सेंटर टेबल पर रखे सांची का पत्र पढ़कर श्रीधर बाबू कटे वृक्ष के समान भूमि पर गिर गए। हाथों में सांची का पत्र खुला पड़ा था और उनकी आंखें जैसे पत्थर हो गईं थी। उनकी यह अवस्था देखकर उनकी पत्नी सुमित्रा जी दौड़कर आ पहुंची और उन्हें जब झकझोरते हुए पूछने लगी, “- क्या हुआ जी.. सुबह-सुबह ऐसे क्यों बैठ गए??”
क्या उत्तर देते श्रीधर बाबू.. वो तो जैसे जड़ हो गए थे। तभी सुमित्रा जी की दृष्टि उनके हाथों में पड़े पत्र पर पड़ी। उन्होंने उनके हाथ से पत्र लेकर पढ़ना प्रारंभ कर दिया ….
पूज्य पिताजी,
जैसा कि आपको ज्ञात है मैं राकेश से बहुत प्रेम करती हूं। पर पता नहीं क्यों,आपको राकेश कभी नहीं भाया। शायद आपको मेरी खुशियों की कोई परवाह ही नहीं है। इसीलिए अब मैं स्वयं निर्णय ले लिया है और मैं आज रात की गाड़ी से राकेश के साथ कहीं दूर जा रही हूं। कृपया मुझे ढूंढने का प्रयास मत कीजिएगा।
सांची
पत्र पढ़ कर सुमित्रा जी की आंखें भी फटी की फटी रह गई और अविरल अश्रु प्रवाह होने लगा। वह सिसक उठी, “- हमारी एकमात्र पुत्री है सांची.. जन्म से लेकर अब तक वह हमारी आंखों का तारा बनी रही और उसके लिए हमसे जो कुछ भी बन पड़ा हमने सब कुछ किया। उसकी हर खुशी और उसकी हर आवश्यकता का सदा ध्यान रखा परंतु उसका यह प्रतिदान…!!!
सांची ने जाने से पूर्व एक बार भी हमारे सम्मान और हमारी प्रतिष्ठा के विषय में नहीं सोचा! आप एक शिक्षक रहे… धन धन संपत्ति चाहे जितनी ही रही हो.. प्रतिष्ठा आपने अकूत अर्जित की! और उसी प्रतिष्ठा पर कालिख मलते हुए इस लड़की को एक क्षण का भी समय नहीं लगा! जाने कौन से पाप किए थे जो यह दिन देखने को मिला… कॉलेज जाने के बहाने छुप छुप कर इससे मिलती रही.. हमारी प्रतिष्ठा को आज दाँव पर लगा दिया..” सुमित्रा जी की सिसकियां अब करुण क्रंदन में परिवर्तित हो गईं।
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“-हां सुमित्रा, मैंने उसे इतना प्यार दिया, परंतु सारी ममता और सारा प्यार एक क्षण में उसके लिए अर्थहीन हो गया और उस आवारा राकेश का प्यार हमारे प्यार पर भारी पड़ गया। जब सांची ने मुझे राकेश से अपने प्रेम संबंध के विषय में बताया और उससे विवाह करने की अनुमति मांगी तो मैं राकेश के विषय में अपने सूत्रों से जानकारियां प्राप्त करने का प्रयास किया था
और तभी मुझे पता चला कि राकेश निहायती बिगड़ा हुआ लड़का है। कई तरह के व्यसनों में लिप्त रहता है। सांची के अतिरिक्त भी अन्य लड़कियों से भी उसके प्रेम संबंध है और वह इसी प्रकार सबको मूर्ख बनाकर पैसे एकत्रित करता है। पहले भी कई लड़कियां उसके साथ जा चुकी हैं
जिनका फिर कभी कोई पता नहीं चल सका कि उसने उनके साथ क्या किया। बस इन्हीं कारणों से मैंने सांची को कहा कि वह राकेश के साथ अपने सारे संबंध समाप्त कर ले। परंतु उसने तो मुझे ही कहीं का नहीं छोड़ा। भगवान जाने कहां चली गई होगी और किस अवस्था में होगी।” श्रीधर बाबू ने सिर पर हाथ रखकर दुखित स्वर में कहा।
“- अब क्या होगा जी.. मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा..” सुमित्रा जी फिर मुंह पर पल्लू डालकर सिसक पड़ी।
” अब कर ही क्या सकते हैं… पुलिस में रिपोर्ट लिखवानी पड़ेगी। तुम मेरा कुर्ता ले आओ। मैं अभी पुलिस थाने जाता हूं… और सांची के कमरे में जाकर उसकी एक तस्वीर भी ले आओ।”
सुमित्रा जी की तो जैसे शरीर से सारी शक्ति ही चुक गई थी। वह किसी प्रकार से उठीं..
