सावित्री हो तुम – शुभ्रा बैनर्जी : Moral Stories in Hindi

प्रीति ने दादी से पूछा था विवेक के रायपुर जाने के बाद”दादी,आपको क्या लगता है,पापा ठीक हो जाएंगे ना?”प्रीति की दादी जी के निजी जीवन के अनुभव और कुछ उम्र का तजुर्बा था

कि ,कई मामलों में उनकी सलाह रामबाण का काम करती थी।गाय को देखकर बता देतीं थीं कि कितना दूध देती होगी,नाभि देखकर बता देतीं थीं कि बेटा है या बेटी।मोहल्ले में पूजा-पाठ से संबंधित किसी भी विषय पर महिलाएं उनसे सलाह लेतीं थीं।

प्रीति अक्सर सुरभि से पूछती”मम्मी,दादी को कोई जादू आता है क्या?”तब सुरभि कहती,”नहीं रे,ये उनका निजी ज्ञान और अनुभव है।

आज प्रीति ने भी अपनी दादी से पिता के बारे में पूछकर जिज्ञासा शांत करनी चाही।

बेटा अपने पापा को लेकर दूसरे शहर जा रहा था डॉक्टर दिखाने। एम्बुलेंस में भाई के साथ जाते हुए अपने पिता को बहुत लाचार पाया था प्रीति ने।तभी सहसा दादी से पूछा बैठी।दादी अपनी नातिन की मनोदशा समझ सकती थी।प्रीति को सीने से लगाकर उसकी पीठ पर हांथ फेरते हुए कहा उन्होंने

“तेरी मां साक्षात सावित्री हैं।इतने सालों से दौड़ -धूप कर रही है तेरे पापा के लिए।कुछ नहीं होगा तेरै पापा को।देखना बहुत जल्दी आ जाएगा वापस हम सभी के पास।तेरी मां अभागन नहीं है,देखना सुहागन ही जाएगी इस दुनिया से।”

प्रीति कुछ देर बाद समझी दादी के बोलने का अर्थ।उसे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा।पापा की बीमारी से पहले ही दुखी थी,अब अपनी मां के बारे में यह सुनकर झट से बोली”दादी,आप मम्मी को आशीर्वाद दे रहीं हैं या उनकी मौत की कामना कर रहीं हैं।

मम्मी क्यों पापा से पहले जाएंगी दुनिया से?उनके बिना पापा क्या जी पाएंगे?मुझे दोनों को साथ में स्वस्थ देखना है।क्या पत्नी का पति पहले चल बसे ,तो वह अभागन हो जाती है।ये कहां लिखा है?”प्रीति सुरभि को पकड़कर रोने लगी थी।दादी भी अनायास ही अपने कहे का अभिप्राय समझकर पछता रहीं थीं।

सुरभि ने प्रीति को समझाया”तू तो समझदार बच्ची है।तू कब से इस अभागन और सुहागन के चक्कर में पड़ गई।अरे दादी की उम्र हो गई,और उन्हें भी तो इकलौते बेटे की बीमारी का शोक है।ऐसे ही कह दिया उन्होंने।तू मन छोटा मत कर।”

सुरभि ने प्रीति को तो समझा दिया था,पर वह जानती थी।बेटी को बीमारी,दवाइयों और परिणाम के बारे में अच्छी जानकारी थी।मेडिकल की कोचिंग की थी उसने एक साल।किसी भी मंतव्य पर पहुंचने से पहले वह अच्छी तरह रिसर्च करके ही बोलती थी।

पापा की गिरती तबीयत का परिणाम शायद मालूम था उसे।बड़े भाई से समय-समय पर पापा की जानकारी लेती थी वह।लगभग बीस दिन वैंटीलेटर पर लड़ने के बावजूद ज़िंदगी से हार गए प्रीति के पापा।भाई ने खबर भी पहले उसी को दी।रात एक बजे रहे थे

तो बेटे ने कहा कि अभी मम्मी को बताने की जरूरत नहीं,सुबह बता देना।वह तो मां की हिम्मत बढ़ाना जानती थी।रात को ही सोते से उठाकर धीरे से कहा उसने “मम्मी,पापा अब नहीं‌ रहे।बहुत कोशिश की उन्होंने,पर हार गए।आपको सुहागन के रूप में देखकर गएं हैं,

तो उनके मन में‌ भी तसल्ली होगी।आप जोर-जोर से मत रोना।दादी अगर सदमें में आ गई, तो मुश्किल हो जाएगी।हम दोनों क्या करेंगे अकेले?”सुरभि जानती थी कि यह होना ही था,प्रीति और बेटा भी जानते थे। डॉक्टर ने बताया हुआ था,

