सिर्फ बहू से बेटी बनने की उम्मीद क्यों? – श्वेता अग्रवाल : Moral Stories in Hindi

सुधा की नजरें बहुत देर से एक माॅं- बेटी की जोड़ी पर टिकी हुई थी। वह उन्हें पहचानने की कोशिश कर रही थी।

“माॅं, प्लीज मान जाइए ना। यह लाल रंग की ड्रेस आप पर बहुत अच्छी लगेगी।”

“देख बेटा, जिद मत कर। मैंने कह दिया ना मैं इतना ब्राइट कलर नहीं पहनूॅंगी। बिल्कुल बूढी घोडी लाल लगाम लगूॅंगी।”

“बूढी घोडी लगे आपके दुश्मन। क्यों नहीं पहनेंगी? पापाजी देखेंगे तो देखते ही रह जाएंगे।”

“चल हट बदमाश। तुझे तो मस्ती का बहाना चाहिए।”

“क्यों? इसमें क्या मस्ती है? आप ही तो बोलती हैं कि जब पापाजी आपको देखने आए थे तो आप लाल साड़ी में थी जिसे देखते ही पापाजी अपना दिल आप पर हार बैठे।”

“एकदम बेशर्म हो गई है।”

“यह बेशर्म -वेशर्म मैं नहीं जानती। बस यह बात फाइनल है कि आप यह ड्रेस ले रहे हैं। जल्दी से ड्रेस ट्राई कीजिए फिर कुछ खाते हैं। मुझे जोरों की भूख लग रही है।” उसने माॅं को ट्रायल रूम की ओर ले जाते हुए कहा।

जैसे ही वो ट्रायल रूम से ड्रेस पहन कर आई बेटी उछल पड़ी “वह माॅं क्या लग रही हो! आज तो पक्का पापाजी फ्लेट ही हो जाएंगे।”

।खड़ी-खड़ी बातें बनाना बंद कर और जा कुछ खाने के लिए लेकर आ। तब तक मैं चेंज करके आती हूॅं।”

“ठीक है लाती हूॅं।”

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“सुन, तू तो वही जली हुई काफी (ब्लैक कॉफी) और बोरिंग से टोस्ट खाएगी लेकिन, मेरे लिए कुछ अच्छा सा लाना।”

चिंता मत करिए आपके लिए आपकी फेवरेट रसभरी जलेबियाॅं विद राबड़ी लाऊॅंगी।ठीक है ना।”

माॅं यह सुनते ही मुस्कुराते हुए ट्रायल रूम में चली गई। जैसे ही वह चेंज करके बाहर आई उसके कानों में एक आवाज पड़ी “एक्सक्यूज मी, आप मीनू है ना, मीनू रस्तोगी।”

“जी हाॅं। लेकिन माफ कीजिएगा मैंने आपको पहचाना नहीं।”

“अरे मीनू, मुझे नहीं पहचाना! मैं सुधा, सुधा मिश्रा। याद कर आज से 15 साल पहले हम गाजियाबाद में पड़ोस में रहते थे।”

“हाॅं, हाॅं याद आया। सुधा कैसी है तू? कितनी बदल गई है।मैं तो पहचान ही नहीं पाई।”

“मैं तो एकदम ठीक हूॅं और पिछले 15 सालों से यही हूॅं।लेकिन, देख एक ही शहर में रहते हुए भी आज तक हमारी मुलाकात नहीं हुई।”

“अरे! होती भी कैसे हम तो पिछले महीने ही यहाॅं शिफ्ट हुए हैं। बेटे का यहाॅं ट्रांसफर जो हो गया है।”

तब तक उसकी बेटी खाने पीने का सामान लेकर आ गई। “बेटा इनसे मिलो। यह सुधा हैं। हम गाजियाबाद में पड़ोस में रहते थे।”

यह सुनते ही वह सुधा के पैरों में झुक गई। ‘धोक आंटीजी।’

“जुग-जुग जियो बेटा। लेकिन, हमारे यहाॅं बेटियाॅं पाॅंव नहीं छुती। गले मिलती है।” फिर उसे गले लगाते हुए मीनू से बोली “रानी बिटिया तो बहुत ही बड़ी और सुंदर हो गई है। अबतक तो इसकी शादी भी हो गई होगी।”

यह सुनते ही मीनू हॅंसने लगी।”सुधा, यह मेरी बेटी रानी नहीं, मेरी बहू है सुमी।”

“क्या! लेकिन तुम दोनों को तो देखकर लगता ही नहीं कि तुम दोनों सास-बहु हो!”

