संजीवनी बूटी सा मायका — डॉ उर्मिला शर्मा

ट्रैन से उतरकर नम्रता ने आंखों में गहरे उतार लेने वाली नजरों से प्लेटफार्म को देखा। मन एकसाथ घोर अपनापन और परायापन दोनों से भर उठा। यह उसका अपना शहर, अपना मायका है। वह यहां एक दिन के लिए एक सेमिनार में आई थी। घर से निकलते समय पड़ोसन शिल्पा ने उसे लगेज के साथ जाते देख पूछा  था -“कहाँ जा रही हैं दीदी?”

तब बेख़स्ता उसके मुंह से निकला था -“अपने घर।”

शिल्पा आंखें सिकोड़कर समझने वाले अंदाज से चुपचाप देखने लगी। शायद यही सोच रही होगी कि अपने घर से निकलकर अब कौन से ‘अपने घर’ जा ही रही है।

  तो यह उसका अपना शहर,अपना मायका है। वह प्लेटफार्म पर एक स्थान पर खड़ी होकर चारों तरफ देखने लगी। विगत स्मृतियाँ उभर आई। प्लेटफार्म में सुंदरीकरण की वजह से काफी बदलाव आ चुका था। मधुबनी पेंटिंग की खूबसूरत कलाकृतियों से दीवारें भरी थी। एक से दूसरे प्लेटफार्म पर जाने के लिए सीढ़ियों के समानांतर स्केलेटर बन चुकी थीं। तभी शिल्पा को वह पिलर दिखा जहां वह आखिरी बार अपने पिताजी के साथ बैठकर बातें कर रही थी। जब वह बीमार मां से मिलने आई थी और वापस जाते समय पिताजी स्टेशन ट्रैन पर बिठाने आये थे।

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घण्टा भर उस पिलर के पास बैठकर मां के सेहत पर बातों के साथ साहित्य में गहन रुचि रखनेवाले पिताजी से दिनकर के ‘संस्कृति के चार अध्याय’ पर चर्चा भी हुई थी। अब न माँ थीं और न ही पिताजी। उसे कहाँ पता था कि मां से उसकी आखिरी मुलाकात थी वह। भारी मन से वह बाहर निकलकर होटल के लिए ऑटो लिया। रास्ते भर शहर के चिर परिचित रास्तों को देखती जा रही थी। होटल पहुंच रिसेप्शन से चाभी लेते हुए नम्रता ने मैनेजर को यह बताया -” मैं इसी शहर की बेटी है। यह मेरा दुर्भाग्य है कि मुझे यहां होटल में ठहरना पड़ रहा।”

यह सुनकर मैनेजर ने बड़ी आत्मीयता से कहा -“कोई बात नहीं मैडम!…ऐसा होता है। मैं हूं न…. आपको किसी प्रकार की परेशानी नहीं होगी यहां।”



        कमरे में पहुंच फ्रेश होकर आराम करने लगी। मन फिर अजनबीपन बोध से भर उठा। अतीत मन – मस्तिष्क पर हावी होने लगा। आज मां-पिताजी होते तो बेटी के आने की खुशी में पूरा घर सर पर उठा लिए होते। उसके खाने-पीने तथा आराम की फिक्र में लगे होते। आज शहर वही है। घर भी अपनी ही जगह पर है पर बन्द है। तीनों भाइयों ने तीन ताला लगा रखा है घर के मुख्य द्वार पर। सीधा- सादा पारम्परिक व संस्कारी परिवार था उसका। नम्रता के पिताजी उसके आदर्श थे। सादा जीवन उच्च विचार वाले व्यक्ति। पर न जाने उनसे अपने बच्चों की परवरिश में कहाँ कमी रह गयी थी

जो आज उसके भाई – बहनों के बीच सम्बन्धों की उष्णता खत्म ही हो गयी थी। सभी अपनी दुनिया में मगन। कोई किसी से कम नहीं। किसी को किसी की जरूरत नहीं। सभी अपने दम्भ में चूर। अंत में तो उन्होंने माता- पिता की भी दायित्वों से मुंह मोड़ लिया था। देखभाल की समुचित व्यवस्था में कमी के कारण असमय वो अपनी जिंदगी जीकर इस दुनियां से चले गए थे।

     नम्रता अपनी शादी के शुरुआती सालों में अक्सर मायका में ही ज्यादा रहती थी। शुरू के दिनों में उसके ससुरालवाले उसपर बहुत जुल्म करते थे। संस्कार रूप में उसे सहने की सीख मिली थी। पति भी सब देखते हुए भी चुप रहते थे बल्कि आपत्ति करने पर उसे ही डांटते थे। नम्रता घुटते रहती थी। जब सहनशक्ति साथ देना छोड़ने लगती थी तब वह मायके चली आती थी। फिर चार-छः महीने यहाँ रहकर सहने की शक्ति बटोरती थी। मायका का वो सपोर्ट उसके लिए संजीवनी सा काम करता था।

