथ नहीं दिया। जितना मैं उसे गुड़िया से दूर करती उतना ही वह उसकी ओर खिंच रहा था। उसके बिना खाना ना खाता।उसके आसपास रहना चाहता। मैं झल्ला उठती। दोनों का अटूट रिश्ता मुझे एक आंख ना सुहाता।

अपने ही घर में मानो मैं अकेली हो गई। दोनों बच्चे बड़े हो रहे थे। गुड़िया रूप गुण में दीदी का प्रतिबिंब थी, दीदी की तरह ही उसके व्यक्तित्व में भी एक खास आकर्षण था जो अपने आसपास एक मोहक आवरण बनाता था। विहान, सचिन यहां तक कि उसके शिक्षक, सहपाठी, मित्र, रिश्तेदार, पडौसी, नौकर चाकर सभी उसे बेहद पसंद करते थे।बस मैं ही अकेली अभागी थी जो खुद को उससे काटे हुए  थी।

मैं दीदी की यादों का बदला उस मासूम से ले रही थी। और मेरा अवसर आया जब उसने एम बी बी एस करते ही

हमें बताया कि वह अपने एक विजातीय सहयोगी डाक्टर मयंक से विवाह करना चाहती है।मैंने उसका पुरजोर विरोध किया। मुझे लगा अब मैं सचिन  को उसके खिलाफ कर पाऊंगी। शायद अब मेरा दग्ध हृदय चैन पाएगा।

पर थोड़े से विवाद के बाद,थोड़े से गुडिया के आंसू देख सचिन उसके साथ हो लिए, विहान तो पहले ही उसका अंधभक्त था। मैंने एलान कर दिया मैं इस विवाह के बिलकुल खिलाफ हूं और अगर यह विवाह हुआ तो गुड़िया कभी इस घर में नहीं आएगी।

पर मेरी एक ना चली। सचिन व विहान ने मेरी अनुपस्थिती में ही उसकी कोर्ट मैरेज करा दी । अपने डाक्टर पति के साथ गुड़िया खुश थी पर उसकी शादी के छह साल तक मैंने उसे घर नहीं आने दिया।

विहान उच्च शिक्षा के लिए कनाडा चला गया। मुझसे पहले भी वह सीमित मतलब रखता था। दूर होने से और समय में अंतर होने से उसके फोन आने कम हो गए। अगर फोन आता भी था तो मुझसे कुछ पल बात कर वो घंटों सचिन से बतियाता।

उम्र ढलान पर थी मैं थक सी रही थी। सचिन ने व्यापार के लिए कर्मचारी रख लिए  थे। उनका स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता था। बड़े से घर में मैं और सचिन अकेले रह गए थे।सचिन कभी गुड़िया की बात नहीं करते थे।मुझे अक्सर शक होता था कि वे ज़रूर उससे बाहर मिलते हैं या फोन  तो ज़रूर करते हैं। पर मैं चुप ही रहती कहीं अधिक विवाद मुझे उनसे और दूर ना कर दे।

एक दिन अचानक हृदयाघात से आरामकुर्सी पर बैठे बैठे ही सचिन सदा के लिए मुझे छोड़ गए। विहान का फोन नहीं मिल रहा था। किसी ने गुड़िया को खबर कर दी। तड़पती हुई, रोती हुई वो तत्काल आ गई। मेरे गले से लिपट गई। इस दुख की घड़ी में मैं सारा द्वेष भूल गई।

गुड़िया ने मुझे संभाला, उसके पति ने सारे इंतजाम देखे। विहान से संपर्क दो दिन बाद हो पाया। वह पन्द्रह दिन यहां रहकर वापस कनाडा चला गया। एक बार भी उसने मुझे साथ चलने के लिए नहीं कहा। शायद मेरे मन की कलुषता का एहसास उसे मुझसे सदा के लिए दूर कर गया था।  जिस गुड़िया को मैंने अपनी हार का प्रतीक मान उपेक्षित किया था। वही गुड़िया व उसका पति मेरा संबल बन चुके हैं। बड़ी सरलता से उसने मुझे क्षमा कर दिया है। मैं शर्मिन्दा हूं। बीता वक्त वापस नहीं आ सकता। मेरी गलतियां अनजाने में की हुई नहीं थीं। जान बूझकर किए गए पाप थे जिन्होंने मेरे परिवार को मुझसे दूर कर दिया था।

शेष बचे जीवन में मैं प्रायश्चित करना चाहती हूं फिर से अपनी बेटी को स्नेह से अपनाकर। गुड़िया स्वयं दो जुड़वा बेटियों की मां बन चुकी है। विहान बहुत कम फोन करता है। पिता के जाने का गम भी मुझसे सांझा नहीं करना चाहता। गुड़िया रोज़ फोन कर मेरा हाल पता लेती है ।हर हफ्ते मयंक के साथ मुझसे मिलने आती है।उसकी नन्हीं परियों के साथ खेल, उन्हें गोदी में उठा मैं नई सी बन जाती हूं , मेरा मन ममता से भर जाता है। ना जाने ये ममता का स्त्रोत क्यूं सूख गया था।

उम्मीद है विहान भी कभी मुझे क्षमा कर पाएगा। मन में केवल पछतावा है अपनों को दुख देने का। पर मैंने तो स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी थी। काश मैं पहले संभल पाती। सचिन के मन को समझ पाती। अपने बच्चों को प्रेम भरा सुरक्षित, सामान्य जीवन  दे पाती। मेरे अंतस की अदालत मुझे अपराधी घोषित करती है । मैं क्षमाप्रार्थी हूं….साॅरी दीदी

रेनू दत्त 

#गरूर

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!