स्नेह के तार – संध्या सिन्हा : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi :  मेरी छोटी बहन की शादी की सिल्वर जुबली में मेरा मायके जाना हुआ क्योंकि मेरी छोटी बहन भी उसी शहर में रहती हैं।

शाम की पार्टी में जब मैं उसके घर पहुँची तो अजीब सुखद अहसास हुआ मुझे।,मेरी माँ के पास मेरी इकलौती मामी बैठी थी। वह मुझे देख कर खुश हुई और मैं उन्हें देखकर।

यह मेरे लिये एक सुखद एहसास था क्योंकि पिछले १०-१२ बरसों से हमलोगों की बोलचाल बंद थी। किन्ही कारणों से कुछ अहं खड़े कर लिए थे हमारे और मामी के परिवार के बीच और चुप होते होते बाद चुप ही हो गए थे।

जीवन में ऐसे सुखद पल जो अनमोल होते है हमने अकेले ही रह कर भोगे थे। उनके बेटे की शादी में हम नहीं गए और मेरी बेटी की शादी में वो लोग नहीं आए या यूँ कह ले नहीं बुलाया।

अपनी मामी से मुझे बहुत प्यार था। हमारे रिश्ते दोस्ती से भी बढ़ कर प्यार ,विश्वास और लगाव था।पता नहीं स्नेह के तार क्यों और कैसे टूट गए थे जिन्हें जोड़ने का प्रयास यदि एक ने किया तब दूसरे ने स्वीकार नहीं किया और यदि दूसरे ने किया तो पहले की प्रतिक्रिया ठंडी रही थी और कुछ दूर और दूसरे शहर में रहना भी एक कारण था।

“ कैसी हो संध्या??” अजय साथ नहीं आए??” मामी के स्वर में मिठास थी और बालों में सफ़ेदी।

“ अजय क्यों नहीं साथ आए? अकेली क्यों आई??”मेरे पति के बारे में पूछा था मामी ने।

लगातार एक के बाद एक सवाल करती जा रही थी मामी। मेरी आवाज़ नहीं निकल रही थी एकाएक मामी के गले लिपट कर रो पड़ी थी मैं।

“ पगली, रोते नहीं।देख, चुप हो जा संध्या,” इस तरह बड़े स्नेह से मामी दुलराती रही हमें।

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क़ितने ही अधिकार, जो कभी मुझे मामी और उनके परिवार पर थे अपना सिर उठाने लगे थे, मानो पूछना चाह रहे हो कि क्यों उचित समय पर हमारा सम्मान नहीं किया गया पर यह भी तो एक कड़वा सच है ना कि प्यार और अधिकार कोई वस्तु नहीं है जिन्हें हाथ बढ़ा कर किसी के हाथ से छीना जाए। यह तो एक सहज भावना है जिसे बस महसूस किया जा सकता है।

“ बच्चे भी साथ नहीं आए??”मामी के इस प्रश्न पर मैं रोते-रोते हँस पड़ी।

“वो अब होस्टल या जॉब करते है मामी।”

“ ओह!”

“ आप भी तो बूढ़ी हो गई है और मेरे भी बाल देखिए अब सफ़ेद हो रहे है।”मैंने हँस कर कहा।

“ हाँ, कह कर मेरा गाल पर हल्की सी चपत लगाई मामी ने।

“ अजय को बैंक के काम से बाहर जाना पड़ा तो अकेले ही आई हूँ।” मैंने कहा।

तभी किसी ने आकर मेरे पैर छूये।

“ ये अंकुर की पत्नी और तुम्हारी भाभी।”

“ खुश रहो।”

मुझे याद है, इसी अंकुर के रिशेप्शन में कितना अपमान किया था मामी और उनके बेटों ने मेरी माँ और हम बहनों का। मामा के ना रहने के बाद शायद पहला फ़ंक्शन था मामी के घर पर। आपसी सम्बन्धों की कटुता और मायकावाद इस तरह हावी थी उन पर कि मानो भविष्य में कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी हमलोगों की।

“ मामी आप भी चाय लीजिए ना, मैंने चाय उनके तरफ़ बढ़ाते हुए कहा।

“ यह सबसे बड़ी बुआ है रिया, इन्हें नमस्ते करो।”

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अंकुर की बेटी से मेरा परिचय करवाया मामी ने। कड़वे पल ना उन्होंने याद दिलाए ना मैंने। मगर आपस की बातों से मैं यह सहज ही जान गई कि मुझे वो भूले कभी भी नहीं थे। बार-बार मेरे मन में एक ही प्रश्न उठ रहा था, जब दोनों तरफ़ प्यार बराबरी था तो क्यों झूठे अहं खड़े किए थे दोनों ही परिवारों ने???क्यों अपने-अपने अहंकार सम्बन्धों के बीच ले आए थे??समझ में नहीं आ रहा था, “आख़िर क्या पाया था हमदोनों परिवार वालों ने इतना सुख, इतना प्यार खोकर??”

बेटी बुआ-बुआ और भाभी दीदी-दीदी कर पूरे फ़ंक्शन में मेरे आगे-पीछे लगी रही। लगा ही नहीं, कभी हम अजनबी भी रह चुके है।

फ़ंक्शन खतम होने के बाद हम सभी लोग मम्मी के घर आ गए। देर रात तक खूब बातें की और सुबह मामी और उनका परिवार वापस लखनऊ लौट गया। मुझे दो दिन बाद दिल्ली लौटना था सो मैं मायके में रुक गई और दूसरे दिन मम्मी से पूछा” मम्मी ? एक बात समझ नहीं आई कि अचानक यह सब पुनः जुड़ कैसे गया???”

