शायद कभी नहीं – संगीता श्रीवास्तव

 “अरे, क्या कर रहे हो तुमलोग? शीशे हैं, चुभ जाएंगे पैरों में।” मैंने उन्हें टोका था। उन्हीं में से एक लड़के ने कहा था-

“दीदी, हमने इन्हीं शीशों पर तो चलना सीखा है, इन्हीं कूड़ों पर तो होश संभाला है।”

“पर इसके पहले तो मैंने तुम्हें यहां नहीं देखा।”

“हां दीदी ,हम आज पहली बार यहां आए

हैं । इसके पहले हम दूसरे कूड़े के ढेर पर जाते थे। कल वहां कूड़े हटा दिए गए न, इसलिए हम यहां कूड़ा देख कर आ गए।” तभी –

“अहा !यहां तो हमें और भी ज्यादा बोतलें और डिब्बे आदि मिलेंगे। ” कहते हुए एक नन्हा – सा बालक  उछला। उछलते ही उसके पैर में कांटी चुभ गई और उसने बड़ी निडरता से कांटी को निकाला। कुछ खून भी निकल आया, पर वह घबराया नहीं।

   ” ओह! तुम्हें तो खून निकल आया। ठहरो , डिटॉल लेकर आती हूं”- मैंने कहा।

    “अरे नहीं दीदी, उसकी कोई आवश्यकता नहीं, ऐसा तो रोज होता है”, और लपक कर पास ही किसी पौधे के पत्तों से रस निकालकर उस कटे स्थान पर लगा लिया और पुनः उन कूड़ो में ढूंढने लगा  ।मैं भौंचक हो यह सब देखती रही। इसे देख ,मेरे दिल में अजीब सी टीस हुई। उसी समय-




  “संजू , संजू कहां हो?”दौड़ती चिल्लाती हुई नेहा मेरे पास छत पर आई और लिपट गई ।

  ” अरे, नेहा तुम! कहो कब आई?”

  ” परसों ही तो आना हुआ है यार ।आते ही मां से मैंने तुम्हारे बारे में पूछा ।पता चला ,तुम्हारी सगाई हो गई है ।क्यों बे, अब तू ससुराल जाएगी ।” धत्त !मैं लजाई, फिर हम दोनों खिलखिला कर हंसने लगे।

  ” अच्छा प्यारी ,अपनी सुना ,तुझे कब शादी की हथकड़ियां लग रही हैं?”

   ” देख संजू ,मुझे तो अपनी पसंद के लड़के से शादी करनी है ,जो आंखों से होकर हृदय तक उतर जाए‌। लेकिन, अभी तक कोई शख्स हृदय तक नहीं पहुंचा। जिस दिन वह खुशनसीब मेरे हृदय में अपनी जगह बना लेगा, तो  समझ ले, चट मंगनी पट ब्याह।” कहते हुए नेहा मुझे पकड़कर नाच गई और हम दोनों हंसते हंसते लोटपोट हो गए । फिर हम दोनों इधर-उधर की बात करने लगे कि अचानक नेहा की नजर उन बच्चों की तरफ गई, जो अपने- अपने काम में व्यस्त थे।

   “अरे, यह तो वही बच्चे हैं जिन्हें कल कृष्ण नगर मोहल्ले में देखा था ।”नेहा की आवाज सुन बच्चे हमें ऊपर देखने लगे।




   “हां दीदी, कुछ दिनों से हम वही जा रहे थे कि अचानक कल. ………. ।”

  ” तुम लोग अपना काम करो, मैं इसे बताती हूं ।” ‌नेहा ने बच्चों को बीच में ही रोकते हुए कहा । हम दोनों नीचे कमरे में आ गए और बच्चे पूराने कूड़े में खो गए थे।

