बाल कृष्ण जी रिटायर्ड आईएएस हैं, निवृत होने पर उन्होंने नोयडा में रहने को प्राथमिकता दी।उनका एक मात्र बेटा साहिल नोयडा के ही एक इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ रहा था।नोयडा में अपना निवास रखने के पीछे एक कारण तो अपने बेटे की पढ़ाई का था,दूसरे नोयडा में दिल्ली जैसी घिचपिच नही थी
जबकि सुविधाये सब थी।सैटल हो जाने पर बाल कृष्ण जी के सामने वही समस्या मुँह बाये खड़ी थी जो सभी रिटायर्ड बंधुओ को होती है।समय कैसे व्यतीत हो?अपने कार्यकाल में तो प्रशानिक कार्यो में कभी कभी 24 घण्टे भी कम महसूस होते थे,पर अब लगता ये दिन कैसे कटेगा, दिन में आंख लग गयी तो रात्रि में नींद नही आयेगी तो वह और भारी पड़ेगी,सोचकर दिन में न सोने का प्रयास करते।
एक दिन उनका मिलना एक स्वयंसेवी संस्था के पदाधिकारी से हुआ।उनका सुझाव उनके मन मष्तिष्क में बैठ गया।उन्होंने समाजसेवा में अपना योगदान करने का निश्चय कर लिया।उसी स्वयंसेवी संस्था के परामर्श से उन्होंने अपने निवास के करीब की एक गरीब बस्ती का चयन किया।उस बस्ती के वासियों की सेवा में ही अपने को खपाने का निर्णय ले लिया।
बालकृष्ण जी ने पहले उस गरीब बस्ती का निरीक्षण किया और वहां की समस्याओं एवं सांस्कृतिक अध्ययन किया।ये सब करने पर उन्होंने उस बस्ती का नाम विवेकानंद बस्ती किया।सरकारी कागजो में तो नही हो सकता था,पर गरीब बस्ती,दलित बस्ती आदि नाम से इंगित करना बालकृष्ण जी को उचित नही लगता था।बस्ती का नाम गौरव पूर्ण ढंग से लिया जा सके तो वे उस बस्ती को विवेकानंद बस्ती कह पुकारने लगे।
बालकृष्ण जी ने विवेकानंद बस्ती के परिवारों में जो अपंग थे,उनकी सूची बनाकर उन्हें सरकारी योजना की सहायता से कृत्रिम अंग दिलवाये, परिवारों के प्रधानमंत्री आयुष्मान कार्ड बनवाना, जिनकी स्थिति सही थी उन्हें आवास बनवाने में सहायता करना,अब उनका यह उनका दैनिक कर्म बन गया था।
बस्ती वालो ने उनके कहने पर उन्हें एक स्थान शाम के समय दो घंटे के लिये उपलब्ध करा दिया तो वहां उन्होंने बस्ती के बच्चों और अनपढ़ बड़ो के लिये निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था कर दी,जिसमे कुछ युवा समाजसेवी नवयुवकों ने शिक्षा देना प्रारम्भ कर दिया। बालकृष्ण जी ने उस स्थान का नाम संस्कार केंद्र रख दिया।
धीरे धीरे बस्ती ने एक आदर्श रूप धारण कर लिया।बालकृष्ण जी उस बस्ती के लिये सम्मानित बन गये थे।हर समस्या,दुख सुख में बालकृष्ण जी की भूमिका अवश्य रहती। बालकृष्ण जी अपनी विवेकानंद बस्ती के लिये पूरी तरह निस्वार्थ भाव से समर्पित थे।
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चुनावों का समय आ गया।बालकृष्ण जी चूंकि विवेकानंद बस्ती के कारण काफी लोकप्रिय हो गये थे,इस कारण उन्हें राजनीतिक दलों ने अपने अपने उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने का आफर किया,जिसे बड़ी ही विनम्रता से उन्होंने अस्वीकार कर दिया।लेकिन भंवरे फूल को देख मंडराने से कहाँ बाज आते हैं।
एक दिन तो हद हो गयी,एक राजनीतिक दल के नेता बालकृष्ण जी के पास आकर बोले सर आप तो खूब लोकप्रिय है,बस्ती वाले वोट भी आपके कहने से ही देंगे,सर ये तो आपका पक्का वोटबैंक हो गया है,आप चुनाव नही लड़ना चाहते तो अपने ये वोट मुझे ही दिलवा देना।सर बस्ती के लोगो की सब तरह की व्यवस्था करा दूंगा।
सुनकर बालकृष्ण जी जैसे सौम्य व्यक्ति का आक्रोश से मुँह लाल हो गया,व्यवस्था के नाम पर सामने वाला बस्ती वालो को रिश्वत की पेशकश कर रहा था।जो संस्कार उन्होंने बस्ती के लोगों को उन्होंने देने के लिये रात दिन एक कर दिया था,यह व्यक्ति उन्हें ध्वस्त करने की योजना लेकर आया था।
एका एक बालकृष्ण जी उठे और दरवाजा खोल उन्होंने उन नेता जी को तुरंत ही अपने यहां से जाने को कह दिया।एक गहरी सांस लेकर लगभग हांफते हुए बालकृष्ण जी अपने सोफे पर गिर से गये।सोचने लगे क्या ऐसे लोग ही देश चलायेंगे, अपने संस्कार और संस्कृति को ध्वस्त करके।एक बड़ा प्रश्न चिन्ह उनके सामने था पर उसका उत्तर तो किसी के पास नही था।
बालेश्वर गुप्ता,नोयडा
मौलिक एवं अप्रकाशित