“तो क्या लगता है आंटी जी?” सुमी ने हॅंसते हुए पूछा।

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“वो …वो…”

“सच बताइए। आंटी जी ऐसा लगता है ना मानो हम माॅं बेटी हैं।” जलेबी का टुकड़ा सुधा के मुॅंह में देकर सुमी जोर से हॅंस पड़ी।

उसे हॅंसते देख मीनू भी मुस्कुरा पड़ी। लेकिन सुधा असमंजस में पड़ गई। टाइट जींस-टॉप पहनी हुई,इतनी बेबाकी से जोर-जोर हॅंसती सुमी उसे कहीं से भी बहू नहीं लग रही थी। वह धीरे से मीनू को एकतरफ ले जाकर उसके कान में बोली “यह कैसे कपड़े पहन रखे हैं तेरी बहू ने और कितने जोर से हॅंस रही है। थोड़ा कंट्रोल रखा कर।”

यह सुन मीनू बोली “सुधा अभी जब तक तुझे यह पता नहीं था कि यह मेरी बहू है। तब तक तो यह तुझे बड़ी प्यारी लग रही थी और जैसे ही तुझे यह पता चला कि यह मेरी बेटी नहीं बहू है तो तुझे इसमें हजारों कमियाॅं दिखने लगी। तेरी यही सोच सास-बहू के रिश्ते को खराब करती है। मेरी प्यारी सहेली, हम बहू से तो उम्मीद लगा लेते हैं

कि वह बेटी बन कर रहे। लेकिन, हम सास से माॅं तक का सफर तय नहीं कर पाते। ‘सिर्फ बहू से बेटी बनने की उम्मीद क्यों?’ हम सासों को भी तो माॅं बनना चाहिए।”

यह सुनते ही सुधा सोच में पड़ गई। अपनी बहू रूबी के साथ किए गए व्यवहार को याद करके उसे खुद पर ही शर्म आने लगी। अपनी बहू रूबी पर थोपी गई अनगिनत पाबंदियां याद आने लगी। जोर से हॅंसना नहीं, सुबह जल्दी उठकर नहाकर किचन में जाना और न जाने क्या-क्या। एक बार देर से नींद खुलने के कारण रुबी बिना

नहाए किचन में चली गई थी तो उन्होंने कितना हंगामा खड़ा किया था। एक दिन उसने पार्टी में जाने के लिए जींस-टॉप पहन लिया था तो उन्होंने पूरा घर ही सिर पर उठा दिया था। ऐसे ही कितने अनगिनत किस्से सुधा को याद आने लगे जिनके कारण उनकी फूल सी बहू मुरझा सी गई थी। अब ना तो रूबी उनके पास बैठती है। ना गप्पें मारती है। बस काम से काम रखती है। उसकी खिलखिलाती हॅंसी तो मानो कहीं खो गई है।

“मीनू, आज तुमने मुझे आईना दिखा दिया है। अब मैं भी अपनी बहू की माॅं बनूॅंगी। ताकि वह भी मेरी बेटी बन सके।” कहते हुए सुधा एक नई सोच के साथ अपने घर की ओर चल पड़ी।

घर पहुॅंचकर उसने रूबी को गले से लगाकर कहा “बेटा यह तेरा घर है और मैं तेरी माॅं। अब मैं तेरे ऊपर कोई भी फालतू की पाबंदियाॅं नहीं लगाऊॅंगी। हॅंसती-मुस्कुराती रहो और इस घर को भी अपनी मुस्कुराहट से सजाती रहो।

धन्यवाद

श्वेता अग्रवाल

साप्ताहिक वाक्य कहानी प्रतियोगिता- #सिर्फ बहू से बेटी बनने की उम्मीद क्यों ???

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