“ ऐसा ही होता है….और यही जीवन है।” हँस कर बोली मम्मी।

जब इंसान जवान होता है तब भविष्य की बंद मुट्ठी उसे क्या-क्या सपने दिखाती रहती है, भविष्य क्या है उस से अनजान हम तन मन से जुटे रहते है, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, बेटी की ज़िम्मेदारी, सभी कर्तव्य पूरे करने के लिए हम साँस लिए बिना दिन-रात एक कर चलते रहते है। हमारे आँखों के सामने बच्चों साथ साथ अपना भी एक उज्जवल भविष्य होता है की जब हम बूढ़े होंगे तो चैन से अपने बच्चों और पोते-पोतियों संग बैठ कर अपने बुढ़ापे का आनंद लेंगे।पूरा जीवन इसी आस पर ही तो बिताया होता है हमने। उस पल अपने सगे भाई बहन से भी हम विमुख हो जाते है क्योंकि तब हमें अपनी संतान ही नज़र आयी है बाक़ी सब पराए।

“ कई बार तो हम अपने पेरेंटस के साथ भी स्वार्थपूर्ण व्यवहार करने लग जाते है क्योंकि उनके लिए कुछ भी करना हमें अपने बच्चों के अधिकार में कटौती करना लगता है। हम तब भूल जाते है कि हमारे पेरेंट्स ने भी हमें इसी तरह पाला था। उनके सुकून और आराम के दिन आए तो हम अपनी गृहस्थी में डूब जाते है। जब अपनी बारी आती है तब अहसास होता है उनके दर्द का।”

बोलते -बोलते थक गई थी मम्मी। कुछ देर रुक कर हँस पड़ी वह।

फिर बोली-“ बेटा! ऐसा सभी के साथ होता है। जीवन की संध्या में हर इंसान अकेला ही रह जाता है। पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसा ही होता आया है। तब थका हारा मनुष्य अपने जीवन का लेखा-जोखा करता है कि उसने जीवन में क्या खोया और क्या पाया। भविष्य से तो तब कोई उम्मीद रहती नहीं जिसकी तरफ़ आँख उठा कर देखो, सब अतीत की ओर ही मोड़ जाता है।तुम्हारी मामी भी इसीलिए अतीत को पलटी है। शायद भाई- बहन ही अपने हों…. और मज़े की बात बुढ़ापे में पुराने दोस्त और पुराने संबंधी याद भी बहुत आते है,

क्योंकि सबकी पीड़ा एक सी होती है। बुढ़ापे में सोच भी परिपक्व हो जाती है।पुरानी बातें ना वो कहती है ना हम।’अब चली चला के समय चैन चाहिए हमें भी और तुम्हारी मामी को भी, क्योंकि जीवन का लेखा-जोखा तो हो चुका ना, अब मन में कैसा मन-मुटाव’।

सारे जीवन का सार मम्मी ने समझा दिया।

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आज के युग में संयुक्त परिवारों का चलन ना रहने पर हर इंसान का बुढ़ापा एक एकाकी श्राप बनता जा रहा है।क्या यह उचित नहीं है कि हम अपनी सोच का दायरा कुछ आगे बढ़ाए और अपनी संतान का भी उचित मार्गदर्शन करे।बुढ़ापा तो उन पर भी आएगा ना एक दिन।

पीढ़ियों का यह चलन पहली बार हमें बड़ी गहराई से कचोट गया।क्या वास्तव में हमारे साथ भी ऐसा ही होगा?????

ससुराल पक्ष में देवर और जेठ के बीच कुछ खटपट चल रही है, जिस वजह से दोनों में बोल चाल बंद सी है। बात क्या हुई कोई नहीं जानता, बस ज़रा-ज़रा सा अहं उठा लिए और बोल चाल बंद। कोई भी पहल करना नहीं चाहता जबकि दोनों ही एक दूसरे से बहुत प्यार करते है।

मैंने घर वापस पहुँच कर सबसे पहले अपने घर के टूटे तारों को जोड़ने का प्रयास किया। पति एकटक मेरा चेहरा ताकने लगे और बोले-“ तुम्हें क्या ज़रूरत है बीच में पड़ने की , दोनों खुद ही कुछ दिन बाद एक दूसरे को समझा लेंगे।

“ जहाँ तक हो सके हमें निभाना सीखना चाहिए, तोड़ने की जगह जोड़ना सिखाना चाहिये अपने बच्चों और अपनों को…

बात को बीच में काटते हुये पति बोलें-“ और सामने वाला चाहे मनमानी करता रहे।”

“ तो क्या हुआ… वह बड़े है…अपने ही है…., मैंने कहा ना व्यर्थ अहं रख खून के रिश्तों की बलि नहीं चढ़ानी चाहिए।”

मैंने इलाहाबाद में मम्मी और मामी की पूरी कहानी पति को बताई, तो कुछ सहज होने लगे।

एक सीमा में रह कर रिश्तों को निभाना इतना मुश्किल नहीं, ऐसा हमें विश्वास है। मन में संतोष जागा कि जब मेरा बुढ़ापा आए तो मैं अकेली ना रहूँ। तब यह ना सोचे कि उसने या हमने जीवन में अपनों को अपने से काट कर “ क्या खोया क्या पाया!!!”

संध्या सिन्हा

# रिश्तों के बीच कई बार छोटी-छोटी बातें बड़ा रूप ले लेती है।

# बेटियाँ वाक्य कहानी प्रतियोगिता 

 

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