बाबा बाबा !! की आवाज़ लगाती मुनिया जब अपने पिता के पीछे दौड़ी तो रामा ने एकदम से अपनी रिक्शा रोक ली । अरे उठ गई हमारी बिट्टो रानी क़ह कर झट से बिटिया को गोद में उठा लिया । बाप बेटी का प्यार देखकर सामने खड़ी रामा की पत्नी बिंदिया अपने सिर के पल्लू को मुँह में दबाये हंसते हुए बोली …
आज तो अच्छे से लाड़ दिखाओ …जन्मदिन है इसका ! पूरे पाँच बरस की हो गई है आज हमारी मुनिया । अच्छा हमको तो याद ही नहीं था का लाये तुम्हरी ख़ातिर बिटिया ??गोद में उठाई मुनिया से रामा पूछने लगा । हमको केक चाहिए और एक गुड़िया भी , बाबा के गले से लटके मुनिया मटकते हुए बोली ।
कुछ नहीं लाना बस इसकी दो जोड़ी कपड़ा ले आना सब फट गया है … कोई केक वेक मत लाना बहुत पैसा लगता ,बस थोड़ा जलेबी ले आना भगवान को भोग लगवायेंगें कहकर मुनिया को बिंदिया ने अपनी गोद में ले लिया ।
रामा एक रिक्शा वाला छोटा सा जिसका परिवार पत्नी बेटी और एक साल का बेटा छोटी सी खोली और भाड़े की रिक्शा मेहनत से कमाने वाला सीधा साधा मन का सरल इन्सान दिन भर की मेहनत के बाद भी मुश्किल से गुजर बसर में भी ख़ुद को और परिवार को सदा प्रसन्न रखने की कोशिश करता । पति पत्नी दोनों में अटूट प्रेम और आपसी समझ ने जीवन की गाड़ी की सभी मुश्किलों को आसान बनाया हुआ था ।
आज बेटी का जन्मदिन था और बेटी के लिए केक और गुड़िया आज उसके लिए सबसे उपर थी । आज के इस असमान्य खर्चे के लिए मेहनत भी खूब करनी थी । इस निर्बल सी काया को खूब चलाना था । शाम तक रामा सवारियाँ यहाँ से वहाँ ढोता रहा । छह बजे उसने अपनी छुट्टी करने का मन बनाया ।
एक तरफ़ रिक्शा रोककर अपने पैसे गिनने लगा । तीन सौ रूपये ही सारे दिन में कमा पाया था । उसने एक छोटी सी दुकान से दो फ़्राक ली और एक छोटा सा केक लिया जिसमें उसके डेढ़ सौ रूपये चले गये । अभी बिटिया के लिए गुड़िया और पत्नी के लिए जलेबी ले जाना बाक़ी था ।
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रिक्शा अभी उसने घर की ओर मोड़ी तभी एक गोल मटोल लाला जी हाथ में बही खाते पकड़े हुए लगता था जैसे अपनी कोई उधारी वसूलने जा रहे हो,झट से रिक्शा को पकड़ते बोले ओ रिक्शा पहाड़ी वाले मंदिर पर चलोगे ??
वो तो आज जल्दी जाने की चाह में था लेकिन यह क्या एक और सवारी !! सामने से आ रही लक्ष्मी को ठुकराना ठीक नहीं फिर उसे अभी गुड़िया और जलेबी भी लेना था । वो पहाड़ी वाले मंदिर के नीचे के छोटे से बाज़ार से ले सकता है यह सोचकर वह बोला हाँ साहब चलेंगे ।
लाला जी – कितने पैसे लोगे ?
रामा – पचास रूपये साहब!
लाला जी – मैं तो चालीस दूँगा चलना है तो बताओ ?
रामा भले ही ग़रीब था लेकिन ह्रदय में समुद्र जितना सब्र था । सवारियों से पैसे को लेकर कभी बहस नहीं करता था । मंदिर की तरफ़ जाने वाली सवारी तो उसके लिए जैसे देवी का बुलावा ही थी । ठीक है साहब आइये बैठिए जो आपको ठीक लगे दे देना ।
रिक्शा पर बैठते ही वह व्यक्ति रामा से बातें करने लगा ।
लाला जी – कब से भई ये रिक्शा चला रहे हो, गुज़ारा हो जाता है इससे ??
रामा – कई साल से चला रहे हैं साहब, गुज़ारा तो बस ऐसा ही है जितना कमाया उसी में निकाल लेते हैं अपनी बसर ,उस उपर वाले की बहुत रहम है कभी भूखा नहीं सुलाया ।
लाला जी- अकेले हो या परिवार भी है ??