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और वह पुनर्जीवित सी हो उठती थी। पुनः ससुराल कुछ सुधार की आस लिए वह चली जाती थी। ये सिलसिला कई सालों तक चलता रहा था। पर बाद में बच्चों के स्कूल के चलते धीरे- धीरे मायका जाना कम होता चला गया।

       तभी फोन में अलार्म बजा। वह स्मृतियों की गलियारे से बाहर निकल आयी। कांफ्रेंस के लिए निकलने का वक़्त हो चला था। वह जल्दी से तैयार होकर निकल पड़ी।


               अगले दिन वह आराम से सोकर उठी। कुछ विशेष कार्यक्रम तो नहीं था। अपने मायके के मुहल्ले में गयी। आसपास कई परिवर्तन आ चुके थे। कई नए मकान भी बन गए थे। नम्रता का अच्छा खासा तीन मंजिला मकान अब भी उसी तरह सर उठाये खड़ा था बिल्कुल पिताजी के आदर्शों और सिद्धांतों की तरह। आसपास के साफ- सुथरे दमकते घरों से अलग मौसम की मार सहते काले चितकबरे धब्बे लिए बिल्कुल उसी प्रकार मिसफिट लग रहा था जैसे आज के जमाने में पिताजी के सिद्धांत। नम्रता का हृदय भर आया घर की ऐसी दशा देखकर। घर के सामने खड़ी होकर बालकनी को टकटकी लगाकर उसे निहारती रही और याद करती रही।

कैसे मायके से जाते समय पहले मां- पिताजी उसे स्टेशन तक छोड़ने जाते थे। कुछ वर्ष बाद केवल पिताजी जाते रहे। मां घर के नीचे खड़ी होकर तबतक देखते रहती थीं, जब तक वह ओझल न हो जाती। नम्रता भी आंसू छुपाने की असफल कोशिश में डबडबाई आंखों से मुड़-मुड़कर देखते रहती थी। बाद में कमजोर होने की वजह से मां बालकनी में खड़ी हो उसे जाते हुए देखती थीं। उस आखिरी बार तो वह बीमार होने की वजह से बालकनी तक भी न आई थीं। शायद ये संकेत था कि अब उस बालकनी पर माँ कभी न दिखेंगी। पर नम्रता कहाँ समझ पाई थी। आज उस खाली बालकनी से अदृश्य मां को कल्पना से साकार करने की असफल प्रयास करती रही।

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फिर गेट के पास जाकर बाबूजी के नाम का नेमप्लेट को छूकर देखती रही। मन विह्वल हो उठा था। जी कर रहा था कि उस मकान को बाहों में समेट कर वापस घर बना दूँ। किसी तरह मन को काबू में कर अगल बगल के घरों में दस्तक देने से खुद को रोक न सकी। पड़ोसन चाची ने दरवाजा खोला। हाल समाचार पूछकर कुछ बातें हुई। बिना उद्देश्य के उनका फोन नम्बर ले लिया उसने। और भारी कदमों से एक फिर अपने खाली पड़े घर को जी भरकर देखते हुए आगे बढ़ गयी। अब संजीवनी बूटी न रही….मां-बाबूजी न रहें। मायका न रहा।

               छुट्टी के दो दिन और बचे थे। होटल के कमरे में पहुँच कर फ्रेश होकर फोन से कॉफी ऑर्डर किया। काफी देर तक वह सोचती रही। मन में एक निर्णय किया। अब मायका तो न ही रहा। भाई- भाभियों ने भी नम्रता से कोई सम्बन्ध न रखा था। अब बचा ही क्या था मायका कहलाने लायक। सम्बन्धियों से पता चला था कि सभी भाई मायके के घर को बेचने की तैयारी में हैं। तो क्यों न अपने माँ पिता के इस विरासत में वह अपने हिस्से की दावेदारी करे। आखिर वह माता पिता की लाडली थी वह।

यूँ ही भाईयों को पूरा हिस्सा हथियाने नहीं देगी वह। पिता की संपत्ति में बेटियों के हिस्से को कानून द्वारा भी अब और सशक्ति प्रदान की गई है। आगले दिन वह वकील से जाकर मिली और उनके बताए अनुसार नम्रता ने प्रोपर्टी में अपने दावेदारी की प्रक्रिया शुरू कर दी। अगले दिन फिर वह अपने शहर के सड़कों पर यूँ ही घूमने निकल पड़ी। कल तक जो मां उसकी मनपसंद चीजें व खाने की वस्तुएं अपने नेह भरे हाथों से मना करते रहने के बावजूद बांधकर देती थी, आज खुद ही उसी याद में नम्रता अपने पसंदीदा कई प्रकार के भूजा और फेवरेट बेकरी से बिस्किट्स खरीद रही थी।

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