अचानक सांची के कमरे से सुमित्रा जी का तीव्र स्वर उभरा, “-सुनते हैं जी.. यहां आइए जल्दी..”
हड़बड़ाते हुए श्रीधर बाबू सांची के कमरे में जा पहुंचे। वहां का दृश्य देखकर तो वह अवाक ही रह गए। सांची की अलमारी खुली पड़ी थी और वहीं अलमारी के पास सांची हाथ में अपने बचपन का एल्बम लिए बेसुध सोई पड़ी थी।
श्रीधर बाबू और सुमित्रा जी की जैसे जान में जान आ गई।
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श्रीधर बाबू ने आगे बढ़कर सांची के सर पर हाथ फेरा तो वह अचकचाकर उठ गई। उन दोनों को एक साथ वहां देखकर हैरानी और संकोच दोनों के भाव उसके चेहरे पर उभर गए, “-मां.. बाबूजी..आप दोनों यहां..”
सांची का पत्र जो अभी तक सुमित्रा जी के हाथ में ही था वह दिखाते हुए उन्होंने सांची से पूछा, “-यह सब क्या है सांची.. और अगर तू जाने वाली थी.. तो गई क्यों नहीं…”
सांची ने दृष्टि झुका ली। शायद उन लोगों से दृष्टि मिलने का साहस नहीं कर पा रही थी।
धीमे स्वर में उसने कहना प्रारंभ किया, “- मैं क्या कहूं माँ.. और किस मुंह से कहूं। आप दोनों की अपराधिनी हूं मैं.. लेकिन आज आप लोगों से सब कुछ सच-सच बताऊंगी…
जब आप लोग राकेश के साथ मेरे विवाह के लिए नहीं माने, तो सच कहूं तो आप दोनों से बड़ा शत्रु मुझे कोई नहीं लगा। फिर मैंने भी आवेश में आकर या निर्णय ले लिया कि अब चाहे जो भी हो मैं विवाह तो राकेश से ही करूंगी। राकेश भी यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ और इस बात के लिए झट से तैयार हो गया। उसने साथ मिलकर भाग निकलने का सुझाव दिया। उसने कहा कि हम यहां से बहुत दूर चले जाएंगे और वहां जाकर
विवाह कर लेंगे और अपनी नई दुनिया बसा लेंगे। उसने यह भी कहा कि मेरे पास जो भी गहने और पैसे हूं वह भी ले आऊं ताकि जब हम अपना नया जीवन प्रारंभ करें तो कुछ दिनों तक हमारा काम चल सके फिर वह भी कुछ व्यवस्था कर लेगा। तो अपनी आंखों में सतरंगी सपने सजाए मैं मान गई।
कल रात को खाना खाकर जब सब सोने के लिए चले गए तो यह पत्र लिखकर मैंने सामने वाले कमरे में रख दिया ताकि सुबह उठकर जब आप लोग वहां पहुंचे तो आपकी दृष्टि सर्वप्रथम वहीं पड़े। फिर मैंने आप लोगों के कमरे में जाकर माँ के सिरहाने से चाबी निकाल कर अलमारी से गहने और पैसे चुपचाप निकाल लिए। फिर अपने कमरे में अपने कपड़े लेने आई तो कपड़े निकालते हुए अचानक यह एल्बम खिसक कर नीचे गिर गया। यह वही एल्बम है जिसमें आप लोगों ने बचपन से लेकर अभी तक के मेरे सारे पल मोतियों की तरह पिरो कर रखे हैं… एल्बम झुक कर उठाया तो अचानक पहला पृष्ठ पलट गया।
यह मेरे जन्म के बाद की तस्वीर जिसमें आप दोनों कितने प्यार से मुझे गोद में लेकर खड़े हैं… यह वाली तस्वीर जिसमें बाबूजी आप मुझे उंगली पड़कर चलना सिखा रहे हैं… यह वाली तस्वीर जिसमें मां आंगन अपने हाथों से मुझे खीर खिला रही है और खुद धूप की तरफ पीठ करके बैठी है ताकि आगे मुझ पर धूप न पड़े…. यह वाली तस्वीर जिसमें मैं नई फ्रॉक पहन कर नाच रही हूं जो मां ने अपने हाथों से रात भर जाग कर सिली थी, जिसको सीते हुए न जाने कितनी बार उनकी उंगलियों में सूई चुभी थी पर मुझे खुश देखकर वह हर एक चुभन को भूल गई थी…
