लीला की शादी में शामिल होने वालों की संख्या पचास के लगभग रही होगी। परमानंद एक सरकारी अधिकारी होते हुए भी किसी तरह से अपने पदाधिकार का दुरुपयोग नहीं किया था। मां वंदना भी एक योग्य और कुशल गृहिणी के साथ साथ एक विद्यालय में अध्यापिका भी थी। वह भी एक उदार और साहसी महिला थी।
विषम परिस्थितियों से मुकाबला करने में माहिर थी। आवश्यकतानुसार किसी की भी मददगार बनने से कोई परहेज नहीं करती। लीला मां के नक्शे कदम पर चलते हुए अपने को अन्य लोगों से अलग थलग कर लिया था किन्तु मन में कोई गुमान नहीं था।
वह इतिहास से एम् ए पास करके नौकरी के लिए विभिन्न परीक्षाओं की तैयारी में लगी हुई थी। उसकी शादी में शामिल होने के लिए जिन अतिथियों का आगमन हुआ था वे सब के सब अखण्ड सौभाग्यवती हो का आशीर्वाद दे रहे थे। स्त्री और पुरुष दोनों ही एक जैसे ही अपने उद्गार व्यक्त करते देखे जाते थे।
बारात दरवाजे पर खड़ी थी। द्वारपूजा हो रही थी। गाजे-बाजे की धुन पर आबालवृद्ध सभी थिरकते नजर आ रहे थे। सबके चेहरे पर मुस्कान थी। पटाखे फोड़े जा रहे थे और फुलझडियांँ भी छोड़ी जा रही थीं। बच्चे खूब खुश थे और इधर उधर दौड़ दौड़ कर देखते थे। परमानंद जी के समधी सियाराम जी एक राजनीतिक व्यक्ति थे। लेकिन परमानंद जी के साथ उन्होंने शादी तय करने के क्रम में कोई भी राजनीति नहीं की थी।
सब कुछ साफ-साफ। बातों में कहीं लाग-लपेट नहीं। लड़का आनंद भी कायदे का था। वह एक अधिवक्ता के रूप में आरा सिविल कोर्ट में प्रैक्टिस करता था। वैसे उसकी ख्वाहिश न्यायिक सेवा में जाने की रही थी। उसकी तैयारी में भी लगा था। यद्यपि शादी की उम्र दोनों की हो गयी थी और दोनों शादी के लिए मानसिक रूप से तैयार थे इसलिए कहीं कोई व्यवधान उत्पन्न नहीं हुआ।
रात भर में शादी विवाह शांति पूर्वक संपन्न हो गया।
सुबह सुबह विदाई की तैयारियां चल रही थीं। पिकअप वैन पर सारा सामान रखा जा रहा था। जिसमें फर्नीचर के साथ साथ खाने वाला सामान भी था। इधर लड़की अपनी मां, बहनों और भाइयों के साथ साथ चाचा और चाची तथा चचेरे भाइयों से भी मिल जुल कर आशीर्वाद प्राप्त कर रही थी। सबने उसे सौभाग्यवती या अखण्ड सौभाग्यवती होने का आशीष दिया।
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लड़की की विदाई का क्षण हृदयविदारक होता है। कितना हूंँ पत्थर दिल इंसान क्यों न हो उस समय उनकी आँखें बिलकुल नम हो जाती हैं। जबकि माता पिता की हालत विचित्र हो जाती है। वे फूट-फूटकर रोते हुए देखे जाते हैं। खैर समय के साथ सब कुछ सामान्य सा हो जाता है किन्तु उदासी तो घर में छा ही जाती है। ऐसा सब के साथ होता है जिस घर में लड़की की विदाई होती है।
लीला अब ससुराल पहुंच गयी है। दरवाजे पर उसकी कार खड़ी है। सास प्रभा हाथों में आरती का थाल लिये आ रही है। साथ में बेटियां और अन्य रिश्तेदारों की महिलाएं भी थीं। गीत गाये जा रहे थे। नई नवेली दुल्हन की आरती उतारी जा रही थी। मंगलगीत से चारों ओर शोभायमान हो रहा था। फिज़ा एकदम खुशनुमा हो गया था। परंपरागत रूप से दौरा में नवदम्पति अपने पैरों को रखते हुए घर में प्रवेश कर रहे थे। वधू प्रवेश के बाद श्री सत्यनारायण व्रतकथा की भी तैयारी हो चुकी थी।
नवदम्पति सहित सबने भगवान की कथा सुनी। बधू को सबसे सौभाग्यवती हो का आशीर्वाद मिला। सबने पूजा अर्चना के बाद आरती लिया तत्पश्चात् प्रसाद वितरण किया गया।
