संस्कार – डाॅ संजु झा

संस्कार  मानव जीवन  का अनमोल धरोहर  है।प्रत्येक माता-पिता बचपन से ही अपने बच्चों में  अच्छे संस्कार के बीज बोते हैं।हाँ!यह अलग बात है कि कुछ बच्चे बड़े होने पर  भी अपने संस्कारों के प्रति सजग रहते हैं और कुछ उन संस्कारों  को विस्मृत कर जाते हैं।

संस्कार  से सम्बन्धित एक कहानी मेरे जेहन में आ रही है,जिसे प्रस्तुत करने का प्रयास कर रही हूँ।

हमारे पड़ोस में एक पांडेय परिवार  रहते थे।उनसे हमारा आत्मीय  सम्बन्ध  था।उनकी पत्नी श्वेता से हमारी हरेक तरह की बातें होती थीं।पांडेय  परिवार  जितने ही संपन्न  थे,उतने ही सभ्य और संस्कारवान।उनके दो बेटे थे -सुमित और सुन्दर। सुमित  देखने में बिल्कुल साधारण  था,

परन्तु पढ़ने में उतना ही होशियार। उसे शिक्षा का महत्त्व पता था,इस कारण  वह अपना ध्यान पढ़ाई-लिखाई में लगाता।सुमित  जब अपनी मोटरसाइकिल  से काॅलेज के लिए  निकलता,तो उसे बस स्टाॅप पर इंतजार करती  रोज  एक खूबसूरत लड़की नजर आती,जिसे देखकर  सुमित के दिल के तार बरबस झनझना उठतें।सुमित  को एहसास था कि यह लड़की आस-पास के इलाके की ही है,परन्तु सुमित  उस लड़की से न तो बात कर पाता ,न ही उससे नाम पूछने की हिम्मत। परन्तु जब-जब सुमित  का उस लड़की से दीदार  होता,उसके दिल में कुछ-कुछ होने लगता था।

एक दिन अचानक ‘जहाँ चाह,वहाँ राह’ वाली कहावत  सुमित के साथ चरितार्थ  हो गई। एक  शादी समारोह  में उस लड़की से सुमित का आमना-सामना हो गया।सुमित  ने मौका न गवाते हुए  उस लड़की से पूछ लिया -“तुम्हारा क्या नाम है?

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उस लड़की ने सकुचाते हुए  कहा-“मोनिका।”

उस लड़की के चेहरे की हया बता रही थी कि उसे भी सुमित  पसन्द  है।मोनिका का दूध-सा गोरा रंग,तीखे नयन-नक्श, छरहरा शरीर किसी को भी एक नजर में आकर्षित कर सकता था।सुमित  तो मोनिका के रुप-सौन्दर्य पर मर मिटा था।मोनिका सुमित के  साथ चाहकर  भी अपनी इच्छा का इजहार  नहीं कर पा रही थी।इसका कारण यह था कि सुमित  जहाँ धनी परिवार  का बेटा था,वही मोनिका के पिता की एक छोटी -सी दुकान थी।माता-पिता और दो बहनें,यही मोनिका का परिवार  था।भले ही उसके माता-पिता के पास ज्यादा धन नहीं था,परन्तु उनकी दोनों बेटियाँ शिक्षित और संस्कारी थीं।अपनी पारिवारिक  पृष्ठभूमि के कारण मोनिका हमेशा सुमित से दूर रहने का प्रयास करती,परन्तु सुमित  के दिल में तो मोनिका बस चुकी थी।वह मोनिका को पाने के लिए  अपनी पढ़ाई  में जी-जान से मेहनत करने  लगा।

सुमित  के परिश्रम का फल उसे जल्द ही मिल गया।उसे अच्छी -सी नौकरी मिल गई। नौकरी मिलते ही सुमित  ने अपने परिवार में खुल्लेआम ऐलान करते हुए कहा-“मैं मोनिका को पसन्द करता हूँ और उसी से शादी करुँगा।”

सुमित  के पिता ने अपनी सहमति जताते हुए कहा-“मेरी नजर में भी मोनिका बहुत  सुन्दर  और संस्कारी लड़की है।मुझे बहू के रुप में वह मंजूर है।”

परन्तु सुमित की माँ श्वेता जी को यह रिश्ता पसन्द  नहीं था,क्योंकि मोनिका का परिवार उनकी बराबरी का नहीं था।उनका विचार  था कि सम्बन्ध  बराबरी वालों के साथ होना चाहिए। मोनिका के परिवार  से रिश्ता जुड़ने से समाज में उनकी क्या हैसियत  रह जाएगी?

