सपना सजने-धजने और अपनी औकात के अनुसार मामूली संसाधनों से अपना श्रृंगार करने में ऐसा मशगूल हो गई कि उसे पता ही नहीं चला कि साहब के निवास में पहुंँचने में मात्र घंटे-भर ही बचे हैं।
जब निर्धनता की चक्की में पिस रहे उसके परिवार को दो वक्त की रोटी पर भी आफत आ गई तो सपना के सामने दुर्दिन का अंँधेरा छा गया। जब पेट में जीवन यापन के लिए अनाज ही न हो तो अपंग हो गई अपनी माँ का इलाज व नियमित उपचार की संभावना मात्र कोरी कल्पना बनकर रह गई थी।
उसने अपने अंतर्मन में स्वतः कहा, “ऐसी स्थिति में जब उसके सारे रिश्तेदारों और परिचितों ने उसकी तरफ से अपनी नजरें फेर ली हो, सारी दुनिया बेगानी हो गई हो तो ऐसी परिस्थितियों में वह क्या करे?… इस आर्थिक बदहाली और कठिनाइयों के समुद्र को कैसे पार करे?… जैसा कि उसने सुन रखा था कि यहाँ मुफ्त में कुछ नहीं मिलता है। किसी कम्पनी में कोई सहारा देता भी है तो बदले में उसके साथ अपनी इज्जत का सौदा करना पड़ता है। अगर उसका साहब भी ऐसा ही हो तो क्या होगा?… “
इस प्रश्न ने उसे उद्वेलित कर दिया। अगर उसके बाॅस ने उसके साथ दुर्व्यवहार किया, उसके अस्मत के साथ खिलवाड़ किया तो,’क्या वह अपने असहाय परिवार के भरण-पोषण और अपनी माँ के इलाज की खातिर वह उसकी शर्तों को स्वीकार कर लेगी?’ वह कांप उठी अपने अंतस में उठने वाले इस सवाल से, उसकी आंँखें भर आई थी।
वर्ष-भर पहले उसके माता-पिता सपना की शादी के लिए लड़का देखने जा रहे थे। जब बस पहाड़ी और जंगली इलाकों से गुजर रही थी उसी वक्त बस का ब्रेक फेल हो गया। बस दुर्घटनाग्रस्त हो गई। उसके पिताजी की मृत्यु तो वहीं पर हो गई किन्तु उसकी माँ जबर्दश्त रूप से घायल हो गई। वह बच तो गई परन्तु उसके दोनों पैर नाकाम हो गये। बैसाखी के सहारे अपने घर के अन्दर ही दस-बीस कदम चल पाती थी।
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उसके पिताजी छोटे-मोटे व्यवसायी थे। जिन ग्राहकों के पास बकाया था, उन बकायों से वसूल किए गये रुपयों से कुछ महीनों तक घर-परिवार का खर्च और उसकी मांँ का इलाज चलता रहा। साल लगते-लगते पूंँजी तो समाप्त हो ही गई थी, बकायों के लगभग सारे रुपये भी पेट में चले गए।
सपने के सिर पर दो छोटी बहनें, एक छोटा भाई और अपंग मांँ की जिम्मेदारी थी।
उसने अपनी दोनों छोटी बहनों और भाई का नामांकन सरकारी स्कूल में करवा दिया था।
उस दिन उसे एक पड़ोसी द्वारा उड़ती खबर मिली थी कि उसी कस्बे में बागीचा के पास स्थित एक प्राइवेट कम्पनी के दफ्तर में एक पद कर्मचारी या चपरासी का रिक्त है। वह इंटर तक पढ़ी हुई थी। वह बिना विलम्ब किये हुए तुरंत उस दफ्तर में पहुंँच गई।
जब वह उस दफ्तर के बाॅस के कक्ष के पास पहुंँची तो कक्ष के बाहर बैठे चपरासी ने उसे अन्दर जाने से रोक दिया यह कहते हुए कि क्या काम है, बिना साहब की इजाजत के अन्दर नहीं जा सकती हो, पहले स्लिप में लिखकर दो।
वह गिड़गिड़ाने लगी, “वह बहुत मुसीबत में है, अन्दर जाने दो।”
अन्दर जाने के लिए जब आपस में तर्क-वितर्क कर रहे थे, उसी समय साहब की घंटी बजी। जब चपरासी अन्दर गया तो उसको अन्दर आने की इजाजत दे दी।
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कक्ष के अन्दर पहुंँचते ही सपना ने कहा, “हुजूर!… हम बहुत कष्ट में हैं, हम पर मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा है, इसी उम्र में मेरे सिर पर पूरे परिवार की जिम्मेवारी आ पड़ी है कहकर उसने अपनी दुख भरी पूरी दास्तान सुना दी। उसके बाद कहा कि यहाँ जो एक पद रिक्त है उस पर उसे बहाल करके मुसीबतों से छुटकारा दिलाएं, आजीवन आपकाआभारी रहूंँगी।”
जब वह अपना दुखड़ा बयान कर रही थी तो धनंजय बाबू(साहब) ने अपनी निगाहें उसके चेहरे पर टिका दी थी। उसके पहनावा और रहन-सहन का भी निरीक्षण कर रहे थे। वह उसकी सच्चाई से अवगत होना चाहते थे।
उसकी रामकहानी सुनने के बाद धनंजय बाबू ने कहा,” ठीक है!… मुझसे मेरे निवास पर शाम में साढ़े पांँच बजे मिलो…”
“ठीक है सर!”कहते हुए वह प्रणाम करके वहांँ से बाहर निकल गई।
उसने घड़ी देखा, पांँच बज चुके थे। उसने फुर्ती से आइने में अपना चेहरा देखा। जहाँ-तहाँ जो थोड़ी-मोङी उसे कमी नजर आई, उसमें तेजी से सुधार किया फिर एक नजर अपनी माँ को देखा जो चारपाई पर नींद में सोई हुई थी। इसके पश्चात वह निकल पड़ी साहब के निवास की तरफ।
उसके निवास के पास पहुंँचते ही उसने दरवाजे पर दस्तक दी। दो-चार मिनटों के बाद ही दरवाजा खुल गया। सामने सामान्य लिबास में साहब ही खड़े थे। उनकी सादगी देखकर वह अचरज में पड़ गई।
उसने उनका अभिवादन किया।
“बिलकुल ठीक समय पर पहुंँच गई, तुम तो समय की पाबंद हो !”
