Moral Stories in Hindi : “ अरे! यह क्या शुभी तुमने चाय के साथ वो वाले नमकपारे नहीं दिए माँ ने अपने हाथों से बनाकर भेजे थे।”
“ इतने नमकीन तो है ना नाश्ते के बाउल में तभी आपको चैन नहीं, “भुनभुनाते हुवे वह नमक पारे लेने चली गयी।
और राहुल मुस्कुराता रहा।
कविता को शुभी का उठ कर जाना और राहुल का यूँ मुस्कुराते हुवे चाय पीना अच्छा नहीं लग रहा था।
“ लो अपनी माँ के बनाए नमकपारे । तुम भी ना बच्चों की तरह ज़िद पकड़ लेते हो राहुल! शुभी मुस्कुराते हुवे बोली सासू माँ को फ़ोन करके और बनवा लो नमकपारे, खतम होने को है और तुम्हें मेरे हाथों से बने पसंद नहीं आते।” कविता ने देखा नमकपारे लेने जाते समय भुनभुनाती शुभी एकदम नॉर्मल थी और सबके साथ आराम से सुबह की चाय की चुस्कियों का स्वाद ले रही थी।
उनकी मॉर्निंग टी-सभा समाप्त हो चुकी थी. शुभी खाली कप-प्लेट ट्रे में भरकर उठाई और किचन में चली गई।राहुल के लिए लंच तैयार करना था। शुभी खाना बनाने की तैयारी करने में जुट गई और कविता गेस्ट रूम में आकार नहाने की तैयारी करने लगी।
टिफिन लेकर राहुल ऑफिस चला गया तो शुभी भी नहाकर तरोताज़ा हो गई। कविता भी नहा चुकी, तब दोनों सखियों ने खाना खाया फिर दोनों बातें करने बैठ गई!
चार दिन हो गए थे उसे यहां आए हुए।वह परेशान थी और अपनी सहेली से बात करना चाहती थी, वह अपने और अपने पति अंकित के रिश्ते को लेकर ऊहापोह में थी और अपनी समस्या का हल चाहती थी। पर उसे समझ नहीं आ रहा था कि… कैसे और कहाँ से शुरूआत करे।
कविता और अंकित की शादी को डेढ़ साल हो गया था. दोनों के स्वभाव में बहुत अधिक भिन्नता थी।हर बात में चाहे वह फिल्म देखना हो, चाहे रेस्टोरेंट में खाना खाना हो. दोनों की पसंद एकदम अलग थी। ऐसा नहीं कि.. अंकित उससे प्यार नहीं करता था, वह दोनों एक-दूसरे से बहुत प्यार करते थे पर विचारों के मतभेद थे। अंकित को घर का खाना पसंद था क्योंकि वह इंटर के बाद से हॉस्टल में रहा फिर नौकरी भी घर से दूर लगी तो उसे मजबूरी में बाहर का ही खाना खाना पड़ता क्योंकि उसे अच्छा खाना बनाना नहीं आता था।
शादी हुई तो कविता खाना बहुत अच्छा बनाती थी। कभी देर शाम तक शॉपिंग या घूमने के बाद वह चाहती कि बाहर ही खाकर घर जाए, तो अंकित को घर पर ही खाना होता। थकी हुई कविता को घर आकर किचन में जूझना पड़ता जो उसे पसंद नहीं था। शादी के पहले देखे हुए तमाम रूमानी सपने जैसे विवाह के हवन कुंड में स्वाहा हो गए।कदम-कदम पर उसे समझौता करना पड़ता। कपड़े भी उसी की पसंद से पहनना पड़ते।हर बात में अंकित का दख़ल रहता। जैसे बाल खुले ही रखो , सूट-साड़ी नहीं मॉड ड्रेस पहनो, मात्र एक गुड़िया बन कर रह गयी हो जैसे।जीवन हंसी-ख़ुशी के साथ जीने की बजाय एक समझौता बनकर रह गया था!