प्रसादोपरांत आस-पास के लोग अपने अपने घरों को चले गये। घरवालों के भोजन पानी की व्यवस्था की जाने लगी। थोड़ी देर बाद सबने भोजन किया और जिन्हें आराम करना था वे आराम करने लगे और जिनको कोई काम निपटाना था उसे पूरा करने लगे।
प्रभा ने आये हुए सगे-संबंधियों से लीला का परिचय करवाया। जो प्रणम्य थे या थी उनके उन्होंने पैर छुए और सौभाग्यवती होने का सर्वदा आशीर्वाद प्राप्त किया। अब एक और रस्म अदायगी करनी थी वह थी रिसेप्शन अर्थात् बहू भोज की। वह तीन दिनों बाद होने वाली थी। एक बार फिर से सभी इस भोजन में शामिल होने आये लेकिन ऐसे नहीं बल्कि बहू के लिए उपहार के साथ। बहू भोज भी बहुत ही शानदार और जानदार रहा।
सबने एक स्वर से बहू और उनके उपलक्ष्य में आयोजित समारोह के अवसर पर परोसे जाने वाले विजीटर्स भोजन की भी खूब सराहना की। सियाराम जी एक राजनीतिक व्यक्ति थे इसलिए अच्छी-खासी भीड़ एकत्र हो गयी थी।
रिसेप्शन मंच पर मौजूद लोगों में सभी करीबी दोस्त और शुभचिंतक रहे थे। सबके साथ फोटो खींचवाया जाता था और सभी अपने अपने उपहारों को दिये जाते थे। अंत में मंच पर दोनों तरफ के लोग ही रह गये थे और वे सब अत्यंत ही प्रसन्न हो रहे थे तथा बहू को अखण्ड सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद दे रहे थे।
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किसी भी बेटी या बहू को अखण्ड सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद देने का अभिप्राय यह है कि उसका सुहाग सदा बना रहे। मतलब उसका पति स्वस्थ और प्रसन्न रहे। उसका पति किसी का पुत्र या फिर दामाद हो सकता है या फिर दोनों का पुत्र हो सकता है।
प्रकारांतर से वह अपने बेटे या अपने दामाद के चिरंजीवी होने की कामना करता है और उनके दीर्घायुष्य होने का भाव द्योतित करता है। कोई भी सास या ससुर अपनी बहू से कितना भी नाराज़ क्यों न हों किंतु वे कभी भी बहू को अखण्ड सौभाग्यवती भव छोड़कर अन्य कुछ कह भी नहीं सकते। क्योंकि उनका सीधा संबंध अपने पुत्र से है। पुत्र के चिरंजीवी होने के कारण ही तो बहू या किसी की बेटी का सौभाग्य अक्षुण्ण रह सकता है।
रिसेप्शन कार्यक्रम संपन्न हुआ। दो चार दिनों में सभी संबंधी चले गये। लेकिन आनंद की दोनों बहनें रीता और गीता अभी तक नहीं गयी थीं । वे यहां अपनी भाभी के साथ कुछ दिनों तक रहेंगी इसके बाद जायेंगी। दोनों भाभी से घुल-मिल गयी थीं और लीला भी अपनी ननदों को बहुत ही प्यार करती और प्रेम पूर्वक उनसे बातें करती। जब ये दोनों भी चली गईं तो घर पहले ही जैसा हो गया। लेकिन नयी बहू के आगमन से पूर्व की अपेक्षा अभी माहौल में बदलाव आ गया है। जैसा सामान्यतः सभी घरों में हुआ करता है।
एक दिन संध्या समय सभी एक साथ बैठकर चाय पी रहे थे।उसी समय सियाराम जी ने अपनी पत्नी प्रभा को संबोधित करते हुए कहा कि “यदि लीला और आनंद कुछ दिनों के लिए सैर-सपाटा करने के लिए जायँ तो कैसा रहेगा?”
तब प्रभा ने कहा –” यह तो आजकल एक फैशन बन गया है। जीवन शैली हो गई है। बिना इसके दाम्पत्य जीवन सुखमय हो ही नहीं सकता। ये जब चाहें तब जा सकते हैं।”
प्रभा जी की बातें सियाराम जी को अच्छी लगीं। उन्होंने उनका धन्यवाद किया। अपने समय में वे भी तो कभी इस दौर से गुजरे हुए थे। माता पिता से उन्हें भी स्वीकृति मिली थी। फिर अपने बेटे बहू के लिए नहीं कहने का कोई सवाल ही कहां?