परन्तु सुमित अपने प्यार  के लिए अपनी जिद्द पर अड़ा रहा।एक दिन उसने अपनी माँ को प्यार  से मनाते हुए कहा-“माँ!जब हमें दहेज लेना ही नहीं है,तो उनकी आर्थिक स्थिति से हमें क्या लेना-देना?अगर मोनिका से मेरी शादी नहीं हुई, तो मैं आजीवन कुँवारा रह जाऊँगा।”

अब श्वेता जी को बेटे के सामने झुकने के अलावा कोई  चारा नहीं था।सुमित की शादी धूम-धाम से  मोनिका के साथ हो गई। मायके से विदाई के बाद  भरी-भरी आँखों से मोनिका कार में बैठी सड़क के पीछे छूटती हुई  वस्तुओं को देख रही थी।इन वस्तुओं की तरह उसके जीवन का एक अध्याय भी पीछे छूट गया।अब उसकी जिन्दगी के किताब  में एक नया अध्याय  जुड़नेवाला था,जिसे पढ़ना था,लेकिन  पता नहीं वह अध्याय कितना सरल होगा या कठिन!

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मोनिका होशियार  तो थी ही,उसने जल्द  ही ससुराल की रहन-सहन में खुद को ढ़ाल लिया।परिस्थितियों में सामन्जस्य बिठाना और बड़ों की सेवा ही उसकी जिन्दगी का उद्देश्य बन गया।वैसे तो श्वेता जी मोनिका के व्यवहार  से खुश रहतीं,परन्तु कभी-कभार  उनके मन का गुब्बार मोनिका पर फूट ही पड़ता-“मेरे घर में छोटे घरों जैसे रिवाज नहीं हैं।तुम्हारे मायके जैसा मेरे घर में नहीं होता है।”

सास की कटाक्षभरी  बातों को सुनकर  मोनिका उदास हो जाती।उसकी उदासी दूर करते हुए  सुमित कहता-“देखो मोनिका!जब व्यक्ति परिस्थितियों के महासागर में खुद को मथता है,तभी जीवन रुपी अमृत ऊपर आता है।माँ एक दिन तुम्हें जरुर दिल से स्वीकार लेंगी।”

पति की मधुर  सीख में पति प्रेम का अभिमान  मिला होता और वह फिर से अपने कर्तव्य  में जी-जान से जुट जाती।

कुछ समय बाद  श्वेता जी ने अपने दूसरे बेटे सुन्दर की शादी बहुत  बड़े घर में की।सुमित  की शादी के समय उनके जो अरमान  अधूरे रह गए थे,उन्हें इस बार पूरा किया।मोनिका को सुनाते हुए  श्वेता जी लोगों से कहती -” इस बार मैं छोटे-मोटे नहीं,बल्कि बड़े घर की  बहू लाई  हूँ।”

इन सब बातों को सुनकर  मोनिका उदास हो जाती,परन्तु रात में पति का प्यार  भरा आलिंगन  और प्यार  उसे सब भूलने पर मजबूर कर देता।

बड़े घर की बहू नन्दिनी को  न तो घर में पति के अलावे किसी से लगाव था,न ही घर के कामों से कोई  मतलब।अब श्वेता जी को मोनिका की खूबियाँ नजर आने लगीं थीं।एक दिन  अचानक श्वेताजी सीढ़ियों से नीचे गिर गईं,उस समय घर में केवल छोटी बहू नन्दिनी ही थी।नन्दिनी ने फोन कर मोनिका को घर बुला लिया और खुद पार्टी के लिए  निकल गई। मानो मोनिका को बुलाकर उसने अपने कर्त्तव्यों की इति श्री कर ली हो।

मोनिका अकेले ही श्वेताजी को अस्पताल  ले गई। श्वेताजी के दोनों घुटने टूट चुके थे।डाॅ ने श्वेताजी के दोनों घुटनों का आप्रेशन किया।मोनिका ने अपनी सेवा से उनके दर्द पर मरहम लगाया।एक महीने मोनिका ने जी-जान से सेवा कर सास को अपने पैरों पर खड़ा कर दिया।आज श्वेता जी ने अपनी बहू मोनिका को पूर्णरूपेण स्वीकार कर गले लगाते हुए कहा-“आज मेरा भ्रम टूट गया।छोटे या बड़े घर कुछ नहीं होता है,जिन लड़कियों में सेवा और संस्कार  के भाव कूट-कूटकर भरे हुए  हैं,वही अच्छी बहू कहलाने योग्य है।तुम ही मेरी प्यारी बहू हो”

सास की स्नेह भरी बातों से मोनिका खुशी से झूम उठी।

समाप्त। 

लेखिका-डाॅ संजु झा।

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