दो-चार दिन घूमने-फिरने, फिल्म देखने में निकल गए। आज फ़ुर्सत मिली उन्हें एकांत में बैठकर बातें करने की।
“जब से आई है, तब से देख रही हूं, तेरा मन ख़ुश नहीं दिख रहा है कविता! क्या बात है सब ठीक तो है ना?” शुभी ने पूछा।
“पता नहीं शुभी! अंकित और मेरे स्वभाव की पटरी ही नहीं बैठ पा रही है. जीवन बस एक उबाऊ समझौता बनकर रह गया हो जैसे।मन करता है ऐसे बोझिल से रिश्ते को छोड़ ही क्यों न दूं.” कहते हुवे कविता की आंखें छलछला आईं।मन का गुबार बाहर निकलने लगा। शुभी ने उसे बिना टोके बोलने दिया। वह बोलती रही और शुभी चुपचाप सुनती रही। जब वह चुप हुई, तब शुभी ने एक गहरी सांस ली और बोली…
”जीवन में किस रिश्ते में समझौते नहीं होते कविता! जब हम पैदा होते हैं, तो माता-पिता को तब से लेकर हमें पढ़ा-लिखा कर सेटल कर देने तक और उसके बाद भी कितने समझौते करने पड़ते हैं और सिर्फ़ यही क्यों सभी रिश्तो में कहीं-न-कहीं समझौते के धागे ही जुड़े होते हैं। उन्हीं से रिश्ते बंधे रहते हैं।और यह समझौता नहीं समर्पण और प्यार होता है एक-दूसरे के प्रति।”
“लेकिन कब तक जीवन को मैं इन समझौतों पर अपनी इच्छा और सपनों की भेंट चढ़ाऊ ???क्या मैं अपनी मर्ज़ी से अपनी इच्छा से जीवन नहीं जी सकती?” कविता खीजकर बोली।
“क्यों समझौता किसे नहीं करना पड़ता? हमारे माता-पिता क्या अपनी मर्ज़ी का जीवन जीने के लिए हमें छोड़ देते हैं या अगर उन्होंने हमारी मर्ज़ी नहीं चलने दी, तो हम उन्हें छोड़ देते हैं? जब उन रिश्तों को हम उम्रभर हर क़ीमत पर निभाते हैं, तो पति-पत्नी के रिश्ते में समझौते से इंकार क्यों?” शुभी बोली।
थोड़ी देर दोनों ही चुप रही।फिर…..
शुभी ने प्यार से उसकी हथेली थपथपाई और बोली, “देख कविता! शादी का दूसरा नाम ही समझौता है। विवाह होते ही पति-पत्नी को आगे की जीवन यात्रा के लिए समझौता एक्सप्रेस में सवार होना पड़ता है और यह ट्रेन कई सुंदर आनंद से भरपूर तथा मनभावन सुखद स्टेशनों से होकर गुज़रती है, लेकिन हमारी ग़लती यह होती है कि हम उन सुखद स्टेशनों का आनंद लेने की बजाय समझौता एक्सप्रेस को ही रोते रह जाते है।यह मत समझ कि …समझौते सिर्फ़ पत्नी को ही करने पड़ते हैं। पति को भी बहुत सारी जगहों पर करने पड़ते हैं, तभी तो सामंजस्य बना रहता है।”
“लेकिन रिश्ते में कहीं तो मन मिलने ही चाहिए ना।हर बार सिर्फ़ समझौते करते रहने में तो रिश्ते का सारा आनंद, सारा चार्म खो जाता है और हर बार मैं ही क्यों?” कविता बोली।
“ऐसा तू सोचती है कविता। तूने ही बताया था ना कि कभी-क़भार अंकित को भी तेरा मन रखने की ख़ातिर , बाहर का खाना सख़्त नापसंद होने के वावजूद वह तेरी ख़ातिर होटल में खा लेता है।तेरी परेशानी पता है क्या है… तू सिर्फ़ अपनी मर्ज़ी देखती है उसकी नहीं।”