  ” चल बता, क्या हुआ?” मैं उतावली हो नेहा से पूछने लगी ।

  ” अच्छा बाबा ,बता रही हूं, इतनी उतावली क्यों होने लगी ? “हुआ यूं, कि कल मैं कृष्ण नगर मोहल्ले में वर्मा अंकल के यहां गई थी। बालकनी में बैठ हम सभी चाय पी रहे थे ।अचानक, कुछ नारे सुनाई पड़े ।हम लोग खड़े हो बालकनी से नीचे देखने लगे ।देखा ,मकान के ठीक सामने जहां कूड़े -करकट का ढेर है, एक बैनर तले कुछ लोग खड़े हो, नगरपालिका के विरुद्ध नारे लगा रहे हैं । बैनर पर बड़े बड़े अक्षरों में लिखा था-

“नगरपालिका सामने आओ, कूड़े- करकट दूर हटाओ ।”

   ” चेयरमैन करो केयर ,केयर नहीं तो छोड़ो चेयर ।”

   ” नगर पालिका मुर्दाबाद !मुर्दाबाद !! मुर्दाबाद!!!”

  फिर क्या था, थोड़ी देर में धीरे-धीरे शहर के प्रबुद्ध सामाजिक कार्यकर्ता भी आ गए एवं नारों को और बुलंद करने लगे।




देखते-देखते काफी भीड़ इकट्ठी हो गई । लगभग 2 घंटे बाद नगर पालिका की गाड़ी आई और उन कूड़ो को ले गई, और ये बच्चे वही निराश प्रश्न सूचक मुद्रा में खड़े थे कि अब कहां जाएं? क्योंकि, यहां से भी इन का रोजगार छिन गया, आशियाना उजड़ गया।

एकाएक उन बच्चों की हंसी सुनकर मेरा ध्यान उनकी तरफ चला गया।  वे हंसते हुए जा रहे थे। शायद, वह अपनी नियति के क्रूर मजाक पर का कहकहे लगा रहे हों।

  मेरी आंखें सजल हो गईं।” तो क्या नेहा यह अपनी अस्थाई रोजगार के लिए यूं ही भटकते रहेंगे और हर जगह इनकी रोजगार छीनते जाएंगे ? क्या इनकी जिंदगी एक कूड़े के ढेर से दूसरे कूड़े के ढेर तक ही सीमित है ?और कूड़ा – स्थल तलाशते तलाशते इनकी जिंदगी यूं ही गुजर जाएगी?”

  “हां रे संजू, शायद इन्हें स्थाई आशियाना मयस्सर न होगी। सच रे, कूड़े पर ही यह कल्पनाएं करते हैं, सपने संजोते हैं और प्रायः इनके सपने समय के प्रवाह में टूट जाते हैं ,मिट्टी के घरोंदे की तरह। इनके जिंदगी के ड्रामे एक कूड़ा- स्थल से दूसरे तक ही खेले जाते हैं । सचमुच, ये कूड़े की तरह ही हैं, जो समय की गति के कारण मलबे में बदल जाता है और जिसका अपना कोई अस्तित्व नहीं होता।” कहते हुए नेहा मायूस हो गई। कुछ पल तक हम यूं ही खामोश बैठे रहे । तभी मेरी छोटी बहन ने चाय के लिए बरामदे में पुकारा। चाय पीकर नेहा चली गई। बहुत देर तक मैं उन बच्चों के ख्यालों में ही डूबी रही।

  नेहा मेरे बचपन की दोस्त है जो मैट्रिक पास करने के बाद कॉलेज की पढ़ाई रांची में कर रही है ,छुट्टियों में यहां आई थी।

  मेरे मकान से सटे कुछ खाली जमीन पड़ी है, जहां मोहल्ले भर का कूड़ा रोज ही फेंका जाता है ।यह मोहल्ला बहुत बड़ा है। कूड़े के ढेर पर छोटे-छोटे बच्चे अपनी रोटी तलाशते हैं ।इन्हीं कूड़ों से मिले खाली टीन के डब्बे ,बोतलों ,लोहे के टुकड़ों आदि को बीन कर कबाड़ी वाले के यहां बेचते हैं, जिससे इन्हें रोज अपने पेट भरने लायक पैसे मिल जाया करते हैं। इनके परिवार का प्रत्येक व्यक्ति अपनी कमाई से ही पेट भरता है ।वही बच्चे दूसरे पर आश्रित हैं जो ठीक से चलाना न सीखें हों।




