श्रीहरि आश्रय स्थल की आवश्यक मीटिंग समाप्त करने के बाद श्रीकांत जी ने समय देखा तो रात के बारह बज रहे थे। दिसम्बर माह के अंत में चलने वाली शीत हवाओं से पूरा मौसम बेहद सर्द था। चिल्ले वाली सर्दी के भयंकर प्रकोप से बचने की उम्मीद में जन-मानस घर में दुबके पड़े थे। अतः हाड़ गलाने वाली इस भयंकर शीत लहर में इक्का-दुक्का लोग ही सड़क पर नजर आ रहे थे।
आज मीटिंग में देर लग जाने के कारण श्रीकांत जी ने अपनी कार के ड्राइवर को शाम के समय ही छुट्टी दे दी थी। कमरे से बाहर निकलने से पहले उन्होंने कोट का कालर ऊपर करते हुए कनटोप से कान भी अच्छी तरह से ढक लिये थे। झींगुर की आवाज सायं-सायं करती हवा के साथ बड़ी अजीब सी लग रही थी।
श्रीकांत जी ने बाहर खड़ी स्कूटी स्टार्ट करते हुए अपने घर की ओर रूख किया अभी दूसरी गली में स्कूटी मोड़कर वे कुछ आगे बढ़े ही थे कि सामने के चबूतरे पर स्कूटी की हैडलाइट पड़ी तो वहाँ का दृश्य देखकर चौंक पड़े। तुरंत उस स्थान की ओर जाकर उन्होंने स्कूटी रोक दी। वह गट्ठर सा जिस्म जान लिए एक
कृशकाय वृद्ध पुरुष की काया थी। उसको उन्होंने हाथ से स्पर्श किया तो उस बेजान से जिस्म में कुछ हरकत सी नजर आईं। वह जिंदा है या नहीं यह देखने के लिए उन्होंने नाक के सामने हाथ लगाकर साँसों की गरमी महसूस करके जाना कि उस वृद्ध व्यक्ति की साँसें तेज तेज चल रही थीं। उन्होंने एक पल भी सोच विचार में समय नहीं गँवाया और तुरंत नजदीकी अस्पताल के रोगी चिकित्सा वाहन सेवा को फोन लगाया और उक्त स्थल पर पहुँचने की ताकीद की।
अब ये उन भद्र पुरुष के द्वारा किए गए फोन का कमाल था, या कि स्वास्थ्य सेवाओं में लापरवाही बरतने पर कठोर कार्रवाई करने की सरकार द्वारा दी गई चेतावनी का प्रभाव था, कि तत्काल ही एक अलग सिग्नल की पहचान का हूटर बजाती हुई रोगी चिकित्सा वाहन सेवा मौके पर आ पहुँची । वाहन के आने पर मुख,
नासिका पट्टिका लगाये हुए दो व्यक्ति गाड़ी में से स्ट्रेचर लेकर निकले। उन दोनों ने मिलकर उस वृद्ध पुरुष को स्ट्रेचर पर लिटाया और श्वास गति में सुधार करने हेतु ऑक्सीजन की आपूर्ति के लिए सबसे पहले नाक पर मास्क फिट करते हुए आक्सीजन चालू कर दी। तब तक रोगी चिकित्सा वाहन के ड्राइवर ने त्वरित गति से अस्पताल की ओर दौड़ लगा दी।
श्रीकांत जी ने अस्पताल पहुँचकर पूछताछ केंद्र पर जाकर मरीज भर्ती प्रक्रिया की आवश्यक जानकारी हेतु फार्म भर दिया।समुचित पैसे जमा कराये और कागजी कार्यवाही को पूर्ण कर दी। उनके सेवा धर्म से चिकित्सक अच्छी तरह से परिचित थे। चिकित्सक ने उन्हें बताया कि इनके शरीर पर ठंड
का प्रकोप है दूसरे दो तीन दिन से इनका पेट भी भूखा है। श्रीकांत जी के विशेष आग्रह पर उनकी अच्छी देखभाल के लिए चिकित्सक की देख-रेख में आवश्यक दिशा-निर्देश जारी कर दिए गए। इस सारी कार्यवाही से संतुष्ट हो कर वे जब घर पहुँचे तो रात के दो बज रहे थे।
