श्रद्धांजलि (भाग 8 ) – बीना शुक्ला अवस्थी: Moral stories in hindi

सुकन्या का अब थोड़ा काम ही शेष रह गया था। वह वरदान का सिर तब तक सहलाती रही जब तक वह सो नहीं गया। इसके बाद उसने अपने आटो मैटिक कैमरे से अपनी और वरदान की वैसी ही तस्वीरें खींची जैसी गृह प्रवेश वाले दिन खींची थी लेकिन इस बार सुकन्या का चेहरा स्पष्ट नजर आ रहा था।

सुबह जब वरदान उठा तो सुकन्या कमरे में नहीं थी लेकिन बाथरूम से उसके गुनगुनाने की आवाज आ रही थी। वास्तव में आज वह बहुत खुश थी, उसे वरदान से जो पाना था पा लिया था। थोड़ी देर बाद मुस्कराती हुई सुकन्या आ गई – ” क्या बात है, आज बहुत खुश हो।”

सुकन्या बिस्तर पर ही बैठ गई – ” इतनी सुंदर रात बिताकर कौन खुश नहीं होगा ?” सुकन्या वरदान के ऊपर झुकी तो उसके बाल वरदान के चेहरे पर छा गये। वरदान से उसे अंक में भरकर चुम्बनों की बारिश कर दी।

” लेकिन मुझे तो रात का कुछ याद ही नहीं रहता। अगली बार मैं एक बूॅद भी नहीं पियूॅगा। मैं भी तो देखूॅ कि होश में रहते हुये तुम कितना सुख देती हो।”

” ठीक है, अगली बार याद रखना ।”

टूर से लौटने के बाद सुकन्या के लिये वरदान को बर्दाश्त करना मुश्किल होने लगा। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह सब कुछ पुलिस को बता दे या इस खेल को और आगे बढ़ाये। या तस्वीरों से वरदान को ब्लैकमेल करके उसकी सारी सम्पत्ति छीनकर उसे दर दर का भिखारी बना दे या सब कुछ ले जाकर उसकी पत्नी रुद्रा के सामने रखकर उसकी बेहद विश्वास करने वाली पत्नी और प्यारे बच्चों के साथ उसका सारा सुख चैन नष्ट कर दे। उसकी बुद्धि काम नहीं कर रही थी। उसे लगने लगा कि वह कुछ दिन के लिये वरदान से दूर होकर ही इत्मीनान से कुछ सोंच पायेगी।  चिन्ता और परेशानी उसके चेहरे पर स्पष्ट दिख रहे थे – ” क्या बात है सुकन्या, कोई परेशानी या समस्या है तो मुझसे कहो।”

” वरदान मम्मी की तबियत खराब है। पापा मम्मी बुला रहे हैं, जबसे आईं हूॅ , एक बार भी नहीं जा पाई हूॅ। चार पाॅच दिन की छुट्टी चाहिये।”

” तो इसमें परेशानी की क्या बात है? चली जाओ।”

” सच?” सुकन्या खुश हो गई – ” मैं तो सोंच रही थी कि तुम मना कर दोगे।”

” तुम्हारे बिना मन तो नहीं लगेगा लेकिन तुम्हें उदास नहीं देख सकता। जल्दी आना।”

” मन तो मेरा भी तुम्हारे बिना नहीं लगेगा। मुझे पता नहीं था कि  तुम इतने अच्छे हो कि मेरे एक बार कहने से ही मान जाओगे। मैं कैसे तुम्हें शुक्रिया कहूॅ?”

” मत कहो, जल्दी आना। आने के बाद मैं खुद वसूल लूॅगा। ” वरदान ने मुस्कराते हुये कहा ।

” तुम भी…….।” सुकन्या शर्मा गई तो वरदान ठहाका मारकर हॅस दिया।

दूसरे दिन सुकन्या की फ्लाइट थी। वरदान की इच्छा सुकन्या को एयरपोर्ट  छोड़ने जाने की थी  लेकिन चूॅकि फ्लाइट रात की थी इसलिये सुकन्या ने मना कर दिया – ” कोई जरूरत नहीं नींद खराब करने की। बेकार में घरवालों को शक का मौका देने की क्या जरूरत? मैं पहुॅचते ही तुम्हें मैसेज कर दूॅगी।”

” मम्मी की तबियत की भी खबर देना, मुझे चिन्ता लगी रहेगी।”

” ठीक है, तुम फोन मत करना। पता नहीं मेरे पास उस समय कौन हो ,मैं खुद समय निकाल कर तुम्हें फोन करती रहूॅगी। अभी मैं पापा – मम्मी को भी कोई शक नहीं होने देना चाहती।”