   मैं कभी – कभार छत से उन बच्चों की बातें सुन लिया करती थी। एक दिन उनमें से एक बच्चा कह रहा था

” जानते हो , आज जब मैंने बापू से स्कूल जाने के लिए कहा, तो बापू ने मुझे बहुत पीटा  ।कहा, स्कूल जाएगा !खबरदार आज के बाद कभी स्कूल का नाम लिया तो, खाल उधेड़ कर रख दूंगा। समझे! स्कूल जाने से पेट भर जाएगा क्या? बोल! पढ़ने के लिए पैसे चाहिए, मैं तुम्हें कहां से पढ़ाऊंगा रे! यहां तो खाने के लाले पड़े हैं और कहता है स्कूल जाऊंगा । जा भाग यहां से जल्दी ।” मैं सीधे यही चला आया। बहुत पीटा है बापू ने। दर्द हो रहा है रे , अब कभी नहीं कहूंगा कि स्कूल जाऊंगा। कहते -कहते वह बच्चा सुबकने लगा।

  “जाने दे रे , मेरे भी बापू नहीं जाने देते स्कूल। ” भीखु ने उसे तसल्ली दी और चुप कराया। कुछ देर तक सभी वहीं कूड़े के ढेर पर मौन बैठे रहे ,खामोशी बनी रही। उस खामोशी को तोड़ते हुए एक नन्हे बच्चे दीनु ने कहा

  “मेरे बापू तो मुझे पढ़ाना चाहते थे। कहते थे मैं मजदूरी से पैसा इकट्ठा करके तुम्हें पढ़ाऊंगा ।बड़ा आदमी बनाऊंगा। तब मैं बहुत छोटा था, थोड़ा-थोड़ा याद आता है। लेकिन भगवान को मुझे कूड़े में ही देखना पसंद है, तभी तो एक दिन अपनी ख्वाहिश लिए बापू एक ट्रक के नीचे आ गए थे।” कहते कहते उसकी आंखों से टप- टप आंसू गिरने लगे । मेरी भी आंखें नम हो गईं थीं। वह स्वयं आंसू पोंछते हुए उठ खड़ा हुआ ।सभी शांत मुद्रा में थे और वह छोटी बच्ची चेहरे पर झुकी लट को हटाते हुए रूआंसे स्वर में बोली-” भैया चल ना भूख लगी है।”




”  हां कमली चलता हूं” कहते हुए वह उठा । सभी बच्चे भी कबाड़ी वाले के पास अपने चुने हुए सामानों को ले चल पड़े थे।   दीनू , अपनी मां और बहन कमली के साथ शहर से दूर झोंपड़पट्टी में रहता था। जब उसके बापू थे तब उसकी मां एक चाय की दुकान में ग्लास साफ करती थी। बापू और मां की कमाई से उन्हें खाने-पीने की दिक्कत नहीं होती थी। उस समय दीनू यही कोई 7- 8 साल का और कमली लगभग 4 साल की थी । पेट की आग ने नन्हें दीनू और कमली को कूड़ा  -स्थल ला फेंका । कमली नन्हें नन्हें हाथों से दीनू का हाथ बॅटाती। कूड़ा -स्थल  से प्राप्त डब्बों, बोतलों आदि को बेचने से जो पैसे मिलते उससे इनकी जिंदगी की गाड़ी आहिस्ता- आहिस्ता खींच रही थी।

  इसी तरह दिन बीतते गए। लगभग रोज ही वे सभी आते और कूड़े से सामान को चुन कबाड़ी वाले के यहां बेच आते। कभी-कभी वे यहां नहीं आते, दूसरे कूड़ा स्थल पर जाते ‌।क्योंकि मोहल्ले वाले रोज ही यहां कूड़ा फेंकते इसलिए इनकी जरूरतें यहीं से पूरी हो जाती। अभी यहां से इनका आशियाना नहीं उजड़ा था। यहां चार ही लड़के भीखू , दीनू , हरिया और सरला आते , साथ में कमली भी रहती।