अपना जीवन दूसरे के साथ तालमेल बिठाकर ही जीना होगा. रेल की पटरियां जैसे हमेशा तालमेल बनाकर रखती हैं. यदि एक भी पटरी अपनी जगह से इंच भर भी हिल गई, तो ट्रेन पलट जाएगी, ठीक वैसा ही तालमेल जीवन के सफ़र में रखना पड़ता है, ताकि रिश्ते की ट्रेन आराम से सुरक्षित आगे बढ़ सके।”
और …तभी राहुल का फोन आ गया शाम को बाहर घूमने और फ़िल्म देखने का। शुभी उससे बातें कर रही थी, उनके बीच कुछ नोक-झोंक चल रही थी शायद। फ़िल्म और शुभी क्या पहने इस बारे में। आख़िर शुभी ने ‘अच्छा बाबा जैसा तुम कहो वही ठीक है’ कहकर फोन रख दिया और कविता को तैयार होने का कहकर ख़ुद भी अपने कमरे में चली गई।
ठीक समय पर राहुल भी आ गया और शुभी जब तैयार होकर आई, तो फ़िरोज़ी कलर के सूट में वह सच में बड़ी सुंदर लग रही थी। राहुल की आंखें भी प्रशंसा में चमक उठी।
“देखा यह कलर तुम पर कितना खिल रहा है और तुम वह डल ग्रे सूट पहनने को कह रही थी।”
जब तीनों थिएटर पहुंचे, तो एक बार फिर दोनों फिल्मों को लेकर उलझ गए। फिर राहुल की पसंदवाली फिल्म के थिएटर में ही बैठना पड़ा। कविता सोचने लगी कि यहां भी शुभी को ही समझौता करना पड़ा अपनी पसंद के साथ। फिल्म वास्तव में बहुत अच्छी थी, इसलिए जल्द ही उसके मन से यह बात निकल गई और वह फिल्म में खो गई। जब फिल्म ख़त्म हुई, तो बाहर दूसरे थिएटरवाले दर्शक उस फिल्म की ख़ूब बुराई कर रहे थे, जो शुभी देखना चाहती थी आपस में बात करते हुवे कह रहे थे कि …फिल्म बहुत ही बोर थी।
“अच्छा हुआ तुमने मेरी बात नहीं मानी, वरना हम भी ऐसे ही बोर हो जाते.” शुभी उन लोगों की बात सुनकर राहुल से बोली।
“डेढ़ घंटे इंटरनेट पर सर्वे किया था कि कौन-सी फिल्म वास्तव में अच्छी है। ऐसे ही आपको बोर करके आप की शाम थोड़े ही ख़राब होने देते मेमसाहब।”राहुल ने मुस्कुराकर कहा।
“देखा अक्सर ज़रा-ज़रा-सी बातों में समझौता करते हुए हम खीज जाते हैं, लेकिन देखा जाए, तो आख़िर में फ़ायदा हमारा ही होता है.” शुभी ने धीरे से कविता के कान में कहा।
अगले दिन कविता का मन एकदम हल्का और साफ़ हो गया, जैसे बारिश ख़त्म होने के बाद बादल छट गए हो और खिली-खिली सुनहरी धूप निकल आई हो।
और दो दिन और शुभी संग बिता वह वापस लौट आयी। अंकित उसे लेने स्टेशन आया था। वह बीमार और उदास लग रहा था, पूछने पर बोला कि उसे बुखार है।
“तो बता दिया होता , मैं कैब से आ जाती।”
“तुम्हें देख लिया, अब तुम आ गई ना, तो बुखार ठीक हो जाएगा।”अंकित मुस्कुराकर बोला।
कविता का दिल भर आया। घर आकर वह हाथ-मुंह धोकर आई, तो देखा अंकित बुखार में भी उसके लिए चाय बना रहा था। कविता की आंखें भर आईं।उसने अंकित की कमर में बांहें डाली और उसकी पीठ पर सिर रख दिया।पलटकर अंकित ने भी उसे बांहों में भर लिया।
संध्या सिन्हा
#रिश्तों के बीच कई बार छोटी-छोटी बातें बड़ा रूप ले लेती है
(GKK Fb)