कि मल्टीपल आरगैन डैमेज्ड होगा धीरे-धीरे।सच जानना और सच झेलना दोनों अलग है बहुत।बड़ी हिम्मत करके प्रीति ने ही रिश्तेदारों को खबर की।अगले दिन बेटा पापा का पार्थिव शरीर साथ लेकर ही आया।घर में बहुत भीड़ थी

आज सुबह।आंगन‌ में पैर रखने की भी जगह नहीं थी।सभी परिचित आए हुए थें।अंतिम विदाई के समय प्रीति सुरभि का हांथ पकड़ कर ही खड़ी रही।अपने आंसुओं पर काबू पाते हुए सुरभि को भी हिम्मत बंधा रही थी”मम्मी,पापा को बहुत तकलीफ़ थी ना,

आपने तो देखा है।मुक्ति पा गए अपने कष्टों से।आप रोकर उन्हें दुख मत दीजिएगा।बहादुर हैं ना आप,पापा‌ बोलते थे हमेशा।हम अपनी बहादुर मां के बहादुर बच्चें हैं।” बिल्कुल मत रोना। कहते-कहते वह खुद भी रो रही थी।

दाह संस्कार हो जाने के बाद ही सुहागनों को नहलाया जाता है।वहां‌ से किसी रिश्तेदार ने खबर दी,कि अब नहा सकते हैं।इधर प्रीति बाथरूम में हल्के गुलाबी रंग का सूट रखकर आई

और सुरभि का हांथ पकड़ कर बोली”मम्मी,एकदम सफ़ेद कपड़ा मत पहनना,दादा मना किया है।और हां‌ अपना सिंदूर और बिंदी खुद ही पोंछना ना,किसी और को करने की जरूरत नहीं।तुम तो पापा की सदा सुहागन बीवी थी,हो और रहोगी।”

सुरभि जानती थी कि सुहाग की निशानी (लाल चूड़ी,शंख के सफेद कपड़े,माथे पर बड़ी वाली लाल बिंदी और मांग में लगा मोटा सिंदूर उसे खुद ही निकालना होगा।

कोई विधवा रिश्तेदार तो थी नहीं।सुहागनें ये काम करेंगी नहीं।अस्सी साल की विधवा सास , जिन्होंने खुद इकलौते बेटे को खोया है अभी,उनसे तो यह काम नहीं होगा ना।दस मिनट में सपाट माथा और खाली हांथ देखकर सुरभि ने खुद को अभागन ही मान लिया।

तेरहवीं के दिन बड़े बुजुर्गों के पैर में तेल हल्दी लगाने की रस्म पूरी हो चुकी थी।उसी दिन वट सावित्री का व्रत भी था।

सुरभि के घर के पीछे ही बड़ा सा वट वृक्ष था ।सालों से मोहल्ले की औरतें आकर यहीं पूजा करती थीं।सुरभि यह व्रत करती तो नहीं थी,पर साथ में बैठकर कथा जरूर सुन लेती थी।चूड़ी ,सिंदूर,प्रसाद उसे ज्यादा ही मिलता था हमेशा।

आज तेरहवीं वाले दिन दरवाजा नहीं खोल पा रही थी सुरभि पीछे का।जानती थी वह हम कितना भी बोल लें,पर विधवा को दायरे में ही रहना पड़ता है।रस्म -रिवाज मानना ही संस्कार है हमारा।अंदर से बार-बार बाहर देख रही थी सुरभि।

“बहू,ओ बहू!अचानक से सास के बुलाने पर गई उसने पास तो उन्होंने सबके सामने शायद कुछ घोषणा करते हुए कहा”मैं आज से अपनी बहू को बिंदी लगाने का अधिकार देती हूं।बच्चे अगर अपनी मां को देखकर दुखी रहेंगे,तो उस परिवार का कभी कल्याण नहीं होगा।

मेरी बहू कभी सफेद साड़ी नहीं पहनेगी।हर धार्मिक अनुष्ठान में या अपने बच्चों के शादी ब्याह में,वह स्वेच्छा से अपने शौक पूरे कर सकती है।मेरे बेटे को जितना भी जीवन मिला,यह सुरभि के कारण ही है।और कोई होता तो हिम्मत हार जाता,

पर मेरी सावित्री बार-बार मेरे बेटे को यमराज के पास से लौटा लाई थी।मेरे लिए मेरी सुरभि मेरी सावित्री है,सदा सुहागन है यह अभागन नहीं।

शुभ्रा बैनर्जी 

#अभागन

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