   वैसे ही थे यह बच्चे जैसे बिन पानी के सूखते मासूम पौधे , जिन्हें यदि ठीक से सींचा जाए तो इनमें हरियाली आ जाए और खुशनुमा फूल भी देने लग जाए।

सब जानते हुए भी एक दिन मैंने उन सबों से कहा -“तुम लोग स्कूल क्यों नहीं जाते ?” तो सबने तपाक से कहा “ना बाबा ना, हमें स्कूल नहीं जाना।” फिर एक ने कहा – “स्कूल जाऊंगा तो कमाऊं कैसे? और कमाऊं नहीं तो खाऊंगा क्या?”




” जानती हो दीदी ,बापू कहते हैं -स्कूल जाने से हमारा पेट नहीं भरेगा, तो फिर क्यों जाएं स्कूल?” एक बच्चे ने कहा ।

” यदि मैं तुम्हें कभी -कभी पढ़ा दूं तो?” ” “नहीं दीदी हमें नहीं पढ़ना । बाप रे! बापू सुनेंगे तो हमारी खाल उधेड़ देंगे”- तीसरे बच्चे ने भयभीत हो कहा।

  पर दीनू कुछ नहीं बोला था ।मेरे जिज्ञासु मन ने उसके अंतर्मन के भाव को जानना चाहा ,इसलिए पूछ ही दिया-” दीनू तुम कुछ नहीं बोले ?

“क्या कहूं दीदी, पढ़ने की तो बहुत इच्छा है मेरी ,लेकिन ……..। आगे वह बोल नहीं पाया था ।मेरे दुबारा  पूछने पर रूआंसे  स्वर में कहा था -“अभी नहीं पढ़ पाऊंगा दीदी  ।”

क्यों ?

“वो, … वो क्या है दीदी, यह इसलिए कि मेरी मां आजकल बहुत बीमार है । यहां से जाकर मैं ही खाना बनाता हूं और उसे दवा भी देता हूं। मां स्वस्थ हो जाएगी तो तुम मुझे जरूर पढ़ाना दीदी, कहते हुए उसकी आंखों में चमक आ गई थी ।फिर कुछ देर रुक कर उत्सुक हो वह पूछ बैठा,”दीदी स्कूल जाना, पढ़ना बहुत अच्छा लगता है ना ?नए-नए कपड़े पहनना, जूते- मोजे, पीठ पर लगी किताबों की झोली बहुत अच्छा लगता है ।” फिर कुछ सोचते हुए- और वह क्या है दीदी,  जिसे गर्दन में बांध लेते हैं?”

” उसे टाई कहते हैं दीनू” मैंने कहा।

  “वहां मास्टर जी होते हैं, बहुत सारे लड़के होते हैं, बहुत मजा आता होगा स्कूल में! है ना दीदी?”

“हां।” मैं इतना ही बोल पाई थी, और वह एकदम मायूस हो गया था।




  वह जाड़े की दोपहर थी। छत पर रेलिंग के पास स्वेटर बुनते हुए उनकी बात सुनने के लिए आ खडी थी। वे अपने काम में व्यस्त थे ।कभी- कभी बोतलों, डब्बों के लिए एक दूसरे से छीना – झपटी भी कर लेते थे । मेरी आंखें बड़े चाव से उनकी अंग- प्रत्यंग का निरीक्षण कर रही थीं। वे ठंड से ठीठुरे हुए थे। कभी – कभी ठंड से उनके कंधे उचक जाते थे। उनके मैले- कुचैले,

