कड़कती सर्दी में ठिठुरते हुए अचानक मुझे वो दिन याद आ गये, जब बुनाई हर घर का अपना एक निजी व्यवसाय हुआ करता था।व्यवसाय इसलिए क्योंकि गृहिणियाँ ननद-देवरों के साथ-साथ चचेरे-ममेरे भाई-भतीजों और भतीजियों के लिए भी स्वेटर बनाने का अपना पारिवारिक धर्म समझती थीं।मैं छह-सात बरस की रही होगी,जब घर में बुआजी को बुनाई सिखाने का अभियान चलाया जा रहा था।उनके हाथों में बुनाई वाली सलाइयाँ(उन दिनों अल्युमिनियम की बनी होती थी) देखकर बुनाई करने की मेरी भी इच्छा हुई।माँगने पर तो वो साफ़ नकार गई पर मैं भी कम नहीं थी।घर की सफ़ाई करने वाली झाड़ू से दो सींकें निकाल लाई, माँ के दराज से ऊन का एक छोटा गोला भी ले आई और बुआजी के ही पास बैठकर अपनी नन्हीं-नन्हीं अंगुलियों से उल्टे-सीधे फंदे डालने की कोशिश करने लगी।बुआजी की मेहरबानी हुई,उन्होंने दस फंदे डाल दिये जो मेरे लिये बहुत थें और फिर भी बुनाई अभियान शुरु हो गया।सफ़लता मिली तो उपहार-स्वरूप प्लास्टिक वाली दो सलाइयाँ मिलीं जो उस समय ऊन का एक डिब्बा खरीदने पर मुफ़्त मिलती थीं।
हमारी नानी-दादी और माँएँ जिन्हें हम अक्सर कह दिया करते थें कि आप कुछ नहीं जानती, उनकी आँखों में तो गज़ब का कैमरा फिट होता था और उनकी याददाश्त के तो क्या कहने।उनकी मेमोरी इतनी शार्प होती थी कि राह चलते या बाज़ार में किसी का स्वेटर पसंद आया कि नहीं कि डिज़ाइन उनके मस्तिष्क में छप जाता था और दस दिनों अंदर ही हू-ब-हू स्वेटर तैयार।कुछ महिलाएँ तो एक कदम आगे ही होती थीं।दुकान में स्वेटर का डिजाइन पसंद आया,खरीद लिया और दो दिनों में डिजाइन की कॉपी करके ‘स्वेटर का रंग पसंद नहीं आया’ अथवा ‘ छोटा है ‘ कहकर दुकानदार को स्वेटर वापस कर देती।बेचारा दुकानदार …।लेकिन ऐसी सर्दी में जब हम अपने हाथ स्वेटर से बाहर निकालने से भी कतराते थें,तब हमारी माँओं की अंगुलियाँ अपने नौनिहालों के तन को गरम रखने के लिए सलाइयों और ऊन के लच्छों पर चलती थी,उन माँओं को सलाम!
कुछ साल पहले तक तो हमारी काॅलोनी में भी मेरी सहेली, सरिता, गृहशोभा नाम की पत्रिकाओं की बुनाई विशेषांक सर्कुलेट होती थी,साइकिल पर ऊन बेचने वालों की ‘ रंग-बिरंगी ऊन ले लो ‘ की आवाजें गूँजती थी और फिर उसकी साइकिल को घेरकर दस-बीस रुपये कम कराने का एक अलग ही आनंद होता था।धूप सेंकते हुए हमारी अंगुलियाँ भी पोनी की सलाइयों पर चलती थी और रंग-बिरंगे ऊनों से हम भी अपनों के लिए आकर्षक स्वेटर तैयार करते थें।कभी गोल गला तो कभी कॉलर वाला तो कभी गोविन्दा स्टाइल का बैगी स्वेटर।चाय की चुस्की और कॉलोनी की गपशप के बीच उस ठंडी में भी हमारी अंगुलियों में गजब की फ़ुर्ती होती थी।
अब तो स्वेटर का बहुत बड़ा मार्केट ही बन गया है।नयी पीढ़ी भी अब हमारे हाथों की पुरानी बुनावट को रिजेक्ट करने लगीं हैं।कॉम्प्लेक्स और माॅल रंग-बिरंगे डिजाइन वाले स्वेटरों से तो सज गये हैं लेकिन उनमें माँ-दादी के स्नेह की वो गर्माहट नहीं है जो उनके हाथों से बुने हाफ़-फुल बाँह वाले स्वेटर में होती थी।सर्दियों के बुनाई वाले वो दिन अब सपने-से लगते हैं।सर्दी वही है और महिलाएँ भी वही हैं,बस बदल गया है उनके हाथों का औज़ार।पहले थी सलाइयाँ जिन हाथों में,अब है आकर्षक मोबाइल फ़ोन।
—विभा गुप्ता