रामा – दो बच्चे हैं पत्नी है, आज हमारी मुनिया का जन्मदिन है, गुड़िया माँगत रही हमसे वहीं लेकर जायेगें मंदिर वाले बाज़ार से बहुत खुस हो जायेगी हमार बिटिया !! लीजिए साहब आ गया देवी का दरबार कहकर रामा ने एक तरफ़ रिक्शा रोक दिया ।
लाला ने उसे चालीस की बजाय साठ रूपये देते हुए कहा अपनी बच्ची को हमारा प्यार देना । रामा ने लाला का दिल से धन्यवाद किया ।
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शहर से दूर पहाड़ी वाली देवी का मंदिर जहां रामा का अक्सर ही आना जाना लगा रहता । सवारी उतारता तो वहीं से अगली सवारी मिल जाती । पहाड़ी पर देवी का मंदिर जहां पहुँचने में पाँच छह घंटे का समय लग जाता और वहाँ श्रद्धालुओं का सदा ताँता लगा रहता । बाज़ार में ऐसी रौनक़ जैसे बारह महीने मेला लगा हो । चूड़ियाँ ,खिलौने ,खाने पीने के ठेले ,पूजा का सामान प्रसाद हर तरह की छोटी छोटी दुकानें एक अलग सा ही इस बाज़ार का आकर्षण, हर कोई अपनी ही धुन में मस्त रामा भी यहाँ आकर अक्सर एक अलग सा ही सुकून पाता । नीचे से ही देवी माँ को प्रणाम करता और प्रार्थना करता कि कभी उसके जीवन में भी ऐसा सामर्थ्य ला कि एक दिन का वो भी अवकाश ले सके और माँ के दर्शन को आ सके ।
रामा फिर से खोया हुआ था कि सामने से उसे लकड़ी के बाँस पर कुछ खिलौने लटकाई एक बूढ़ी अम्मा दिखाई दी । उसने उस अम्मा को बुलाया और पूछा कि गुड़िया कितने की है ?? अम्मा बोली गुड़िया तो पच्चीस रूपये की है लेकिन भैया तुम मेरे सभी खिलौने ख़रीद लो । मैं बहुत मुसीबत में हूँ मुझे पैसों की सख़्त ज़रूरत है । रामा हंसने लगा अम्मा दर्द तेरा बाँट लूँगा पर कम ना कर पाऊँगा … पकड़ा भी तो एक गरीब !! पर अम्मा तो पीछे ही पड़ गई रामा के पैर पकड़ने लग गई रोने लगी । अब तो रामा को उस बूढ़ी औरत पर तरस आने लगा । उसने अम्मा को अपने हाथों से पकड़कर उठाया और कहने लगा मैं तो अम्मा रिक्शा वाला हूँ क्या करूँगा इन खिलौनों का ?? कुछ भी कर लेना बेटा पर मुझे आज पैसे चाहिए , अम्मा रोते हुए बोली ।
रामा ने पूछा कितने के हैं तो वो बोली ढाईं सौ रूपये के है । रामा ने कहा मेरे पास पास दो सौ रूपये है । अम्मा दो सौ में ही मान गईं और खिलौने रामा को देकर चली गई । रामा ने घर आकर बेटी का जन्मदिन मनाया और अपनी पत्नी को अम्मा वाली सारी बात भी बताई । पत्नी ने पुछा कि क्या करोगे अब इनका ?? करना क्या है सवारियाँ लेने से पहले वहीं मदिर के बाज़ार में बेचने का प्रयास करूँगा …बात करते करते थके हुए पति की कब आँख लग गई पत्नी को भी पता ही ना चला ।
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अगले दिन रामा ने अपनी रिक्शा एक तरफ़ खड़ी करके ज़मीन पर चादर बिछा कर सभी खिलौने अच्छे से सजा दिये । उसे किसी का भाव नहीं पता था । सुबह का समय भीड़ लगनी शुरू हुई और रामा के पास बच्चों का जमावड़ा लग गया । रामा ने मन से हर खिलौने का भाव बनाया और देखते ही देखते दो घंटे में सब खिलौने बिक गये । रामा की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था । उसने जब पैसे गिने तो उसके सब खिलौने चार सौ के बिके । अपनी लागत निकाल कर दो सौ का मुनाफ़ा.. रामा ने सोचा इसमें पचास रूपये पर उस अम्मा का हक है । वो बाज़ार मे उसे