फटे कपड़े, जो शरीर को ठीक से ढंक भी न पाते थे ,अपने दीनता की गाथा स्वयं कह रहे थे ।एक बच्चा अपने सरकते पजामे को  एक हाथ से पकड़े हुए अपने काम में मशगूल था।उनमें से एक के बनियान का फीता टूट गया था, जिसे गांठ देकर सहारा दिया गया था।  बटन का स्थान गांठों  ने ले रखी थी। भले ही कमीज के कंधे का स्थान बाजूओं ने और कमर का स्थान घुटनों ने ले रखा हो, फिर भी उन्होंने कपड़े की मर्यादा को भंग किए वगैर  यथास्थान ही पहन रखा था।

उनके पैरों की एड़ियां, ऐसी दिख रही थीं, जैसे पानी के अकाल में धरती में पड़ी दरारें हैं, और बाल ,यदि कहूं कि चिड़ियों का पुराना घोसला तो यह अतिशयोक्ति ना होगी ।एक बच्चे का बाल आकाश की ओर मुंह बाये वैसे ही खड़े थे जैसे कि पानी के लिए ईश्वर से गुहार करते खेतों के सूखे पौधे ।अनिर्वचनीय गरीबी थी उनकी।

  अभी मेरी आंखें निरीक्षण कर ही रही थीं कि एक बच्चे ने चिल्लाकर कहा – ” अहा! आज मेरा भाग्य बहुत अच्छा है । मुझे लोहे का एक बहुत बड़ा टुकड़ा मिला । इससे तो आज बहुत पैसे मिलेंगे ,मजा आ गया। पकौड़ियां खाऊंगा और सिनेमा भी देखूंगा। मेरे हीरो अमिताभ की फिल्म लगी है। तुम लोग भी चलोगे?”




  मैं उनकी बातों से अवाक् रह गई। वाह रे इनका भाग्य ! तो क्या इन कूडों में ही ये अपना भाग्य तलाशते  हैं?

  दीनू  को छोड़ सबों ने सिनेमा देखने का प्रोग्राम बना लिया। दीनू उन सब से अलग कमली का हाथ थामें चल पड़ा था। मैं उन्हें देखती रही जब तक कि वे मेरी आंखों से ओझल ना हो गए।

  अगले दिन वह कुछ देर से आए और मैं पहले ही उन सबके आने का इंतजार कर रही थी, उनकी बातें सुनने के लिए। सभी बच्चे साथ ही आते थे ।

उस दिन दीनू कुछ ज्यादा ही उदास दिख रहा था। मुझसे रहा ना गया और मैंने उसे टोक ही दिया -“क्या बात है दीनू आज ज्यादा उदास दिख रहे हो?” वह फफक कर रो पड़ा। मैं दौड़ती हुई नीचे आ गई। मेरे पूछने पर वह रूधें गले से बोला- ” दीदी, मां खांसी से परेशान है, मेरे पास उतने पैसे नहीं हो पाते जिससे उसके लिए दवा  ले सकुं ।”मेरी आंखें सजल हो गईं  थीं । मैं अंदर गई और डिब्बे में जमा किए हुए पैसा ला उसे देना चाहा ।पर वह पैर से कूड़े को हटाते हुए कह पड़ा -“नहीं लूंगा दीदी । मां कहेगी चोरी करके पैसे लाया हूं।”  मेरे बहुत समझाने और आग्रह करने पर उसने पैसे लिए थे और अपने इकट्ठा किए हुए बोतल ,डिब्बों आदि को थैले में ले कबाड़ी वाले के यहां चल दिया था। मैं अंदर आ कर बिस्तर पर पड़ गई और उसी के ख्यालों में डूबी थी कि ना जाने कब आंखें लग गईं।

  उस समय मेरी आंख खुली जब सामने सड़क पर कुछ शोर गुल सुनाई पड़ा -“मारो साले को, कमीना है। देख कर नहीं चलता, फोड़ दो आंखें साले की।” लोग उसे गालियां दे रहे थे और पीटते जा रहे थे। वह गिड़गिड़ा रहा था -“अब मत मारो मुझे, छोड़ दो ।” इच्छा भर पीटने के बाद  लोग कहने लगे,” अब छोड़ दो साले को संभल जाएगा।”




  उस गिड़गिड़ाती हुई  आवाज को सुनकर मैं दौड़ी -दौड़ी बाहर आई। देखा, मिस्टर शर्मा की साइकिल गिरी है और उनके सफेद कुर्ते पर लाल रंग का कुछ लगा हुआ है ,और एक लड़का टूटे हुए शीशे का बोतल लिए चला जा रहा है। मारने वाले लोग भी जा रहे हैं। मैंने उसे पीछे से पहचान लिया था। अरे, यह तो दीनू है। मैंने उसे पुकारा भी लेकिन वह दूर जा चुका था। पता चला , दीनू दवाई की बोतल लिए दौड़ता हुआ जा रहा था कि मिस्टर शर्मा की साइकिल से टकरा गया। मिस्टर शर्मा और वह दोनों गिर पड़े। बोतल का ऊपरी हिस्सा फूट गया और दवा मिस्टर शर्मा के कुर्ते में लग गई थी ,और तब  शुरू हो गई थी उसकी पिटाई।

  “ओह!  यह क्या कर दिया  इन लोगों ने”- मैं तड़प उठी ।जरूर वह अपनी मां के लिए दवा ले जा रहा होगा, उस की मां बीमार थी ना। मैं उसके पास जाने के लिए छटपटाने लगी । पर मैं विवश थी, जाती कैसे? मैंने कभी उसके घर का पता पूछा ही नहीं था।

       उस रात मेरी आंखों में नींद नहीं थी। मैं जल्दी सुबह होने का इंतजार करने लगी थी ।सुबह हुई ,नियमानुसार सारे बच्चे आए पर दीनू नहीं आया था । मेरे पूछने पर बच्चों ने बताया-” कल शाम वह इधर दवा लेने गया था और उधर उसकी मां ने खांसते-खांसते दम तोड़ दिया ।” गांव वाले उसकी मां का दाह – संस्कार कर दिए । बच्चे फिर चुप हो गए।

”  दीनू और कमली कहां है?”- मैंने जल्दी से पूछा । बच्चे उदास हो गए।” बताते क्यों नहीं ?”मैंने दुबारा पूछा  ।आंखों में झिलमिलाते आंसू लिए एक बच्चे ने कहा-”  दीदी सुबह होने से पहले दीनू, कमली को ले कर ना जाने कहां चला गया।” मैं रो पड़ी थी  ।




   “ओह!आखिर कहां गया होगा वह?”

  ” दूसरे कूड़े – स्थल पर ही गया होगा दीदी” बच्चों ने कहा ।  मैं मन प्राण से कांप उठी थी। वह शहर छोड़कर जा चुका था। आज यह कूड़ा- स्थल मेरे लिए दीनू और कमली का स्मृति -चिन्ह बनकर रह गया है । जब भी इसकी ओर देखती हूं, दो मासूम बच्चों के अदृश्य प्रतिबिंब उभरकर सामने आ जाते हैं । राह चलते हुए हर कूड़े के ढेर की ओर मेरा ध्यान बरबस खींच जाता है। कहीं दीनू और कमली मिल जाएं। पर नहीं मिलते ।पता नहीं मिलेंगे भी या नहीं। मिलेंगे भी कैसे? स्थाई रोजगार नहीं,….. स्थाई आशियाना नहीं…….। शायद कभी नहीं …………..।

  5वां_जन्मोत्सव 

स्वरचित, अप्रकाशित

संगीता श्रीवास्तव

लखनऊ।

1 thought on “शायद कभी नहीं – संगीता श्रीवास्तव”

  1. बहुत मार्मिक एवम भावुक प्रस्तुति।शहरी गरीबी एवम गरीब बच्चों की दयनीय स्थिति काअनूठा विवरण मन कोअन्दर तक आहत कर देता है। सरकार को समाज के हर वर्ग का विस्तृत सर्वे करा कर बच्चो की शिक्षा एवम विकास पर विशेषध्यान देने की जरूरत है। कहानी ,कहानी नहीं हकीकत है।प्रस्तुति के लिये धन्यवाद।

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