ललिता और यशोधरा चचेरी बहनें थी। दोनों की परवरिश एक ही परिवेश में हुयी। दोनों की समवयसी थी। साथ साथ खेला कूदा पढालिखा और बडी हुयी। समय का चक्र ऐसा की दोनों की शादी एक ही मंडप में दो सगे भाईयों से हुयी। ललिता शुरू से ही चंट और चालाक थी।
उसे यह गुण अपनी मां से विरासत में मिली थी। वही यशेाधरा की मां बचपन में ही गुजर गयी थी इसलिए छलकपट जैसे गुण उसमें नहीं आया। शादी के कुछ महीनें ही दोनों भाईयों में पटी मगर बाद में त्रियाचरित्र करके ललिता ने दोनेां भाईयों में अलगागुजारी करवा दी। ललिता के पति की आर्थिक हालत अच्छी थी वही यशोधरा की हाथ तंग था।
अलगागुजारी होने के बाद उसने हालात से समझौता कर लिया। कभी दोनों भाईयों की दुकान साझा हुआ करती थी मगर ललिता आयी तो दोनों भाईयों को अलग थलग कर दिया। ललिता का पति दिवाकर तमाम आर्थिक दुश्वारियों केा झेलते हुए ललिता के लिए एक सिल्क की साडी खरीद कर दिया तो वह निहाल हेा गयी। वर्षो बाद उसे अपनी मनपसंद साडी पहनने का मौका मिला।
वर्ना शादी ब्याह में एक ही साडी पहनकर जाती तो उसे संकोच होता। तो भी कोई शिकवा शिकायत दिवाकर से नहीं करती। उसे विश्वास था कि एक दिन उसकी भी आर्थिक हालत सुधरेगी। फिर वह अपनी मनपसंद जिंदगी जियेगी। ललिता अपने आदत से मजबूर थी। जब भी किसी शादी ब्याह में उसकी मुलाकात यशोधरा से होती तो उसकी गरीबी पर तंज कसने से बाज नहीं आती।
ललिता को दूसरों को नीचा दिखाने में रूहानी सुकून मिलता। वक्त गुजरता रहा। इसबीच यशोधरा की आर्थिक हालत सुधर गयी। मगर तबतक काफी देर हो चुकी थी। जब पहनने ओढने की उम्र थी तब रूपये नहीं थे अब जब रूपये हुए तो उम्र नहीं रहा। दिवाकर द्वारा दी गयी सिल्क की साडी से उसे साडी से बेहद लगाव था। वह उसे बडे सहेज कर रखती थी।
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दिवाकर के गुजर जाने के बाद यशोधरा अकेली पड गयी। ललिता केा जहां विधवा होने के बाद भी भडकीली साडी पहनकर चमकना मटकना भाता वही यशोधरा बेहद शालीन तरीके से जीवन गुजारना पसंद करती। एक दिन खबर आयी कि यशोधरा नहीं रही। सारे रिश्तेदार नातेदार उसकी मौत की खबर सुनकर उसके घर पर जमा हो गये।
समयाभाव के चलते तीन दिन में ही सारे क्रिया कर्म संपन्न हो गये। लगभग सारे रिश्तेदार जा चुके थे सिवाय ललिता और यशोधरा की बेटियों को छोडकर। बडे बेटे की अनुमति से यशोधरा की आलमारी खोली गयीं। उसके कपडे और गहनें सबके सामने आ गये। जैसे ही ललिता की नजर यशोधरा की सिल्क ही साडी पर गयी उसे पाने का मोह वह संवरण न कर सकी।
‘‘यह साडी मुझे दे देा।’’जैसे ही ललिता ने कहा सब हतप्रभ एक दूसरे का मुंह देखने लगे। उन्हे ललिता से ऐसी आशा न थी। कम से कम अपनी उम्र और पद,समय का लिहाज करती? ये अवसर क्या छीना छपटी का था। वह कहती रही,‘‘यशोधरा ने एक बार मुझे पहनने के लिए दी थी। कहा भी था कि तुम ले लेना।’’साथ ही उसने यशोधरा के पैरो में पडी चांदी की पायल की भी डिमांड कर दी। ललिता का हक जताना कितना उचित था
यह तो वही जाने। मगर जिस आकुलता से वह उसे पाना चाहती थी वह सबको हैरान कर देने वाला था। यशोधरा की बेटियों को ललिता का इस हद तक गिर जाना अकल्पनीय था। बेटियों को अपनी मां की सिल्क की साडी का उतना ही मोह था जितना यशोधरा को। क्येांकि दिवाकर ने कडी मेहनत से कमाए पैसों से इस साडी को खरीदी थी।
एक तरह से यह उनके पिता की निशानी थी। जिसे बहनें सहेज कर रखना चाहती थी। मगर जिस तरीके से ललिता ने आतुरता दिखायी उसने सभी को पेशोपेश में डाल दिया। वे मन की मन ललिता की स्वार्थपरकता पर कुपित थी। जिसके साथ बचपन,जवानी गुजारा उसके लाश पर दो आंसू नहीं टपकें वही तुच्छ साडी के लिए इतनी बेहाली।
आदमी केा पाले जानवर से प्रेम हो जाता है यहां तो दोनों का खून का रिश्ता था। तो भी आंखें नहीं भींगी। साडी मानेां रिश्तों से ज्यादा अहमितयत रखने लगी। सभी को ललिता के छिछोरेपन पर शर्म महसूस हो रही थी। रिश्तों का लिहाज न होता तो जरूर उनकी बेटियां उन्हें कुछ सुना देती। बहरहाल वे उन्हें नाराज भी नहीं करना चाहती थी
सो जब किनारीदान सफेद साडी आलमारी से निकली तो यशोधरा की बडी बेटी ससस्मान उनकी तरफ बढाते हुए बोली,‘‘ये साडी आप रख लीजिए।’’ सफेद साडी देखकर ललिता चिढ गयी। सफेद साडी मानेां उसका उपहास कर रही हेा। वह उसे अपनी तौहीनी समझी। कहां इस उम्र में भी वह अब भी बाल काला कराकर घूमती थी। सफेद साडी पहनेगी? तब से जो वह रिसियायी तो आज तक मुंह फुलाये रही।
श्री प्रकाश श्रीवास्तव
एन 14/49 बी-2
कृष्णदेवनगर कालानी
सरायनंदन, खोजवां
वाराणसी-221010