Moral stories in hindi : सुलभा आज बहुत खुश थी।दीपावली की छुट्टियों में बेटी आई थी दस दिनों के लिए।बचपन से ही विद्रोही स्वभाव की आयुषी खुद को पापा जैसी ही कहती थी।दोनों बच्चों के स्वभाव में जमीन -आसमान का अंतर था।सुलभा का बेटा(बड़ा)शांत और कम बोलने वाला था,वहीं बेटी मुंहफट।जिद्दी भी अपने पापा की तरह ही थी।
रूप -रंग में भी मां जैसी नहीं दिखती थी बचपन में।सुलभा अक्सर कहती उससे”तू मेरी बेटी होकर कैसे ऐसी हो गई?”वह हंसकर कहती”मैं पापा की ज्यादा और आपकी कम हूं बेटी।”स्वभाव में मां से विपरीत होने पर भी एक खासियत थी उसकी कि ,मां के लिए कुछ भी करने को तैयार।सुलभा को कभी उसे कुछ सिखाना नहीं पड़ा।कब वह घर संभालना,खाना बनाना,पूजा -पाठ करना सीख गई,पता ही नहीं चला।अपनी मां की ढाल बनती गई वह समय के साथ-साथ,पर मां की गलती पर पापा का पक्ष लेने से भी नहीं चूकती थी वह।
दसवीं के बाद बेटे के कहने पर ही उसे विशाखापट्टनम पढ़ने भेजा था।छोड़ने सुलभा ही गई थी।रास्ते भर समझाती रही वह”मम्मी रोना मत दूसरी मांओं की तरह।तुम एक टीचर हो, स्ट्रांग हो।तुम्हें शोभा नहीं देता रोना।उसके साथ ही सुलभा के विद्यालय के बहुत सारे बच्चे जा रहे थे।दाखिले के बाद होटल आते समय उसकी आंखों से एक बूंद भी नहीं छलका,वादे के हिसाब से सुलभा भी नहीं रोई।
वहां बड़े शहरों के बच्चों के साथ उसने बड़ी मुश्किल से सामंजस्य बिठाया था।उसे डॉक्टर नहीं बनना था, पर मां की खुशी के लिए नीट की कोचिंग की । बारहवीं में बहुत अच्छा रिजल्ट आया था पर नीट में सिलेक्ट नहीं हो पाई।डेंटल मिल रहा था तो उसने साफ मना कर दिया।बड़े भाई ने बी एस सी बॉयोटेक में एडमिशन करवा दिया, तो वह करने लगी।फाइनल इयर में सुलभा को पता चला कि उसे तो इंटीरियर करना था पर मां की इच्छा के लिए बी एस सी कर रही थी।
गोल्ड मेडल लाकर कहा उसने”ये तुम्हारे लिए है।हमेशा बच्चों को संस्कार सिखाती रही ना तुम।हमें भी संस्कारों की दुहाई दे-दे कर पाला तुमने।कभी किसी बात के लिए जोर ना देकर कहानियां सुना-सुनाकर हमसे अपने मन का करवा लिया।मम्मी मैं और दादा तुम्हें किसी के सामने शर्मिंदा कैसे होने दें सकते हैं?ये मेडल तुम्हारे संस्कारों की शिक्षा का है।बाहर रहकर भी मैं कभी कुछ ग़लत नहीं कर पाई सिर्फ आपके संस्कारों की वजह से।”
सुलभा अवाक होकर देख रही थी बेटी को।कितना परिवर्तन आ गया समय के साथ।अब तो बिल्कुल मां की तरह ही दिखने भी लगी थी।एम एस सी अब उसकी मर्जी से फूड टेक्नोलॉजी में करने दिया सुलभा ने।दो साल के लिए फिर नया शहर।ये हम मांएं अपनी बेटियों को अनजाने में ही ससुराल में सामंजस्य करना सिखा देतें हैं।
इस कहानी को भी पढ़ें:
बेटे को बाहर जाना नहीं पड़ा ,यहीं रहकर पढ़ रहा था और पापा की देखभाल भी कर लेता था।सुलभा ख़ुद से ही पूछती कभी -कभी “मां ही बेटों को अगला पुरुष बनाती है।घर में लाड़-प्यार से उनके सारे काम करके पहले तो उनकी आदतें बिगाड़तीं हैं हम,फिर बेटियों से उनकी तुलना करतीं हैं कि कुछ नहीं करता घर का काम।
अब बेटी को नौकरी भी मिल गई पुणे में।अकेले सब संभालने में माहिर थी।भाई जाकर देख आया और संतोष से बोला”मम्मी,बहुत अच्छा ऑफिस है,घर भी बहुत अच्छी जगह लिया है उसने।हम दोनों कभी नहीं कर पाते इतनी अच्छी व्यवस्था उसके लिए।बेटे के मुंह से सुनकर दिल को ठंडक मिलती।बाद में खुद सुलभा भी जाकर रह आई थी बेटी के पास।ऐसा लगा कि उसने चार धाम की यात्रा करवा दी।इससे बड़ा सुख एक मां के लिए क्या होगा कि बेटी कहीं भी रहे,संस्कार ना भूलें।
