रामप्रसाद एक सामान्य से व्यक्ति थे।नगर निगम में क्लर्क की नौकरी करते थे।एक ही बेटा था,हरीश।उनका सपना था कि बेटा अच्छा पढ़ लिख जाये और अच्छी नौकरी प्राप्त कर ले तो उनके दिन भी बुहर जाये।इसलिये उनके केंद्र में हरीश ही रहता था।उनका पूरा ध्यान,ऊर्जा और अधिकतर धनराशि हरीश की पढ़ाई लिखाई पर ही होती।
हरीश ने भी अपने पिता को निराश नही किया।मेधावी छात्र निकला।मेडिकल प्रतियोगिता में सफल रहा,तो रामप्रसाद की खुशी का कोई ठिकाना नही रहा।बेटा उनके रिटायरमेंट से पहले ही डॉक्टर बन जायेगा।आजकल तो डॉक्टर लोगो की आमदनी का कोई ठिकाना नही,सोच सोचकर रामप्रसाद प्रफुल्लित होते रहते।निर्धनता की जिंदगी में कम से कम बुढापे में तो छुटकारा मिलेगा।उन्होंने अपने को पूरी तरह से हरीश को डॉक्टर बनाने में झोंक दिया।घर मे हर तरह की किल्लत सहते पर हरीश को किसी तरह की कमी न रह जाये,इसी के जुगाड़ में लगे रहते।
आखिर वह दिन भी आ गया जब उनका हरीश डॉक्टर बन ही गया।रामप्रसाद जी ने अपने ऑफिस में तथा मुहल्ले में मिठाई बांटी।हरीश ने डॉक्टरी की पढ़ाई तो कर ली थी,पर इन्ही दिनों उसके दृष्टिकोण में परिवर्तन आ गया था,उसे अहसास होने लगा था कि डॉक्टरी पेशा मात्र कमाई का जरिया ही नही है,वह तो सेवा का माध्यम भी तो है।दूर ग्रामो में,वन क्षेत्रों में जहां इलाज की प्राथमिक सुविधा तक नही है,वहां यदि सामान्य डॉक्टर निस्वार्थ भाव से जाये तो उनके लिये इससे बड़ा उपकार कुछ नही हो सकता।हरीश ने यही मार्ग चुना।उसे यह भी अहसास था,इससे उसके माता पिता प्रसन्न नही होंगे,पर उसकी आत्मा उसे झकझोर रही थी कि उसे जहां तक संभव हो सके दीन हीन की ही सेवा को प्राथमिकता देनी है।
पर अपने माता पिता को भी वह विस्मृत नही करना चाहता था,आखिर उनके त्याग के बल पर ही वह डॉक्टर बना है।अजीब कशमकश के दौर से हरीश गुजर रहा था।पर निर्णय तो लेना ही था।काफी सोच विचार के बाद उसने निर्णय लिया कि वह अपनी प्रैक्टिस दूर गांव में ही करेगा।जहां वह वंचितों को अपनी निःशुल्क सेवा देगा तथा समर्थ लोगो से कुछ फीस लेगा जिससे वह अपने माता पिता का सहयोग करता रहे।
जैसे ही हरीश ने अपनी योजना अपने पिता रामप्रसाद जी को बताई,वे बिफर पड़े।अपने आवेग को न रोक पाये और बोल उठे अरे बदजात क्या हमने अपना जीवन तेरे लिये इसी कारण खपाया था?रामप्रसाद जी खड़े न रह सके और क्रोध में पैर पटकते हुए अंदर कमरे में चले गये।हरीश के लाख समझाने के बावजूद रामप्रसाद जी नही माने।आखिर हरीश ने अपनी मां को मध्यस्थ बना अपनी बात रख दी कि अब निर्णय नही बदला जा सकता।सचमुच हरीश एक सुबह चला ही गया,अपने पिता को खून के आंसू रोते छोड़कर।
हरीश ने जिस ग्राम को चुना,वहां के ग्राम प्रधान ने उसकी काफी मदद की,उसे वही अपने घेर में रहने को एक छोटा सा कमरा दे दिया।गांव में मनादी भी करा दी कि घेर में ही डॉक्टर साहब मरीजों को देखा करेंगे।
हरीश ने अपने संकल्प के अनुरूप मुफ्त अपनी सेवाएं देनी आरंभ कर दी।ईश्वर की अनुकंपा से उसके इलाज से सबको लाभ मिलने लगा और हरीश की लोकप्रियता भी बढ़ने लगी।धीरे धीरे उसे लगता कि 24 घंटे भी कम है।हरीश कर्तव्य पथ पर बढ़ता गया।एक बार जिले के कलेक्टर उस गांव में आये तो उन्होंने निस्वार्थ भाव से एक प्रशिक्षित डॉक्टर को वहां सेवा करते पाया तो उन्हें बेहद आश्चर्य हुआ,आज के जमाने मे भी कोई ऐसा कर सकता है।प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता कहाँ होती है।उन्होंने हरीश के नाम का प्रस्ताव प्रदेश रत्न के लिये सरकार को भेज दिया।
जिला केंद्र पर एक बड़े कार्यक्रम में हरीश को मुख्यमंत्री द्वारा प्रदेश रत्न का मैडल एवम पांच लाख रुपये प्रदान किया गया।पुरुस्कार लेकर हरीश जैसे ही मंच से नीचे उतरा तो उसे थोड़ा पीछे की ओर अपने पिता रामप्रसाद जी दिखाई दिये।काफी दिनों बाद उसे पिता दर्शन हुए थे, नाराज थे न,हरीश दौड़कर उनके पास पहुंच गया और उनके पावँ के समीप ही मेडल और चेक रख कर उनके पैर पकड़ लिये बाबूजी इस निखत को माफ कर दो बाबूजी मैं आपका गुनाहगार हूँ, मैं आपके सपने को पूरा न कर सका,बाबूजी मुझे माफ कर दो।हरीश जो अभी मंच पर हीरो था,उसको एक व्यक्ति के इस तरह पैरों में पड़े देख सब आश्चर्य चकित थे।
रामप्रसाद जी ने हरीश को अपने दोनो हाथों से ऊपर उठाकर अपने सीने से लगा लिया।अरे पागल तूने तो इस क्लर्क बाप का सीना चौड़ा कर दिया रे।तू कितना बड़ा हो गया है, हरीश।मुझे तुझ पर नाज है।
हरीश ने अपने बाबूजी को अपना मैडल और पांच लाख रुपये अपनी कसम देकर सौप दिये।खून के आंसू आज हर्ष और गर्व के आंसू बन चुके थे।
बालेश्वर गुप्ता,नोयडा
मौलिक एवम अप्रकाशित।
*#खून के आँसू* मुहावरे पर आधारित लघुकथा: