स्नेह का बंधन – निभा राजीव “निर्वी”

“गिरिधर भैया, तुमसे मैंने कितनी देर पहले शटल कॉक लाने को कहा था बाजार से, पर तुम अभी तक लेकर नहीं आए। कामचोरी की भी हद होती है। एक काम भी बोल दूं तो ढंग से नहीं होता तुमसे।” … सुमित की आंखें गुस्से से जैसे आग बरसा रही थी।

“तू इस नालायक से काम बोलता ही क्यों है! इन जनाब को तो मुफ्त का घर मिला हुआ है, आराम फरमाते रहते हैं। कुछ भी बोल दो इनके कान पर जूं नहीं रेंगती”….. रमित ने भी सुमित की हां में हां मिलाते हुए कहा

” अरे सुमित, दिवाली का टाइम आ गया है और मैं देखो ना कितने जाले लग गए हैं घर में। मैं बस वही निकालने लगा था। तुरंत हाथ धोकर तुम्हारे लिए शटल कॉक ला देता हूं ।तुम नाराज मत हो। बस में यूं गया और यूं आया।” गिरिधर ने हड़बड़ा कर मुस्कुराते हुए कहा।

” बस बस रहने दो…..एक तो गलती करते हो… ऊपर से जुबान लड़ाते हो। अरे तुम्हें भैया क्या बोल दिया, तुम तो सर पर ही चढ़कर बैठ गए। यह मत भूलो कि बाबूजी के एहसानों तले दबे हो तुम।… नौकर हो और नौकर की तरह रहना सीखो।” सुमित सारे लिहाज को ताक पर रखते हुए चीखते हुए बोला।

” हां सुमित बाबू जी के उपकार और प्यार के सहारे ही अभी तक इस घर में टिका हुआ हूं और तुम सबको ही सदा अपना परिवार मानता रहा। मगर मुझसे भूल हो गई। बहुत-बहुत धन्यवाद भाई, आज तुमने मुझे मेरी जगह दिखा दी, कि मैं इस घर के लिए एक नौकर से अधिक कुछ भी नहीं। तुम चिंता मत करो अब मैं तुम सबको और परेशान नहीं करूंगा। मैं आज और अभी कहीं और चला जाता हूं। बाबूजी और अम्मा जी से नहीं मिलूंगा, उनसे मिला तो फिर जा नहीं पाऊंगा। तुम उनसे मेरा प्रणाम कह देना।” गिरिधर ने दृढ़ता से कहा लेकिन उसकी आंखें डबडबा आईं।

इस कहानी को भी पढ़ें:

बेटी का बचपन – दिक्षा दिपेश बागदरे   : Moral Stories in Hindi

            बहुत छोटा था गिरिधर जब रघुवीर बाबू उसे इस घर में लेकर आए थे। शहर के बाहरी छोर के मंदिर के पास नवरात्रों में बहुत बड़ा मेला लगता था। वह उसी मेले में अपने माता पिता के साथ आया था पर ना जाने कैसे उनसे बिछड़ गया। वह बदहवास सा इधर उधर दौड़ता हुआ रो रहा था तभी रघुवीर बाबू की नजर उस पर पड़ी उन्होंने उसे रोककर उसका नाम पता पूछा उसे अपना नाम तो मालूम था पर वह अपना पता बता पाने में असमर्थ था और इतने नन्हे बच्चे से अपेक्षा भी क्या की जा सकती थी। रघुवीर बाबू ने उसके माता-पिता को ढूंढने का बहुत प्रयास किया, पर असफलता ही हाथ लगी। कोई चारा ना देख कर वह गिरिधर को अपने साथ अपने घर ले आए ।

घर में हुआ उनकी पत्नी और उनका पुत्र रमित था जो गिरिधर से तीन चार वर्ष बड़ा था। रमित को गिरिधर फूटी आंखों ना सुहाया। रघुवीर बाबू और उनकी पत्नी ने गिरिधर को बहुत प्यार दिया परंतु रमित के दृष्टि में वह सदैव एक बाहर वाला नौकर ही रहा। रघुवीर बाबू ने पुन: गिरिधर के माता-पिता को ढूंढने का बहुत प्रयास किया अखबारों में विज्ञापन भी दिया परंतु गिरधर के माता-पिता का कुछ पता नहीं चल पाया

तो रघुवीर बाबू ने गिरिधर को अपने पास ही अपने बच्चे की तरह रख लिया और पालन-पोषण करने लगे। धीरे धीरे गिरिधर को भी अब रघुवीर बाबू और उनकी धर्मपत्नी से माता-पिता के जैसा ही स्नेह हो गया। स्नेह तो वह रमित से भी बहुत करता था लेकिन रमित का व्यवहार उसके प्रति हमेशा उद्दंड ही रहा।

           एक वर्ष बाद सुमित का भी जन्म हुआ तो गिरधर को तो मानो एक खिलौना मिल गया। वह बहुत प्यार करता था सुमित से परंतु धीरे-धीरे रमित के व्यवहार के कारण उसकी देखा देखी सुमित के मन में भी यह बात घर कर गई कि गिरिधर इस घर का मात्र एक नौकर है इस परिवार का सदस्य नहीं। लेकिन गिरिधर ने हमेशा इस बात को अनदेखा किया और सब से प्रेमपूर्ण बर्ताव रखता था। रघुवीर बाबू ने गिरिधर का भी नामांकन  पास