जो बेटी बचपन से रिश्तेदारों से भागती थी वह वहीं रहने वाली अपनी छोटी बुआ को डांटकर बुलाती थी यह कहकर कि”तुम्हारा भाई नहीं है तो क्या हुआ दो -दो मायके हैं तुम्हारे।एक मेरी मम्मी का घर ,एक मेरा घर।”बुआ ने खुद रोकर बताया था सुलभा को।ये कब सीख गई तू?पूछने पर वही हंसकर चिढ़ाना”बचपन से यही तो देखते आएं हैं। ज़िंदगी भर सास-ससुर,ननद -ननदोई के बीच भंवर में फंसी रही तुम।मुझे कोई शौक नहीं है,वो तो तुम्हारी वजह से मिल लेती हूं,बुला लेतीं हूं अपने पास।”
सुलभा को हमेशा यह चिंता होती थी कि संस्कारों की दुहाई देने का भी अंत होता है।आजकल बच्चे झट से मुंह के ऊपर मना कर देतें हैं,जो उन्हें पसंद नहीं।अपने पापा को देख नहीं पाई थी आयुषी आखिरी समय में।तब सुलभा की सास का आपरेशन हुआ था।दूसरे शहर मृत्यु शैय्या पर पड़े हुए पिता ने आखिरी सांस लेते हुए अपनी लाड़ली बेटी को याद किया होगा,पर मां-भाई देख सकें पापा को ,इसलिए दादी के साथ खुद रुक गई थी। पार्थिव शरीर ही देख पाई थी वह।
रोईं नहीं बिल्कुल भी यह कहकर”बहुत तकलीफ़ में थे मम्मी, पापा।अच्छे इंसान थे ना ,इसलिए ईश्वर ने ज्यादा कष्ट भोगने नहीं दिया।अपने बड़े भाई की हर जरूरत ठीक वैसे ही पूरी करती ,जैसे पापा करते।रिश्तेदारों से नफ़रत हो गाई थी उसे।आज सब कुछ भूलकर अपनी मां के कहने पर जितना भी लगाव रख रही है काफी है।सुलभा हमेशा समझाती उसे”देख मम्मा ,तोड़ना बहुत आसान है।जोड़ना मुश्किल है।हमें हमारा परिवार ,जाति , धर्म कर्मों के हिसाब से मिला है ।बदल नहीं सकते इन्हें।इन्हें ही लेकर चलना पड़ता है।”वह हमेशा कहती “तुम ही निभाना , मुझसे नहीं होगा।”
आज वही सारे रिश्ते निभा रही थी। शादी की बात करते ही कहती “मुझे देश से बाहर जाना है। बहुत सारे पैसे कमाना है मम्मी।दो साल वहां कमाकर फिर आ जाऊंगी तुम्हारे पास।”
बेटा भी हमेशा कहता”मम्मी,उसके साथ जबरदस्ती मत करना।उसे नौकरी करने दो अभी।जब वो बोलेगी,तभी शादी की बात करना।वो अपने मन की बात बताती भी नहीं किसी को पापा के अलावा।अब उनके ना रहने से जबरदस्ती शादी की बात करके उसे पापा की कमी और नहीं दिलाएंगे हम।करने दो उसे नौकरी अभी।शादी आराम से उसके कहने पर ही करेंगें।”
इस कहानी को भी पढ़ें:
बेटा सच ही बोल रहा था पर,सुलभा इस नई पीढ़ी की सोच से डरती थी।कब ऐंठ जाएं क्या पता?
कुछ दिनों से उसने बोलना शुरू कर दिया था “मम्मी,मैं शादी नहीं करूंगी।तुम्हारी जिम्मेदारी सिर्फ दादा की नहीं मेरी भी है।तुम मेरे पास भी रहोगी।बेटे की अकेली नहीं होती मां।”,सुलभा को इसी बात का डर था।और भी बहुत कुछ कहती वह,’,”क्या होगा शादी करके? ससुराल वालों को खुश रखने से पहले आपको खुश रखना मेरा दायित्व है।
जीवन भर रिश्तों को संभालते उम्र बीत जाती है।कोई खुश भी नहीं होता।अपने बच्चों को ही कहां देख पाई तुम बड़ा होते।सारा दिन स्कूल, ट्यूशन,घर के काम , दादा-दादी की सेवा।समय ही नहीं बचता था तुम्हारे पास, ना अपने लिए ना हमारे लिए।मुझे यह सब झंझट नहीं लेना।मैं और मेरी मां बस।कोई और नहीं चाहिए मुझे अपनी जिंदगी में।मैं अपनी मां को देखने के लिए किसी के पर्मिशन का इंतजार नहीं कर पाऊंगी।तुम्हें क्या मिला मम्मी शादी करके?’
