“माँ! एक बात पूछूँ?” मीना ने अपनी माँ लाली से पूछा।
“हाँ, हाँ,बिटिया रानी पूछो ना!” लाली ने मीना के सिर पर हाथ फेरा।
“क्या तुम्हारा मन नहीं करता कि तुम कभी नयी साड़ी पहनो?” मीना ने लाली की आँखों में झाँकते हुए कहा।
“बिटिया, मन का क्या है? मन तो बहुत कुछ करे है। पर तेरे बापू के जाने के बाद घरों में चौका बर्तन करने के बाद दो समय की रोटी का जुगाड़ हो जाए, वही बहुत है। नये लत्तो की बात तो करे ही मत।” लाली के स्वर में बेबसी थी।
“अच्छा तुम अपनी आँखें बंद करो।”
“क्यों?”
“तुम आँखें बंद तो करो।” मीना ने जिद की।
अपनी गोद में किसी चीज का स्पर्श पाकर लाली ने आँखें खोली। अपनी गोद में एक नई साड़ी का पैकेट देख लाली चौंक पड़ी।
“बिटिया, यह साड़ी कहाँ आई?” लाली ने पूछा।
“माँ! जब तुम शाम को काम पर जाती थी तब मैं और भैया पढ़ाई करने के बाद रद्दी अखबारों के लिफाफे बनाकर दुकान पर बेच आते थे। उन्हीं पैसों को इकट्ठा कर तुम्हारे जन्मदिन के लिए हमने यह साड़ी खरीदी है। अपने जन्मदिन पर आज तुम यही नयी साड़ी पहनना, माँ।” मीना ने माँ के गाल को चूमते हुए कहा।
काम पर से मिली हुई तमाम महंगी पुरानी साड़ियाँ पहनने के बाद लाली आज बच्चों की दी हुई इस नई सूती साड़ी को पाकर खुद को गर्व के शिखर पर आसीन महसूस कर रही थी।
मौलिक सृजन
ऋतु अग्रवाल,
मेरठ