पल-भर बाद ही उन्होंने उंँगली के इशारे से बताते हुए कहा” तुम डाइनिंग रूम में बैठो बेटी!… मैं पांँच मिनट में आया।”
‘बेटी’ शब्द सुनते ही उसे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। उसकी आंँखों के आगे जो भ्रम का कोहरा छाया हुआ था, वह यकायक छट गया था। उसे बेहद खुशी हुई थी।
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निवास में चारो ओर खामोशी छायी हुई थी। चतुर्दिक शांति ही शांति थी।
साहब गमलों में लगे हुए फूलों का निरीक्षण कर रहे थे बारी-बारी से सभी फूलों वाले गमलों के पास जाकर।
थोड़ी देर के बाद ही वह डाइनिंग रूम में बैठे हुए सपना के पास पहुंँचे यह कहते हुए कि यहाँ पहुंँचने में उसे कोई दिक्कत तो नहीं हुई।
“नहीं सर!”
“क्या नाम है तुम्हारा?”
“सपना।”
“बातें ऐसी है सपना!… यहांँ तो दफ्तर में एक पद भी खाली नहीं है, और फिलहाल कोई संभावना भी नहीं है।”
उनकी बातों से उसके चेहरे पर निराशा की पर्तें उभर आई।
कुछ पलों के बाद ही उन्होंने कहा, ” तुम्हारी दुखद दास्तान सुनकर मुझे काफी दुख हुआ, निराश मत हो, ईश्वर कठिनाइयों में अवश्य ही कोई न कोई रास्ता निकाल ही देता है। मैं यहाँ अपने पुत्र के साथ रहता हूँ, वह हाई स्कूल में पढ़ रहा है, अभी खेल के मैदान में गया हुआ है। मेरे यहांँ एक रसोइयां था, वह गांव गया सो लौटकर नहीं आया और उसे अब आने की उम्मीद भी नहीं है। तुम्हें मैं अपने यहाँ काम दे सकता हूँ। तुम मेरे किचन का काम संभाल लो, अगर इस काम के लिए तुम राजी हो तो तुम्हारी मुझ पर बड़ी मेहरबानी होगी…अच्छा ठहरो मैं अभी तुरंत आया”कहते हुए वे वहाँ से तुरंत निकल गए।
जब थोड़ी देर के बाद लौटे तो उनके हाथों में दो प्याली चाय थी।
” आपने मेरे जैसे तुच्छ आदमी के लिए क्यों कष्ट उठाया… बोलते तो मैं ही चाय बना देती।”
” ऐसा मत बोलो बेटी!… इस सृष्टि का कोई प्राणी तुच्छ नहीं है। और तुम तो नारी हो, नारियांँ इस समाज रूपी इमारत के पीलर्स हैं। अपने हों या पराये हों, किसी को भी तुच्छ समझना वास्तव में ईश्वर का अपमान करना है क्योंकि सभी का निर्माता वही है। “
उनकी बातों से सपना ने सहमति जताई, फिर दोनों चाय पीने लगे और बात-चीत भी आपस में करने लगे।
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उसी क्रम में उन्होंने कहा,” तुमको यहांँ पर डरने की बिलकुल जरूरत नहीं है, तुम यहाँ पर हर तरह से सुरक्षित हो, तुमको इतना वेतन देंगे, जिससे तुम्हारी आर्थिक समस्याओं का निदान हो जाएगा।… तो मैं क्या समझूंँ कल से आ रही हो काम पर, पैसे के लिए फिक्र मत करना। तुम्हें अपने काम का पूरा मेहनताना मिलेगा। और मुझसे अन्य सहयोग की भी उम्मीद रख सकती हो। “
कुछ पल तक वह खामोश रही, फिर उसने कहा,” हांँ अंकल!… मैं कल से निश्चित रूप से आऊंँगा”कहते-कहते उसने धनंजय बाबू का चरण-स्पर्श किया। फिर दरवाजे की ओर चल पड़ी।
उसके जाते-जाते उन्होंने उसे सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद देते हुए कहा,” किसी बात की चिन्ता मत करना बेटी!… तुम्हारी कठिनाइयों में हम हमेशा तुम्हारे साथ हैं।”
स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
मुकुन्द लाल
हजारीबाग(झारखंड)