सुकन्या एयरपोर्ट जाने की बजाय नीलिमा के घर आ गई। बहुत दिन बाद सुकन्या को देखकर सुमन जी बहुत खुश हुईं – ” कितने दिन बाद माॅ के पास आने का समय मिला है? ऑखें पथरा गईं अपनी बिटिया को देखने के लिये।”

” क्या करती चाची, इधर समय ही नहीं मिल पा रहा था इसलिये नहीं आ पाई। अब चार पाॅच दिन आपके पास रहूॅगी, खूब सारी बाते करेंगे । खूब खाऊॅगी और खूब सोऊॅगी। थक गई हूॅ काम करते करते।”

यहाॅ आकर जैसे वह वरदान की कैद से आजाद हो गई है। स्वतन्त्रता का एक नया आनन्द उसे आ रहा था। उसे लगने लगा  कि अब उसे किसी की सहायता लेनी चाहिये। क्योंकि हो सकता है कि बिना किसी की सहायता के उसने इतनी मुसीबत उठाकर जो कुछ प्राप्त किया है, वह बरबाद हो जाये और वह खुद किसी मुसीबत में न फॅस जाये। अपनी जान की तो उसे चिन्ता नहीं थी लेकिन इकट्ठा किये सबूतों की वह मरकर भी रक्षा करना चाहती थी लेकिन किसकी सहायता ले? कौन है जो इस कार्य में ‌उसकी सहायता कर सकता ‌है? सहायता तो दूर किसी को पता भी चल‌ गया तो बना बनाया काम बिगड़‌ जायेगा क्योंकि अभी तक उसने जो भी किया है,  उससे वरदान अनभिज्ञ है लेकिन अब उसे वरदान के सामने ‌आकर‌ चोंट करनी है इसलिये अब बहुत सतर्कता की आवश्यकता ‌है। इसलिये बहुत सोंच विचार कर उसने मृत्युंजय को फोन किया।हालांकि जानती थी कि मृत्युंजय बहुत नाराज होगा। यहाॅ आने के बाद उसने केवल एक बार मृत्युंजय से बात की थी, यहाॅ तक उसकी नौकरी की बधाई भी नहीं दी। लेकिन मृत्युंजय के अतिरिक्त न तो किसी को कुछ बता सकती है और न ही किसी दूसरे की सहायता ही ले सकती है।

” हाय जय, कैसे हो?”

” बिल्कुल ठीक हूॅ, बोलो कैसे याद किया?” मृत्युंजय के स्वर की रुखाई स्पष्ट थी।

” मैं तुम्हारी नौकरी की बधाई नहीं दे पाई थी इसलिये…….।

” ठीक है, अब दे‌ दी है ना, अब फोन बंद करो।”

” जय, मुझे तुम्हारी सहायता चाहिये। क्या किसी भी तरह तुम एक दिन के लिये आ सकते हो? मैं आजकल चाची के पास हूॅ।”

” क्यों तुम्हारे सब चाहने वाले मर गये हैं क्या जो तुम्हें मेरी जरूरत पड़ गई? क्या मुझे पता नहीं कि तुम क्या कर रही हो? तुम क्या सोचती हो कि मैं दूर हूॅ तो मुझे कुछ पता नहीं है? नीलिमा जिस कम्पनी में काम करती थी तुम्हें नौकरी करने के लिये वही कम्पनी मिली थी? क्या मि० वरदान आहूजा की मेहरबानियॉ कम पड़ गई हैं जो तुम्हें यह अदना सा नाचीज मृत्युंजय याद आ गया?मुझे तुमसे कोई लेना देना नहीं है ,जो करना है करो। मुझे क्यों परेशान कर रही हो?” इतना कहकर उसने फोन काट दिया।

सुकन्या ने दुबारा फोन मिलाया और बिना मृत्युंजय की बात सुने गंभीर स्वर में कहा –

” फोन मत काटना जय। मैंने तुम्हारी बात सुनी है इसलिये मेरी बात सुन लो। किसी भी तरह कल यहाॅ आओ, मैं तुम्हारा इंतजार कर रही हूॅ वरना जिन्दगी भर पछताओगे। आकर चाची को मत बताना कि मैंने तुम्हें बुलाया है।” यह कहकर उसने फोन काट कर बंद कर दिया।

सुमन जी खुशी से बावली हुई जा रहीं थी। सुकन्या भी सब कुछ भूलकर उनके प्यार में खो गई।

दूसरे दिन सुबह कालबेल की आवाज से सुमन चाची दरवाजा खोलने गईं तो चौंक पड़ी –

” अरे , जय बेटा, तुम कैसे आ गये? तुमने तो कहा था कि नई नौकरी में जल्दी नहीं आ पाऊॅगा।”

