अंजू की शादी संयुक्त परिवार में हुई थी। परिवार में पति के अलावे सास-ससुर,एक जेठ ,दो देवर और एक ननद थी। ससुराल के और परिवार भी पास में ही रहते थे।सभी का आना-जाना लगा ही रहता था।अंजू के पति की नौकरी भी उसी शहर में थी। आरंभ में इतने बड़े परिवार में एडजस्ट होने में अंजू को दिक्कत होती थी, परन्तु समय के साथ धीरे-धीरे अंजू ससुराल में पूरी तरह घुल-मिल गई। सास-ससुर देवर ननद उसे बहुत प्यार और सम्मान करते थे।उसके जेठ-जेठानी अन्य शहर में रहते थे,
परन्तु पर्व -त्योहार में सभी इकट्ठे होकर धूम-धाम से खुशियाॅं मनाते।समय के साथ अंजू एक बेटा,एक बेटी की माॅं बन गई। ससुरालवालों के सहयोग से इंटर पास अंजू ने एम.ए पास कर लिया। अंजू को पता ही नहीं चला कि संयुक्त परिवार में दोनों बच्चों का लालन-पालन कैसे हो गया ? अंजू की सास सदैव उसकी इच्छाओं का सम्मान कर उसे आगे पढ़ने को प्रेरित करती। बच्चों की पढ़ाई के साथ -साथ अंजू ने भी अपनी आगे की पढ़ाई जारी रखी और उसने पी.एच.डी की भी डिग्री पा ली।
समय की गति अपनी चाल से चल रही थी। पाॅंच वर्ष पूर्व उसके ससुर का निधन हो चुका था।दोनों देवर अपनी गृहस्थी में रम चुके थे। ननद भी शादी कर ससुराल जा चुकी थी।अंजू के बच्चे अब बड़े हो चुके थे। नौकरी के सिलसिले में उसके पति का तबादला अन्य जगहों पर होता रहता था, परन्तु वह बच्चों की पढ़ाई के लिए एक ही जगह पर जमी हुई थी।सास के सहयोग के कारण उसे कभी कोई दिक्कत नहीं हुई।एक दिन अंजू ने अपनी सास से कहा -माॅं जी!मुझे व्याख्याता की नौकरी के लिए दूसरे शहर की नियुक्ति मिली है,क्या करूॅं?”
अंजू की सास ने खुश होते हुए कहा “अरे बहू!ये तो बड़ी अच्छी बात है। बच्चे तो अब समझदार हो गए हैं। तुम दोनों साप्ताहांत आ जाओगे, कोई बात नहीं है! मैं सॅंभाल लूॅंगी। आस-पास परिवार के लोगों का भी सहयोग है ही।”
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सास की बातों से अंजू के मन पर पड़ा बोझ उतर चुका था।उसे संयुक्त परिवार में रहने की खुशी का एहसास हुआ।उसके पति ने भी कहा था -अंजू! अब बच्चे बड़े हो गए हैं।अपनी पढ़ाई का सदुपयोग करने का सही वक्त आ गया है। नौकरी ज्वाइन कर लो।”
पति और सास की बातों से अंजू काफी खुश थी। पारिवारिक जिम्मेदारियों की आपा-धापी में समय कैसे निकल गया,उसे कुछ पता ही नहीं चला। शायद संयुक्त परिवार के सहयोग से ही सभी चीजें आसानी से होती चली गईं!शादी के दस वर्ष बाद उसे अपने अस्तित्व का बोध हो रहा था।दस दिन बाद उसे नौकरी ज्वाइन करने दूसरे शहर जाना था।उसकी तैयारियों में उसके साथ-साथ उसकी सास भी व्यस्त थीं, परन्तु काल के कुचक्र को भला कौन समझ पाया है? अचानक उसकी सास की हृदयाघात से मौत हो गई।
अब अंजू के लिए कठिन घड़ी उपस्थित हो गई।बेटी दसवीं में और बेटा आठवीं में था।अब उसके सामने पहले बच्चों का भविष्य सॅंवारने का प्रश्न आ खड़ा हुआ।पति की नौकरी ऐसी थी कि वे कुछ खास मदद नहीं कर सकते थे।उसके मन में खुद और बच्चों के भविष्य को लेकर कशमकश जारी था। आखिरकार उसने काफी सोच-विचारकर निर्णय ले लिया।उम्र के इस नाजुक दौर में अंजू ने बच्चों के साथ रहना ही बेहतर समझा और उसने नौकरी करने के ख्वाब को मन से हटा दिया।
बच्चों की परवरिश में अंजू का समय तीव्र गति से बीत रहा था।समय के साथ उसके बच्चे नौकरी करने लगें।पति का भी स्थानान्तरण अपने शहर में हो गया।पति और बच्चों के दफ्तर चले जाने के बाद अंजू को खालीपन का एहसास होने लगा।वह कुछ मायूस रहने लगी।उसे उदास देखकर उसके बेटे ने कहा “मम्मी!आप खाली समय में पढ़ती तो हो ही, पत्रिकाओं के लिए कहानी, कविता लिखा करो।”
अंजू -“बेटा! अब मेरी कहानी कौन-सी पत्रिका छापेगी?