श्रीकांत जी सदाचारी, दयालु, सेवा भावी एवं परोपकारी वृत्ति के व्यक्ति हैं।आज वे शहर के प्रसिद्ध उद्योगपति एवं अनेक समाजसेवी संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। अपनी जवानी के दिनों में कठोर परिश्रम के द्वारा उन्होंने खूब नाम यश और धन कमाया लेकिन जब एकमात्र इकलौता बेटा वहीं की विदेशी बाला
से विवाह करके विदेश में जाकर बस गया तो जैसे उनके हृदय पर पड़ा मोह का परदा भी हट गया। संतान को माँ पिता दोनों का लाड़ प्यार देकर अकेले पालन-पोषण करना किसी के लिए भी सरल काम नहीं होता। लेकिन बेटे के प्रेम में आकंठ डूबे श्रीकांत जी ने ऐसा कर दिखाया था। जिस बेटे की एक फरमाइश
के लिए वे आसमान से चाँद-सितारे तक तोड़ लाने का दम भरते थे। वे अपने जिस्मों जान का एक- एक कतरा बेटे की खातिर न्यौछावर करने का जज्बा रखते थे। उनकी निश्छल ममता, प्यार कुर्बानी ये सारे स्नेहिल जज्बात सूखी नदी की धार सी सूखी बंजर भूमि का सबब बन गये। जब विदेश के मोह में लाड़ले बेटे ने माँ बाप के सम्बन्धों को तिलांजलि दे कर वहीं बसने का फैसला लिया।
“पिताजी आपके पास रखा ही क्या है? जो मैं आपके पास लौट कर आऊँ* मैंने विवाह करके यही बसने का फैसला कर लिया है। अतः मेरा इंतजार न करना।”*
फोन पर बेटे का दो टूक जवाब सुनकर फोन हाथ में लिये हतप्रभ श्रीकांत जी खड़े रह गये।
पिता के अनुराग की खाद पानी से सींचकर बोये गये स्नेहिल बीज, बेटे की हृदय स्थल की खुदगर्ज बगिया में एक भी बीज अंकुरित नहीं कर सका
बेटे के ऐसे स्वार्थ युक्त व्यवहार से श्रीकांत जी का दिल टूट गया। बेटे के सर पर सेहरा बँधा देखने की तमन्ना दम तोड गई। पोते-पोतियों को बाँहों के झूले में झुलाने की आरज़ू दिल में दबकर रह गई। खुली आँखों से देखें गये इन सुहाने ख्बाबों को सजाने का सपना चकनाचूर हो गया था। अवसाद में डूबे श्रीकांत जी महीनों तक घर से बाहर निकले थे।
ऐसी पीड़ादायक स्थिति से उबारने में श्रीकांत जी के एक बचपन के मित्र केशव जी ने बढ़िया भूमिका निभाई थी। वे नौकरी से रिटायर होने के बाद श्रीकांत जी के शहर में लौटे थे। अचानक एक दिन की मुलाकात के बाद श्रीकांत जी के साथ ही रहते थे। वे श्रीकांत जी के लिए उनके सगे संबंधियों से भी बढ़कर थे।
केशव जी की पारिवारिक स्थितियों से निपटने की खातिर श्रीकांत जी ने श्रीहरि आश्रय स्थल का निर्माण किया था। केशव जी के तीन बेटे-बहू और नाती-पोतों से भरा-पूरा खुशहाल परिवार था। पत्नी के जीवित रहने तक उन्हें समय से रोटी-पानी नाश्ता मिलता रहा। लेकिन पत्नी का देहांत होने के कुछ समय पश्चात उनका खाना-पीना बहुओं की नजर में खटकने लगा। अब वे बासी ठंडा रूखा-सूखा खाना भी केशव जी के सामने रख दिया करती।
रसोईघर में बने विभिन्न प्रकार के पाँच सात खाद्य पदार्थों में से ” पापा जी बूढ़े शरीर की पाचन शक्ति बहुत कमजोर होती है। अतः आपको दलिया, खिचड़ी,मूँग की दाल आदि ऐसे हल्के सुपाच्य भोजन से संतोष करना चाहिए।” ऐसा कहकर बचा-खुचा थोड़ा सा भोजन उनके सामने रख जाती।