सुलभा ने उसे शादी का अर्थ सिखाया।रिश्तों की अहमियत समझाई।अकेले तो कोई भी रह सकता है,पर बहुत कम ऐसे लायक बच्चे होतें हैं जो अपने मायके और ससुराल दोनों को समान प्यार करें।अपने बच्चों को संस्कारित करने वाली मांएं कभी शर्मिंदा नहीं होती।
हर बार यह चर्चा बिना किसी नतीजे पर पहुंचे ही खत्म हो जाती।सुलभा आजकल के तौर-तरीकों से भी वाक़िफ थी।बच्चों को आजकल शादी से ज्यादा लिव इन में रहना पसंद था।जाति -बिरादरी,कुल यह सब अब कौन सोचता है।पता नहीं क्या करेगी।अबकी बार बात करें क्या फ़िर से सुलभा सोच रही थी ,तभी बेटी ने चौंकाया ” मम्मी,आपको पता है, नीदरलैंड से जॉब का ऑफर मिला है। बहुत बढ़िया पैकेज है।”उसकी बात आधे में ही काटकर बोली सुलभा”हां तो ,कर लें ना ज्वाइन।यहां तो बहुत कम पैसा मिल रहा है।वहां दो तीन साल कर लेगी तो,यहां आकर अच्छी जॉब मिलेगी।’
“अरे रुको तो आप!क्या कह रही हो?अच्छा पैसा देखूं या सुरक्षा?बाहर जाने के बाद क्या मैं जब मन तुम्हारे पास आ पाऊंगीं।वीसा में नाटक होता है।उनकी मर्जी से आना होगा।मुझे मेरी मां के पास आने के लिए पर्मिशन का इंतजार करना पसंद नहीं। मम्मी तुमने ही तो सिखाया है ना,अपनी जन्मभूमि स्वर्ग समान है।तो जब यहां स्वर्ग भी है,और मेरी मां भी है,भाई है,तो मैं बाहर क्यों जाऊं?पैसा कब से आपके लिए प्राथमिक है गया?ऐसा सोचना भी मत।लोग क्या कहेंगे?”
सुलभा वाकई में शर्मिंदा महसूस कर रही थी ऐसा बोलकर।बारह सालों से घर से बाहर रहने वाली बेटी को घर से इतना जुड़ाव है,यही क्या कम है?, उसका डर भी समझ आया सुलभा को अब।पिता को आखिरी समय देख नहीं पाने का दंश जीवन भर शूल की तरह चुभता रहेगा।अब वह मां से दूर कैसे जा सकती है?सुलभा ने सॉरी कहा बेटी को”तू कहीं मत जाना।यहीं रह,अपने देश में।
बेटी ने सुलभा के गले में बांहें डालकर एक और सरप्राइज दे दिया”मम्मी,अब अगले साल से ढूंढ़ना शुरू कर दो अपना दामाद।मुझसे अब तक नहीं हुआ ,तो अब होगा भी नहीं।किसी लड़के से बात करने से पहले ही ब्राह्मण-कायस्थ की जांच पड़ताल करने लग जातीं हूं।कोई मिलने बुलाया है चाय पर तो यह। बोलकर मना कर देती हूं कि फिर उसे उम्मीद ना बंध जाएं।मैं किसी को इस्तेमाल कर भी नहीं सकती और ना किसी को अपना इस्तेमाल करने दे सकतीं हूं।
ये जो बचपन से दूध के साथ बॉर्नविटा की जगह संस्कार पिलाया है ना तुमने,हम चाह कर भी कुछ ग़लत नहीं कर सकते। तुमने बहुत ही चालाकी से परवरिश की अपने बच्चों की।अब दामाद और बहू भी तुम ही ढूंढ़ना।शादी ठीक समय पर हो जाए तो,ही अच्छा है।एक बात और ,तुम अकेली ही अपने बच्चों को लायक बनाने वाली नहीं रहोगी।मैं भी तुम्हारा चैलेंज स्वीकार करती हूं।शादी भी करूंगी, ससुराल और मायका दोनों संभालूंगी और बच्चों को अच्छा इंसान भी।”
सुलभा को तो आज अपने संस्कारों की शिक्षा का सबसे बड़ा मेडल मिला।सुलभा ने बेटी को सीने से लगाकर कहा’थैंक यूं,तूने मुझे अपने संस्कारों के आगे शर्मिंदा होने से बचा लिया।”
शुभ्रा बैनर्जी
# शर्मिंदा स्वरचित
Ser