एक सप्ताह की सुखद अनुभव के साथ यात्रा पूरी कर वापस दोनों आ गये। वे खूब खुश थे। नैनीताल देहरादून के लिए गये हुए थे। सैर-सपाटा हुआ। मौज-मस्ती हुई। आनंद ने कहा “इसका कोई अंत नहीं है। लेकिन समय का अंत तो होता ही है। ये वादियां अत्यंत ही सुंदर और आकर्षक हैं। आवो एक सेल्फी ले लें। देखो आज पांँचवा दिन है। समय से घर लौट जाना चाहिए। ” लीला ने भी” हां कहकर अपनी सहमति प्रदान की।” अतः दोनों समय का ख्याल करते हुए घर लौट गये। आनंद का कचहरी आना जाना होने लगा। लीला अपनी परीक्षा की तैयारियों के बारे में विचार करने लगी।
एक दिन उसके मन में यह बात आई कि क्यों न वह अपने मन की बातें सबसे साझा करे। वैसे शादी तय होने के समय ही सबको मेरे बारे में मालूम है फिर आगे बढ़ने के लिए सलाह मशविरा किया जाना आवश्यक है। रविवार था। कचहरी बंद थी। अवकाश का दिन था। भोजनोपरान्त दोपहर में आराम करने के बाद लगभग पांच बजे चाय के लिए सभी बातें कर ही रहे थे कि परमानन्द जी
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भी आ गये। उन्होंने भी साथ में चाय पी। हाल-चाल होता रहा। लीला ने सबके सामने अपनी मंशा उजागर की। सबने एक स्वर में उसका अनुमोदन किया। परमानंद जी ने कहा लीला की सारी किताबें वहीं हैं। मैं कल ही उन्हें भेजवा दूँगा ।
वह घरेलू कामकाज से फुर्सत के बाद पढ़ने बैठ जाती। अब उसे इस तरह से अपने आप को एक साँचे में ढलते हुए देखकर आनंद भी अपनी तैयारियों के बारे में सोचने लगा। जिसका परिणाम यह हुआ कि पति-पत्नी अब विद्यार्थी के रूप में अपने को ढाल कर पढ़ने लगे। दोनों में प्रतियोगिता होने लगी और वे अधिक से अधिक मिहनत करने लगे। जिसका नतीजा यह हुआ कि आनंद ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट की परीक्षा पास कर गये और लीला स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में पीओ की परीक्षा पास कर गयी।
जब इसकी जानकारी दोनों के माता-पिता और भाई बहनों को तथा दोस्तों को मिली तो सब प्रसन्न हुए।
समय के साथ दोनों ने ज्वाइन किया। संयोगवश दोनों की नियुक्ति एक ही शहर में हो गयी। आराम से समय व्यतीत होने लगा। माता पिता और सास-ससुर
सब के सब आनंदित थे। बार बार मुझे सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद मिलता रहा और मैं लगातार फलती फूलती रही। उनके आशीष का ही फल हुआ कि मैं अब मांँ बनने वाली हूंँ। कुछ ही दिनों बाद लीला ने एक नवजात शिशु को जन्म दिया। जच्चा-बच्चा दोनों ही चिकित्सक के अनुसार स्वस्थ हैं।
बच्चे के पालन पोषण हेतु माता-पिता दोनों को ही अवकाश का प्रावधान है। जिसका लाभ उन्होंने उठाया। बच्चा स्वस्थ था। रंग साफ था।पिता के चेहरे से मिलता जुलता। सुंदर सा पोता पाकर सियाराम जी और प्रभा दोनों ही अतीव प्रसन्न थे। अब तो प्रभा जी को एक खिलौना मिल गया जिससे हमेशा खेलती रहती थी। घर में खुशियां तैर रही थीं। अद्भुत स्वास्थ्यवर्धक माहौल में सबका जीवन फल फूल रहा था।
परमानंद और वंदना जी भी नाना – नानी बनकर फूले नहीं समा रहे थे। अपने नाती को आशीर्वाद देने के लिए वे बिहटा से चलकर आरा आये। दोनों ने नाती को भर नजर देख कर अपने भाग्य की सराहना की और दोनों ने लीला को अखण्ड सौभाग्यवती होने का आशीर्वचन दिया।
वहीं उपस्थित सियाराम और प्रभा ने अपने समधी और समधिन की खूब प्रशंसा की साथ ही उनकी बेटी लीला के लिए बहुत बधाई दी और दोनों ने उसके अखण्ड सौभाग्यवती होने की बार बार कामना की। आशीर्वाद कभी निष्फल नहीं जाता। एक दिन वह फलवती बनता है। जैसा कि लीला के जीवन में देखा जा सकता है।
अयोध्याप्रसाद उपाध्याय, आरा
मौलिक एवं अप्रकाशित।