” क्या करूॅ मम्मी, आप साथ चलती नहीं है। बहुत याद आती है, मन नहीं माना।” मृत्युंजय ने झुककर माॅ के पैर छुये और अपने से लिपटा लिया –

” बहुत अच्छे समय आये हो तुम। देखो, सुकन्या भी आई है। काश! नीलिमा भी होती।” तीनों की ऑंखें भर आईं।

दोपहर का खाना खाने के बाद सुमन जी हाथ में थैला लेकर आ गईं –

” आज मेरे दोनों बच्चे आ गये हैं, कुछ सामान लेकर अभी आती हूॅ। तब तक तुम दोनों बातें करो।”

” आप लिस्ट बना दो, मैं ला दूॅगा।”

” सुकन्या ने ही सामान के लिये जबरदस्ती मुझे बाहर निकलना सिखाया। खुद भी कुछ लेने जाती थी तो मुझे लेकर जाती थी। अब भी जब आती है अपनी मनपसंद की चीजें लेने मुझे ही भेज देती है। नीलिमा के जाने के बाद इसी के कारण मैं जी पाई हूॅ।”

” आप जाइये चाची और मेरे लिये मोहन की दुकान से इमरती लेती आइयेगा। कल सुबह नाश्ते में छोले भटूरे बनाऊॅगी, जो सामान घर में न हो, लेते आइयेगा नहीं तो सुबह आपको ही दौड़ना पड़ेगा।” मृत्युंजय मुस्करा दिया और सुमन जी भी हॅसती हुई चली गईं।

मृत्युंजय उतावला हो रहा था लेकिन सुकन्या ने हाथ के इशारे से रोक दिया। सुमन जी के जाने के पाॅच मिनट बाद सुकन्या उसे अंदर वाले कमरे में ले आई।

अब उसने नीलिमा की मृत्यु के रहस्य से पर्दे उठाकर सब कुछ सच सच बता दिया। सारी तस्वीरें, सारे रिकॉर्ड सब दिखा दिया। सुनकर मृत्युंजय फटी फटी ऑखों से सुकन्या को देखता रह गया। उसके लिये विश्वास करना असंभव हो रहा था। उसकी प्यारी बहन के साथ इतना सब हो गया और उसे कुछ पता ही नहीं –

” जय, मैंने खुद को और नीलिमा की आत्मा को वचन दिया था कि इस व्यक्ति को ऐसे नहीं छोड़ूॅगी चाहे इसके लिये मुझे जान देनी पड़े या कितना भी नीचे गिरना पड़े। हमारी नीलिमा इसके कारण चली गई और यह व्यक्ति वैसे ही बेपरवाह घूम रहा है तमाम लड़कियों की जिन्दगी बरबाद करने के लिये।”

” तुमने मुझे पहले क्यों नहीं बताया? मैं मार डालूॅगा उस नीच को जिसने मेरी बहन के साथ ऐसा दुष्कर्म करके उसे आत्महत्या के लिये मजबूर कर दिया।”

उत्तेजना में मृत्युंजय उठ कर खड़ा हो गया तो सुकन्या ने उसे हाथ पकड़कर बैठा लिया –

” शान्ति से काम लो जय। तुम क्या समझते हो कि मैं उसे नहीं मार सकती थी? जब चाहती मार सकती थी लेकिन इससे मैं कानून द्वारा सजा की हकदार हो जाती जबकि मैं क्यों सजा भोगूॅ? मौत तो नीलिमा की यंत्रणा के सामने इसके लिये बहुत आसान सजा है। इसकी मौत हो भी तो यंत्रणा से।”

सुकन्या की ऑंखें भीगने लगीं –

” दिल पर पत्थर रखकर अन्दर से तड़पते हुये मैंने उस नीच की हर हरकत सहन की है। प्यार का झूठा नाटक करके उससे तमाम पैसा, फ्लैट, कार, मॅहगे कपड़े और गहने लेती रही, इन सबकी  रसीदें मेरे पास हैं क्योंकि मुझे और भी प्रमाण चाहिये थे। नीलिमा के दिये प्रमाण पूरी तरह पर्याप्त नहीं थे।”

मृत्युंजय सिर झुकाये बैठा था अचानक उसने सुकन्या के दोनों हाथ पकड़कर अपनी गीली ऑखों से लगा लिये – ” तुमने मेरी बहन के लिये अपना सब कुछ दॉव पर लगा दिया और मैं तुम्हें गलत समझता रहा।”

” जय, नीलिमा ने सबसे अधिक मुझ पर विश्वास किया था, वह जानती थी कि तुम आवेश में कोई गलत कदम उठा लोगे।”

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श्रद्धांजलि (भाग 9 ) – बीना शुक्ला अवस्थी: Moral stories in hindi

बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर

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