आसमान सूर्य की लालिमा से नीलाभ रंग में परिवर्तित होकर कालिमा के आगोश में समा रहा था । इन परिवर्तनों से अनजान सुषमा कागज कलम में व्यस्त थी। तभी हिरावती ने आवाज़ देते हुए कहा-” मैडम जी! अंधेरा हो गया, घर चलिए, बहुत देर गया है।
” सुषमा बिना नजर उठाए बोली-” तूं चली जा, मुझे समय लगेगा, मैं थोड़ी देर में काम निपटा कर निकल जाऊंगी। ” “सड़क पर सन्नाटा पसरा है, अकेले नहीं छोड़ सकती मैं, आप काम कर लीजिए, मैं बैठी हूँ।” कागज समेटते हुए कलम बंद कर सुषमा बोली-“अच्छा चल, तू मेरे बगैर नहीं निकलेगी। ” बैग उठा कमरे से बाहर निकल गई।
हिरावती आफिस बंद कर चाभी स्टैंड में लटका कर अपना थैला उठाई और पीछे-पीछे स्कूल से बाहर निकल आई। मैम गाड़ी में सवार हो बाज़ार से सब्जियां खरीद कर घर पहुंची। फ्लैट का ताला खोल भीतर से बंद करते हुए फ्रेश हो, फ्रिज से पानी का बोतल उठाकर अपने बेड पर लेट गई । अब वह थकान का अनुभव कर रही थी
। उसे खाना बनाने की इच्छा नहीं हो रही थी। शायद, अपने लिए कुछ न करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति की प्रबलता थी। कब तक नहीं बनाए खाएगी, यह सोच उठी और खुद के लिए सब्जियां काटकर दो फुल्के सेकी। बनाने-खाने के बाद साफ-सफाई कर बालकनी में टहलने के लिए निकली। ग्यारह ही बज रहा था,
लेकिन चारो तरफ सन्नाटा फैला हुआ था, बीच- बीच में कुत्तों के भौंकने की आवाज़ आ रही थीं। रेलिंग से कोहनी टिकाए देर तक वह सड़क निहारती रही, सोच रही थी कि, कितनी समानता है, इस सन्नाटे से उसके जीवन का। जब पिता उसकी शादी तयकर वापस लौटे थें, तो उसने चेहरे पर सफलता की चमक थी।
लड़के की बड़ाई करते हुए थकते नहीं थें। लाडली का ब्याह उन्होंने कलकत्ता के एक बड़े हीरा व्यापारी परिवार में तय किया था। लड़का होनहार और परिश्रमी होने के कारण बहुत कम समय में अपना व्यक्तिगत शो रुम खोल लिया था।
ब्याह कर बिटिया जब ससुराल पहुँची तो, वहाँ उसकी सेवा में हाथ बांधे नौकरानियाँ खड़ी थी। माँ से मिले संस्कार के कारण वह अपना ज्यादातर काम स्वयं ही करती थी। डेढ़साल में पति उसके गोद में तीन महीने की बच्ची डालकर एक रोड़ एक्सीडेंट में हमेशा के लिए इस संसार से जुदा हो गए। पति के विरह में डूबी उस अभागन से ससुरा के लोगों ने कोरे कागज पर दस्तखत करवाकर,
इस कहानी को भी पढ़ें:
उसके पति की संपत्ति से उसे बेदखल कर दिया। जब सच्चाई सामने आई तो उसे पता चला कि, उसके हस्ताक्षर वाले कागज का प्रयोग एक हलफनामा तैयार करने के लिए किया गया है। जिसमें स्वेच्छापूर्वक पति की सम्पति को सम्हालने में, अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए देवर को सम्हालने का अधिकार सौंप दी।
सबकुछ खो चुकी थी। उसने पूरी जानकारी पिता को रो-रो कर दिया। ससुराल वालों इस सौतेले व्यवहार को सुनकर वे आगबबूला हो गए। बह्मभोज से अंतिम कर्मकाण्ड तक वहाँ बातचीत का कई दौर चला, लेकिन रिज़ल्ट बेनतीजा रहा। थक हार पिता दामाद के अंतिम संस्कार के बाद, बेटी के प्रति उसके ससुराल वालों का उपेक्षापूर्ण व्यवहार और बेटी की दयनीय अवस्था देख विदा करा लाएं।
माँ और अपने मायके के परिवार में रहकर भी उसे सामान्य होने छः महीना से भी अधिक का वक्त लगा। बदलाव के लिए उसने स्कूल में पढ़ना शुरू किया । पिता के सहयोग से कानूनी लड़ाई लड़ने के बाद उसे गुजारा हेतु कुछ सम्पत्ति प्राप्त हुई। बेटी की परवरिश और विद्यालयी परिवेश के बीच जीवन की गाड़ी गुजर ही रही कि, भाइयों के विवाह योग्य होते हुए अनुभव कर पिता ने पारिवारिक शांति हित बेटी के लिए पूरी सुखसुविधा युक्त फ्लैट खरीद लिया ।
पैतृक घर बड़े भाई का विवाह होते ही छोड दी। वह बेटी के साथ फ्लैट में सिफ्ट हो गई। बेटी भी बारह साल की हो गई थी। माँ बेटी एक दूसरे का हाथ थामें जीवन के दस साल परिवार वालों के सहयोग से पढ़ते- पढ़ाते निकल गया। अगला झटका उसे तब लगा जब माता- पिता के स्वर्गवास से लगा।
कुछ समय बाद ही बेटी ने माँ से अपने प्रेम का खुलासा कर विवाह का प्रस्ताव रखा। लड़के से मिलकर बेटी के इच्छानुकूल वर को स्वीकार करते हुए उसने बेटी का विवाह धूमधाम से कर ससुराल विदा कर दिया। स्वयं के लिए एकांतवास भरा जीवन अपनी झोली में स्वीकार किया। आज शिक्षण कर्म में अपना समय गुजार रही हैं। आज उम्र के पचासवीं दशक में समय ने भरे पूरे परिवार की इस लाडली को भरे पूरे रिस्तों के रहते हुए भी एकांत वास में जीवन गुजरने के लिए मजबूर दिया है।
-पूनम शर्मा, वाराणसी।