वेदिका आज सुबह से ही अनमनी सी थी। एक द्वंद्व उसके अंतर्मन में निरन्तर चल रहा था। रात की घटना उसे जीवन के दो राहें पर ला खड़ा किया था। वह क्या करे और क्या ना करे उफ़ ! ये कैसी उलझन? जी चाहता था, कि बेटी के वाट्सअप चैट पर उसे खरी खोटी सुनाए, घर की इज्ज़त मटियामेट करने की ताजपोशी उसके नाम कर दे या उसके जन्म लेने को ही अपने जीवन का अभिशाप बताकर उसके कर्मों के लिए उसे जलील करे।
वह स्वयं को ही नहीं सम्भाल पा रही थी। भविष्य की संभावनाएं बवंडर बन उसके अंतर्मन को उद्वेलित कर रही थी। जिस बेटी के आने पर औरों के ताने के बीच उसके प्रति अपने खुशियों को वह रोक नहीं पाई थी। आज उसी बेटी ने उसके जीवन को झंझावात की ओर ढकेल दिया था। वह सोच नहीं पा रही थी कि, लोगों के प्रश्न चिन्ह भरे भावों के लिए कौन सा उत्तर तैयार करे ?
लेकिन दूसरे ही पल वह शांत हो गई। उसके अंतर्मन का उद्वेलन थम गया, उसका अंत:करण बीते वक्त के गलियारों में भटकने लगा । उसके सामने बचपन से लेकर वर्तमान की जीवन यात्रा एक चलचित्र की भांति परदर परत खुलने लगा था। होश संभालते ही माँ ने किस तरह पिता की इज्जत न जाने की बात कहकर, उसके नन्हें क़दमों में कुल के मर्यादा की बेड़ियां डाल दी थी।
आने-जाने से लेकर पढ़ने सोचने तक का दायरा निर्धारित कर दिया गया था। इन सभी प्रतिबंधों को ही वह जीवन का मूल्य मान सहर्ष स्वीकार कर ली थी। उसके जीवन के लगभग सभी निर्णय पिता जी द्वारा ही लिया जाता था। वह तो एक कठपुतली की भाँँती बस उसका अनुकरण करती थी। किशोरावस्था में कदम रखते ही पढ़ने के लिए काॅलेज निर्धारण में भी उसे बड़ों सलाह अनुसार चलने के लिए विवश होना पड़ा था।
काॅलेज में जाने से पहले परिवार की इज्जत मर्यादा की, समाज में पिता को बेटी का बाप होने का दंश न झेलना पड़े, कह कर अदृश्य जंजीरों में जकड़ दिया गया था। जिस कारण वह सिर्फ कठपुतली की भाँति परिवार के इशारों पर नाचती रही। जातिय प्रतिबंध ने मनोनुकूल विचारों वाले व्यक्तित्व से कभी दो-चार होने ही इजाजत नहीं ही दिया। सत्यकथाओं के प्रति आकर्षण के कारण
उसके भीतर लिखित कहानियों ने भी समाज का विकृत चेहरा ही, हमेशा उसके सामने उपस्थित किया था। जिस कारण अन्य से असुरक्षा का भय आशंका ने कहीं न कहीं समझौता स्वीकारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । युवावस्था के दहलीज पर कदम रखते ही वर चयन का अधिकार भी परंपरानुसार बड़ो के अनुभवों के हवाले कर दिया गया था।
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दलिले अनेकानेक दी गई, बड़ों का अनुभव, बेटी के प्रति सकारात्मक सोच आदि। जन्म से ही औरों के फैसले स्वीकारते हुए, वह अपने आप की क्षमता योग्यता को तिलांजली दे चुकी थी।