बेटी ने तपाक से कहा -“मम्मी !आपने ही सिखाया है कि कोशिश करनेवालों की हार नहीं होती,तो एक बार आप भी कोशिश कर देख लो।”
धीरे-धीरे अंजू ने लिखना शुरू कर दिया। कविता, कहानी लिखकर अपने शौक पूरे करने लगी।एक दिन उसकी बेटी ने कहा -” मम्मी!आप अपनी रचनाऍं किसी पत्रिका में क्यों नहीं भेजतीं हैं?”
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अंजू -” अरे पत्रिकावालों के ढेरों नखरे हैं।मेरी रचनाऍं कौन पढ़ेगा?”
बेटे ने मजाक करते हुए कहा -मम्मी!आप ही हमें समझातीं रहतीं हैं कि असफलता से निराश नहीं होना चाहिए!कल मुझे अपनी रचनाऍं दे दीजिएगा, मैं पोस्ट कर दूॅंगा।”
उस समय सोशल मीडिया इतना सक्रिय नहीं था।अपनी रचनाऍं पत्रिका में भेजने के सिवा कोई अन्य विकल्प नहीं था।अगले दिन धड़कते दिल से अंजू ने अपनी कहानी पोस्ट करने के लिए बेटे को दे दिया। अंजू खुद के लिए साहित्यिक और कहानी की पत्रिका मॅंगवाती थी।घर में अंजू के सिवा हिन्दी पत्रिका पढ़ने में किसी को रूचि नहीं थी।पति को अपने काम से फुर्सत नहीं थी।
दोनों बच्चे अंग्रेजी माध्यम से पढ़ रहे थे,तो हिंदी पढ़ने में उनकी रुचि न के बराबर थी।अंजू पत्रिका पढ़ने के बाद अपनी देवरानी और पड़ोसियों को पढ़ने के लिए दे देती थी।अंजू को याद है कि जब उसके घर में धर्मयुग तथा सारिका पत्रिका आती थी ,तो उसके सभी भाई -बहन पहले पढ़ने के लिए कैसे लड़ा करते थे!यहाॅं तो पत्रिका उसके इंतजार में उपेक्षित पड़ी रहती है।
अंजू ने जब से पत्रिका में अपनी कहानी भेजी है,तब से बेसब्री से उसे पत्रिका के नए अंक का इंतजार रहता था।दोपहर में आराम करने के समय अंजू पत्रिका उलट-पुलटकर अपनी कहानी खोजने लगी।अपनी कहानी प्रकाशित न देखकर अंजू सोचने लगी -” इतने दिनों से कहानियाॅं पत्रिका में भेज रही हूॅं, परन्तु आजतक कोई नहीं छपी है।हाॅं!एक-दो लेख अवश्य छपे हैं!”
पति और बच्चों के प्रोत्साहन से अंजू अपनी कहानियाॅं साहित्यिक पत्रिकाओं में भेजती रहती थी, परन्तु उनमें अपनी कहानी खोजने का उसका उत्साह ठंडा हो चुका था।
आज अंजू अनमने भाव से घर आई पत्रिका को पढ़ने लगी, अचानक से अपनी कहानी प्रकाशित देखकर खुशी से उछल पड़ी।अपनी कहानी को पहली बार किसी प्रतिष्ठित पत्रिका में देखना उसके लिए एक सुखद एहसास था।उस समय खुशी से उसकी स्थिति गूॅंगे को गुड़ खिलाकर स्वाद पूछने जैसी स्थिति हो गई थी।
ऐसा नहीं था कि पत्रिका के संपादक उसे कुछ खास पैसे देनेवाले थे, परन्तु अपनी कहानी को किसी पत्रिका में देखना उसके लिए आत्मसंतुष्टि थी।उस समय खुशी से उसके पाॅंव जमीं पर नहीं पड़ रहे थे।उसने सबसे पहले अपनी खुशी का इजहार फोन पर पति से किया।पति ने बड़े ही ठंढ़े स्वर में कहा -“चलो! आखिरकार तुम्हारी मेहनत रंग लाई और तुम्हारी कहानी पत्रिका में छप ही गई।”
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पति की इतनी ठंढ़ी प्रतिक्रिया से उसका मन उदास हो गया। फिर उससे नहीं रहा गया,उसने कहानी छपने की बात फोन पर दोनों बच्चों को बताई। दोनों बच्चों ने एक ही जबाव देते हुए कहा -” मम्मी!शाम में मिलते हैं, फिर बात करेंगे।”सभी की ऐसी प्रतिक्रिया पाकर उसकी खुशियों पर मायूसी के छींटें पड़ गए।
अब उसने सोचा कि किसी से इस बारे में बात नहीं करुॅंगी। फिर भी उसका मन बेलगाम घोड़े की तरह भाग रहा था।वह मन-ही-मन सोचने लगी -“किसी को मेरी छोटी -सी खुशी की परवाह नहीं है।पति की तरक्की(प्रोमोशन) होने पर तो मेरे पाॅंव जमीं पर नहीं पड़ते थे। बच्चों की छोटी-छोटी खुशियों से कितनी खुश होती रहती हूॅं!एक सप्ताह तक सभी को सुनाती रहती हूॅं, परन्तु इन सबको मेरी बिल्कुल परवाह नहीं है!”