के ही विद्यालय में करा दिया था। वह बहुत मन से पढ़ाई करता था और यथासंभव घर के कामों में भी सहायता करने की कोशिश करता था। अपनी मेहनत और लगन से आज वह उसी विद्यालय में शिक्षक के पद पर नियुक्त हो चुका था परंतु उसने रघुवीर बाबू के स्नेह के कारण उसने उनका घर नहीं छोड़ा और आज भी उनके घर के सदस्य की तरह उनके साथ रहता था। परंतु आज सुमित के कटु वचनों ने सारे बांध तोड़ दिए।

इस कहानी को भी पढ़ें:

बेचारी..? कौन बेचारी..? – रोनिता : Moral Stories in Hindi

गिरिधर घर से निकल कर जा चुका था। अमित और सुमित दोनों अवाक रह गए परंतु अपने अहम के कारण उन्होंने गिरिधर को नहीं रोका। अम्मा जी जो चौके में थी, उन तक भी सारी आवाज पहुंच रही थी। वह दौड़ कर गिरधर को रोकने आई मगर तब तक तो वह जा चुका था उनकी आंखें अविरल बहने लगी उन्होंने सुमित को एक तमाचा जड़ते हुए कहा  “-यही संस्कार दिए मैंने तुझे। इतना दिल दुखाया तूने गिरिधर का। माना कि मैंने

उसे अपनी कोख से जन्म नहीं दिया परंतु मैंने उसे हमेशा इस परिवार का ही सदस्य माना और अपना बेटा ही माना। वह भी हर अच्छे बुरे वक्त में हमारे साथ खड़ा रहा। तुझे तो शायद याद भी नहीं होगा जब तू छोटा था और तुझे बहुत तेज बुखार आ गया था तो मैं और गिरधर रात भर जगे रहे। सारी रात गिरिधर तेरे सर पर ठंडे पानी के पट्टियां डालता रहा।

अपनी पढ़ाई छोड़ कर वह तेरी सेवा किया करता था ।तेरे लिए काढ़ा बनाता था। मेरे मना करने पर हंस कर कहता था कि सुमित मेरा छोटा भाई है मैं उसके लिए यह सब करता हूं तो मुझे अच्छा लगता है।… रमित के कमरे की सफाई वह अपने हाथ से किया करता था और हमेशा बोलता था फिर अमित भैया को मैं कोई कष्ट नहीं होने दूंगा, मैं तो उनका लक्ष्मण हूं। सारे काम इतने मन से करता था अपनी सेवा के बदले में कभी कुछ नहीं चाहा।

वह चाहता तो नौकरी मिलते ही यह घर छोड़कर जा सकता था, मगर वह निस्वार्थ भाव से जुड़ा रहा इस घर से और हमारे परिवार से।पर आज तुम दोनों ने उसी भाई को इतनी चोट पहुंचाई कि वह इतने सालों के स्नेह के बंधन को तोड़ कर चला गया …..”

         सारी बातें सुनकर सुमित और अमित की आंखों से आंसू बहने लगे। “तुम सही कह रही हो मां। मैं सदा अपने अहंकार में अंधा रहा, कभी गिरिधर की अच्छाई नहीं देखी। चल सुमित, जल्दी चल….गिरिधर जरूर स्टेशन की तरफ ही गया होगा। “

इस कहानी को भी पढ़ें:

काश ! अपने व्यवहार के लिए एक बार तो सोचा होता – चंचल : Moral Stories in Hindi

             रमेश ने आनन-फानन में कार निकाली और अमित और सुमित स्टेशन की तरफ चल दिए। रमित का अंदाजा सही था। गिरिधर सर झुकाए बेंच पर बैठा था और रेल आने की प्रतीक्षा कर रहा था।

        अमित और सुमित दौड़ कर उसके पास पहुंचे। रमित ने गिरधर को खींचकर गले से लगा लिया। सुमित रुंंधे गले से बोला ,” गिरिधर भैया, मुझसे गलती हो गई।  मुझे माफ कर दो और सब कुछ भुला कर अब घर चलो।”

गिरिधर की आंखों में आंसू आ गए मगर वह मौन खङा रहा इस। पर रमित ने उससे कहा “-पगले, कोई अपने भाइयों की बात का इतना बुरा मानता है। देख तेरा बड़ा भाई हूं मगर तेरे सामने हाथ जोड़े खड़ा हूं ।”…और रमेश ने अपने दोनों हाथ जोड़ दिए ।इस पर गिरधर रो पड़ा और भावुक होकर रमित के दोनों हाथ पकड़ लिए “-नहीं नहीं भैया, आप हमारे सामने हाथ ना जोड़ो।”

“गिरिधर भैया, अगर तुमने सच में हमें माफ कर दिया है तो हमारे साथ अभी अपने घर चलो। दिवाली हम पूरा परिवार एक साथ मिलकर मनाएंगे। अम्मा बाबूजी और हम तीनो भाई।”

           गिरिधर की आंखें भर आई। अगले ही पल तीनो भाई कार की तरफ बढ़ रहे थे।

निभा राजीव “निर्वी”

सिंदरी, धनबाद, झारखंड

स्वरचित और मौलिक रचना

 

1 thought on “स्नेह का बंधन – निभा राजीव “निर्वी””

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!