अंततः जिंदगी की बागडोर अंजान के हाथ में सौंप कर मायके के सभी शुभ चिंतक जब गंगा स्नान का पुण्य बटोर, बेटी के जन्म से उद्धार के सुकून का अनुभव कर रहे थें। तब परिवार की अक्षम समझी जाने वाली वेदिका के सामने ससुराल एक कर्म की चुनौतियों से भरा युद्धक्षेत्र की भाँति उसे ललकार रहा था। यहाँ उसके साथ कोई नहीं था।
उसे इन परिस्थियों से निकालने में सिर्फ और सिर्फ उसका स्वविवेक उसके साथ था। आज तक जिस विवेक का परिवार वालों ने कभी प्रयोग करने का अवसर ही नहीं दिया था। वह उसी के सहारे बडे़ ध्यान से ससुराल के परिवार को देख समझ रही थी। आवश्यकता अनुसार अपने विवेक का प्रयोग कर वह स्वयं को ससुराल वालों के अनुसार ढाल ली। आज उसकी सदस्यता परिवार में महत्वपूर्ण बन गयी थी।
पहले संतान के रूप में ऐश्वर्य का आगमन सास- ससुर के लिए वेदिका को और अधिक महत्वपूर्ण बना दिया था। ऐश्वर्य का लालन-पालन हाथों हाथ परिवार द्वारा किया गया । उसके पालन- पोषण के किसी जिम्मेदारी का उसे एहसास तक नहीं हुआ। चार साल का वक्त पंख लगाकर कब उड़ गया उसे पता तक नहीं चला। पाँचवें साल में एक नन्हीं जान ने फिर उसके कोख में दस्तक दिया । इस एहसास ने वेदिका को रोमांचित कर दिया।
सास- ससुर भी दूसरे पुत्र की अभिलाषा के ख्वाब बुनने लगे। नौ महीने बाद जब ऐश्वी का आगमन संसार में हुआ तो वेदिका के संसार का व्यवहार बदला हुआ नजर आया। सास अपनी देवरानी से बोल रही थीं -“हाँ, आ गई है। बाप का एकाउंट नोट से भर गया है न। तो खाली करने के लिए देवी जी का आगमन हो गया है।” वेदिका ऐसे विचार सुन कर व्यथित हो गई। उसे अपना बीता हुआ कल न जाने क्यों,
बेटी के आने वाले कल में दिखाई देने लगा। वह अपने माँ की तरह अपनी बेटी को दूसरों के हाथों की कठपुतली नहीं बनाना चाहती थी। अतः उसने स्वयं आत्मनिर्भर होने का निर्णय लिया। बेटी के लालन-पालन के साथ उसने प्राप्त ज्ञान का पुनराभ्यास किया। एक शिक्षिका के रूप में बेटी के साथ विद्यालय में शिक्षण कार्य हेतु नियुक्ती प्राप्त कर एक साए की भाँती हमेशा उसे प्रतिबंधों से सुरक्षित रखते हुए व्यक्तित्व विकास का पूर्ण अवसर देती रही।
आज बेटी के प्रेम प्रसंग ने उसे स्वयं के निर्णय पर पुनरावलोकन करने पर मजबूर कर दिया था। उसे लग रहा था कि वह गलत है या वह व्यवहार गलत था, जो उसके साथ किया गया था। वह क्या निर्णय ले समझ नहीं पा रही थी। अंततः जीवन भर समझौता करने वाले उसके मन ने फिर एक समझौता करने को सुझाया।
उसने बेटी से इस संबंध के बारे में स्पष्ट बात करने का निर्णय लिया। उसके बाद उसकी पहल से दोनों बच्चों के संबंध की जानकारी दोनों परिवारों को दी गई और आपसी बातचीत के बाद बच्चों की इच्छा और खुशी का सम्मान करते हुए, दोनों परिवारों ने आठ वर्ष बाद उनके प्रेम संबंध को परिणय-सूत्र के बंधन के रूप में स्वीकार कर लिया और उनके प्रेम को सम्मान और स्वीकृति प्रदान की।
– पूनम शर्मा, वाराणसी।