अंजू अपने भाई बहनों से अपने -सुख-दुख साझा करती रहती है।उसने बेंगलुरू में बसी हुई अपनी बड़ी बहन को अपनी पहली कहानी छपने की बात बताई।
बड़ी बहन ने खुश होते हुए उसे ढ़ेर सारी बधाइयाॅं और शुभकामनाऍं दी।”
बहन से अपने एहसास को बाॅंटते हुए अंजू ने कहा -” दीदी!तुम तो जानती ही हो कि पति और बच्चों की खातिर मैंने अपना कैरियर छोड़ दिया, परन्तु इन्हें मेरी कोई चिन्ता नहीं। आरंभ में संयुक्त परिवार में भावनाओं को जाहिर करने का अवसर ही नहीं था,अब अवसर है तो उसकी कद्र करनेवाला कोई नहीं!”
अपनी बड़ी बहन से फोन पर उसने मन की भड़ास निकाल ली।उसकी बड़ी बहन ने उसके उद्विग्न मन को शांत करते हुए कहा “अंजू!इतना दुखी होने की जरूरत नहीं है।अभी सभी बाहर हैं,हो सकता है कि घर आकर अपनी भावनाओं का इजहार करें।”
बहन की बातों से उसके मन को सुकून मिला।वह एक बार फिर से पत्रिका में अपनी कहानी पढ़ने लगी।उसे खुद पर आश्चर्य हो रहा था कि इतनी अच्छी कहानी उसने कैसे लिख ली?उसकी भाषा शुद्धि की कायल तो स्कूल-कॉलेज में शिक्षक थे ही, परन्तु कहानी लिखने का हुनर उसमें अभ्यास से ही आया है!”
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अंजू के मन-मस्तिष्क में विचारों का मंथन जारी था।उसने घड़ी पर नज़र दौड़ाई।अभी सात बजने में एक घंटा बाकी है।आज उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था,मानो उसकी खुशी का एहसास घड़ी को भी नहीं है।वह भी सुस्त चाल चल रही है।
अचानक से दरवाजे पर घंटी बजती है।दरवाजा खोलने पर उसने देखा कि आज एक घंटा पहले ही उसके पति और बच्चे आ गए हैं।उसने पूछा -“आज तुम तीनों एक साथ कैसे आ गए?”
तीनों एक साथ बोल पड़े -“आज हम आपके साथ खुशियाॅं मनाने आऍं हैं!
उसके पति ने उत्साहित होकर कहा -“बच्चों!केक निकालो और पत्रिका के साथ मम्मी की ढ़ेर सारी फोटो खींचो,जिससे मम्मी को अपने लेखन का शुभारंभ सदैव याद रहे।”
पति और बच्चों के उत्साह देखकर अंजू की ऑंखें अनायास नम हो गईं।उसने तीनों को अपनी बाॅंहों में भर लिया।उसी समय उसकी कुछ सहेलियाॅं,उसके देवर ,ननद और छोटी बहन भी बधाई देने पहुॅंच गईं।अंजू ने इशारे-इशारे में पूछा -” ये सब यहाॅं कैसे?”
उसकी ननद ने चहकते हुए कहा -” भाभी! संयुक्त परिवार की यही तो खुबसूरती है!हम चाहे अलग-अलग रहें, परन्तु खुशियाॅं और ग़म बाॅंटने जरूर इकट्ठे हो जाते हैं!”
अपनों के बीच अंजू के मन का मैल धुलकर प्रदीप्त हो उठा और वह उठकर खुशी से सबका मुॅंह मीठा कराने लगी।
समाप्त।
लेखिका -डाॅ संजु झा ( स्वरचित)