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यह मेरे कान की नई बालियों वाली मेरी तस्वीर जिनके लिए मैं जिद की थी तो इसे खरीदने के लिए बाबूजी आपने अपना स्कूटर बेच दिया था और अपने दोस्त की पुरानी साइकिल ले ली थी…
इस एल्बम की हर एक तस्वीर के साथ आप सबके प्यार और ममता की कहानी जुड़ी है। मेरी आंखों से अविरल आंसू बहने लगे और राकेश के प्यार का पलड़ा एक क्षण में मुझे हल्का लगने लगा। मैंने निर्णय ले लिया कि मेरा संपूर्ण जीवन आप लोगों का ऋण है.. मैं आप लोगों को छोड़कर कतई नहीं जाऊंगी। फिर मैं राकेश को फोन लगाया और उससे कहा कि मैं अभी उसके साथ नहीं आ सकती।
मैं अपनी मां बाबूजी के स्नेह, ममता, मान, प्रतिष्ठा और अपने घर की इज़्ज़त को ऐसे नीलम नहीं कर सकती हूं, क्योंकि हमारे जाने के बाद यह एक कलंक बनकर हमारे परिवार पर अंकित हो जाएगा। हम दोनों एक दूसरे से प्रेम करते हैं और हम शीघ्र ही कोई और रास्ता ढूंढ निकालेंगे। इस पर राकेश एकदम से भड़क गया और अचानक मुझ पर चीखने लगा और बदहवासी में उसके मुंह से निकल गया, “तुम्हारा जो सौदा किया उसका क्या..”
एक पल में उसकी सारी असलियत मेरे समक्ष आ गई। मैं जैसे आसमान से गिरी। मैंने झटके से फोन काट दिया। मैं समझ चुकी थी कि आप लोग क्यों मुझे राकेश से दूर रहने को कहते थे, पर मैं तो प्रेमांध होकर कुछ सोचने समझने की स्थिति में ही नहीं रह गई थी। मैं आत्मग्लानि से भर उठी कि आप लोगों के स्नेह को मैं छल कर ऐसे दानव के साथ भागने का सोच रही थी। मां बाप से बढ़कर इस दुनिया में कोई भी दूसरा हितैषी नहीं
हो सकता। और मैं आप लोगों के ही स्नेह और अनुभव को ठोकर मारने चली थी। बहुत देर तक मैं रोती रही और फिर रोते-रोते मैं कब सो गई मुझे पता नहीं चला। और यह पत्र उसी कमरे में पड़ा रह गया। माँ.. बाबूजी.. मैंने आप दोनों का बहुत हृदय दुखाया है। मेरा अपराध क्षमा के योग्य तो नहीं है परंतु हो सके तो इसे मेरी मतिभ्रमता और मेरी अज्ञानता मानकर मुझे क्षमा कर दीजिए…”
भावातिरेक श्रीधर बाबू और सुमित्रा जी की भी आंखें भर आईं। श्रीधर बाबू ने सांची के सिर पर हाथ फेरते हुए आर्द्र स्वर में कहा, “- सुबह का भूला यदि शाम को घर आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते। मुझे गर्व है कि तुमने हमारे संस्कारों का मान रख लिया
और ईश्वर की कृपा से कुछ भी बिगड़ने से पूर्व ही सब कुछ संभल गया.. बस इतना समझ लो बेटी कि कोई भी माता-पिता अपनी संतान के लिए कभी बुरा नहीं सोचते.. यह ईश्वर का बनाया हुआ बहुत ही पावन और अनमोल संबंध है.. चलो अब जो भी हुआ उसे एक बुरा सपना समझ कर भूल जाओ और एक नया शुभारंभ करो आगे के जीवन के लिए… एक सुनहरा भविष्य बाहें फैलाए तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है..”
सुमित्रा जी ने सिसकती हुई सांची को खींचकर अपने अंक में भर लिया और उसके माथे पर स्नेह से चुंबन अंकित कर दिया।
निभा राजीव निर्वी
सिंदरी धनबाद झारखंड
स्वरचित और मौलिक रचना
#घर_की_इज़्ज़त