ढूँढने लगा तो एक अम्मा के जानने वाले से पता चला कि अम्मा कई दिनों से अपने कमरे का किराया नहीं दे पा रही थी । कल उसके मकान मालिक ने उसका सारा सामान उठाकर बाहर फेंक दिया । अम्मा सारी रात बाहर ठंड में बैठी रही और सुबह मृत पाई गई । यह सब सुनकर रामा का ह्रदय दुख से भर गया । उसने अम्मा के नाम के पचास रूपये को देवी के चरणों में भेंट स्वरूप चढ़ाने का अपने मन से उपर पहाड़ी की ओर देखते हुए वायदा किया , और हाथ जोड़कर माँ से विनती की कि उसे जल्दी बुलाये ।
अम्मा जाते जाते उसे ख़ुद को परखने की एक जादू की छड़ी पकड़ा गई थी । इस धंधे के मुनाफ़े ने अगले दिन फिर रामा को एक नई दुकान सजाने पर मजबूर किया । शुरू शुरू में वह कम सामान के साथ बैठा फिर धीरे-धीरे अपना काम जमाता गया । अम्मा की मेहनत की कमाई में ग़ज़ब की बरकत थी ।हर बार उसे अच्छा फ़ायदा हुआ । रामा ने अब रिक्शा का काम छोड़ दुकान का काम करने का मन बनाया । व्यापार के वो गुर तौर तरीक़े सीख गया था । उसने एक किराए पर एक छोटी सी दुकान ली और अपने नये कारोबार में व्यस्त हो गया । जमकर मेहनत करता सुबह आता शाम को दुकान बढ़ाकर घर चला जाता । जीवन ग़रीबी की रेखा से उपर आने लगा । पत्नी भी अच्छी साड़ी में ख़ुद को देखने लगी । बच्चे मनपसंद का खाना खाने लगे । घर में सुख सुविधा की चार चीजें भी आने लगी ।रामा अपने इस नये जीवन में बहुत प्रसन्न रहने लगा । देखते देखते चार साल बीत गये और इन चार सालो में उसके मन में दुकान घर परिवार बच्चे के अलावा सब ख़याल कोरें हो गये । सामर्थ्य होते हुए भी उसे कभी ख़याल नहीं आया कि दुकान बंद कर माँ के दर्शनों के लिए मंदिर हो आये ।
वो दिन कुछ अलग ही रामा के लिए बनकर आया । ना त्योहार ना छुट्टी का दिन लेकिन बाज़ार में बहुत रौनक़ ग्राहकों की तो जैसे क़तार लग गई हो । रामा ख़ुशी के साथ साथ थोड़ा ख़ुद को अस्वस्थ भी महसूस कर रहा था । लेकिन वो कमाई के आगे ख़ुद को पुरी तरह नज़रअंदाज़ कर रहा था । शाम होते होते उसके गल्ले में काफ़ी रूपये आ चुके थे । कुछ ही देर में घर जाने की भी तैयारी थी । लेकिन तभी अचानक मौसम का मिज़ाज बिगड़ गया । ज़ोरों की आँधी तूफ़ान के बीच कड़कती बिजली बादलों की गड़गड़ाहट के साथ मूसलाधार बारिश शुरू हो गया । सभी दुकानदार दुबक कर दुकानों में बैठ गए । रामा जो सुबह से स्वयं को असहज और अस्वस्थ महसूस कर रहा था । उसकी हालत बिगड़ने लगी । पेट में ज़ोरों के दर्द शुरू हो गया …दर्द असहनीय था पीड़ा तीव्र थी । तुरंत उपचार की आवश्यकता लग रही थी । साथ वाली दुकान का साथी भागकर डाक्टर साहब को अपने स्कूटर पर बिठा कर ले आया । डाक्टर ने देखकर दवाई दी और फ़ीस में ढाईं सौ रूपये माँगे और कहा अभी के दर्द को रोकने की दे रहा हूँ ।लेकिन सुबह बड़े अस्पताल में जा कर ख़ुद को दिखा आना ।वक़्त का कुछ पता नहीं कब क्या दिखा जाये ।