केशव जी ने अपनी नौकरी के समय तनख्वाह में से इन बच्चों के लिए ,नाना प्रकार के फल, मिष्ठान,मेवा आदि के भंडार भरे रखते थे। और तरह-तरह की खाद्य सामग्री से घर भर कर रखने वाले, खाने-पीने के शौकीन, बुढ़ापे में बेबसी की इंतहा देखकर केशव जी की आँखों से आसूँ छलकने लगते। बेटों से कुछ कहने पर
वे बहुओं की तरफ से ही बोलते थे। और अपने पिता को नसीहत देते हुए उन्हें खाना खाने पर लगाम लगाने की सलाह दिया करते। परिस्थितियों से दो चार होते हुए छुपते- छुपाते कितनी बार अकेले में उन्होंने अपनी पत्नी को याद करते हुए आसूँ बहाये थे। क्योंकि यदि किसी ने देख लिया तो बात का बतंगड़ बनते देर नहीं लगेगी और केशव जी की जान के लिए एक और बेकार का बखेड़ा खड़ा हो जाएगा। ऐसा सोचकर आसूँओं को भीतर उदरस्थ कर लिया करते थे।
एक दिन जब श्रीकांत और केशव जी की बाजार में मुलाकात हुई तो श्रीकांत जी उन्हें अपने घर लिवा लाये। तब एक दूसरे का दुख-सुख कहते- सुनते हुए दोनों मित्रों के मन का लावा फूट निकला। समय की चाल के मोहरे बने वे दोनों ही विधुर थे। दोनों के दिल अपनी-अपनी संतान के गैर जिम्मेदाराना व्यवहार के कारण
आहत थे। अतः दोनों ने आपस में वादा करते हुए एक दूसरे के दुख को सांझा करने का संकल्प लिया। आपस में काफी विचार-विमर्श करने के पश्चात वे इस नतीजे पर पहुँचे थे कि– ” ऐसे रक्त सम्बंधियों को पैतृक संपत्ति से बेदखल कर देना चाहिए । जो बुढ़ापे की असहाय अवस्था में अपने जन्म दाता माता-पिता को सहारा नहीं दे सकते।”
अतः उन्होंने आँखों से अंधे मोह की पट्टी उतार फेंकी।ऐसी नामुराद संतान के अपमान जनक टुकड़ों पर पलने से बेहतर कुछ सार्थक करके दिखाना है। हम तन से जरूर बूढें हुए हैं लेकिन मजबूर बेकार या लाचार नहीं है। हमारा कमाया गया अनुभव आज भी इन बच्चों को खिलाने लायक पैदा कर सकता है। मन की उड़ान और उसके हौसले की गति को कभी मंद नहीं पड़ने देंगे। ऐसी परिस्थितियों में फंसे अन्य मजबूर लोगों को भी इस लायक बनाकर अपना आत्म सम्मान बनाये रखने का उन्हें हौसला देना है। अतः दोनों ने अपनी जमा पूँजी मिलाकर श्रीहरि आश्रय वृद्धाश्रम का निर्माण किया। जहाँ ऐसी पीड़ादायक स्थिति से गुजरने वाले माता-पिता को मान- सम्मान के साथ दो जून की रोटी और सिर छिपाने के लिए सुख का आश्रय मिल सके।
श्रीहरि आश्रय स्थल परिवार से सताए हुए लाचार,बेबस, मजबूर, दुखी जन सबके लिए मजबूत आधार स्तम्भ बन गया था। श्रीहरि आश्रय स्थल में रहने वाले सभी सम्मानित नागरिकों ने अपने अनुभव एवं हस्त कला कौशल से अनेकानेक नवीन एवं छोटी वस्तुओं का निर्माण किया और साथ ही इन कार्यों को अन्य व्यक्तियों को भी करना सिखाया।
आज श्रीहरि आश्रय स्थल में अनेक खुशी के अवसर आते रहते हैं। अनेक एन जी ओ वाले स्त्री-पुरुष सदस्य भी आश्रम से जुड़े हुए हैं। यहाँ तीज-त्यौहार भी रंग- बिरंगी खुशियों से सराबोर रहते हैं। सभी के जन्मदिवस आदि मिलकर मनाने से आश्रम में हँसी ठहाकों की गूँज उठती रहती है।
✍️ सीमा गर्ग मंजरी,
मौलिक सृजन,
मेरठ कैंट उत्तर प्रदेश।