रामा हैरान था कि गल्ले में सभी सौ सौ के ही नोट थे जहां अक्सर कई छोटे बडे नोट रहते थे । उसने तीन सौ रूपये दिए तो डाक्टर ने पचास रूपये उसे वापिस लौटाये । वो पचास रूपये उसकी मुट्ठी में वक़्त का कुछ पता नहीं !!बड़ा अस्पताल !! डाक्टर के इन शब्दों ने उसके अन्दर सोईं हुई स्मृतियों को जगा दिया । आत्मा के अन्दर जागृति के कई तार झनझना गये उसे अपना वादा याद आ गया । अभी तक रात के दस बज चुके थे बारिश थम चुकी थीं । दवाई भी असर कर गई थी । रामा ने पचास रूपये मुट्ठी में कसकर पकड़ लिए , गल्ले में पूरे दिन की कमाई एक थैली में भरीं लालटेन उठाई और पहाड़ी की ओर चलने के लिए तैयार हुआ । लोगों ने उसे रोका तो उसने कहा नहीं मुझे अभी जाना है पहले से ही मैंने काफ़ी देर कर दी है अब ओर देर करना ठीक नहीं,वहाँ उसे बहुत पहले जाना चाहिए था । इस ज़िन्दगी का कोई भरोसा नहीं ।
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रास्ता बहुत ख़राब और फिसलन से भरा था । मीलों तक अंधेरा और रामा लालटेन की रोशनी से पग पग चलता गया ।सुबह के चार बजे वो मंदिर के भवन पर था । पाँच बजे जब पुजारी जी आये तो उन्होंने थके हारे इन्सान जिसके कपड़ों पर कहीं कहीं कीचड़ के दाग हाथ में इक थैली और मुट्ठी में कस कर भींचा इक नोट देखा तो देखते ही वो समझ गये कि कहीं अन्दर की वचनबद्धता की श्रद्धा और शायद माँ की कोई मंशा इस श्रध्दालु को आज यहाँ खींच लाई है । जिसने सुबह तक का भी इन्तज़ार नहीं किया ।
पुजारी जी ने मंदिर के किवाड़ खोले । रामा देखता ही रहा । मंदिर की ख़ूबसूरती का नजारा अलौकिक था । देवी की प्रतिमा में अपार श्रद्धा आँखों में करूणा और प्रेम का विशाल समुद्र था ।उसने देवी के चरणों में वो पचास का नोट जब चढ़ाया तो आँखों से आँसू निकल पड़े । उसने हाथ जोड़कर क्षमा माँगी कि हे माँ तूने देने में देर नहीं की और उसने लालच में अंधा होकर यहाँ आने में बहुत देर लगा दी ।
पुजारी ने उसके हाथ में नोटों की थैली देख कर पूछा आज यहाँ भंडारा करवाओगे ?? उसने हाँ में सिर हिलाया !! तो ठीक है सामने की खिड़की में जो सेवक बैठा है उसके पास चले जाओ , पुजारी जी ने इशारा करते हुए बताया ।
रामा ने वो थैली जैसी ही सेवक को पकड़ाई तो मेज़ पर पड़े कैलंडर की तारीख़ को देख कर हैरान हुआ । आज वही तारीख़ थी जब उसे वो खिलौने वाली अम्मा मिली थी और उसी रात वो चल भी बसी थी क्योंकि आज के दिन उसकी बेटी का भी जन्मदिन था । सेवक ने पूछा भंडारा किसके नाम करना है??
उसने मूँड़ कर पीछे देखा तो मंदिर के आगे खड़ी वो अम्मा दिखाई दी । हैरानी से उसके मुँह से अम्मा निकला तो सेवक ने माँ के नाम का लिख दिया । फिर सेवक ने पूछा माँ का नाम क्या है ?? रामा वहीं टकटकी लगाये देख रहा था सामने अम्मा खड़ी आशीर्वाद दे रही है और पीछे देवी अपनी प्रतिमा में जैसे मुसकरा रही है । यह अद्भुत नजारा देखकर रामा को माँ का बुलावा समझ आ गया । उसने अपने मन में अपार सुख और शांति अनुभव की और अपनी माँ उस अम्मा का नाम शांति देवी बताया ।
बड़े सेवा भाव से उस दिन रामा ने भंडारा कराया । देवी का शुकराना किया और चला गया । पहाड़ी के नीचे पत्नी बच्चों संग पति का इन्तज़ार कर रही थी । पति को अत्यंत ख़ुश देखकर उसने सुकून की साँस ली .. और नाराज़गी भाव से बोली अगली बार अकेले मत चले जाना ।
नहीं पगली अब तो यहाँ जाना लगा ही रहेगा और तुम सब हर बार मेरे साथ चलोगे , रामा ने मुसकराते पत्नी की ओर देखते हुए कहा । हर साल रामा आज ही के दिन भंडारा कराता रहा और देवी के चरणों में अपने श्रद्धा के फूल अर्पित करता रहा
#ज़िंदगी
स्वरचित रचना
अभिलाषा कक्कड़