वह फुटपाथ पर बैठ कर अखबार और कागज़ के लिफ़ाफ़े बेचता था। होगा कोई तेरह-चौदह साल का सहज सरल व्यवहार का बालक। जाने क्यों उधर से आते-जाते, अखबार लेते, मैं उससे लगाव महसूस करने लगा। शाम को कुछ देर उसके पास बैठ कर, खबरें पढ़ता और कभी-कभी बिना जरूरत के ही उससे लिफ़ाफ़े भी खरीद लाता। माँ आश्चर्य करती तो मैं चुप लगा जाता।
एक शाम मैंने वैज-बर्गर लिया तो उसके लिए भी लेता गया। उसने बहुत स्वाद से खाया और आँखों में आँसू भर आए।
“मिर्चें लग रही हैं क्या?” मैंने पूछा तो वह कुछ न बोला, बस इंकार में सिर हिला दिया। उसने पैसे देने चाहे तो मैंने प्यार से झिड़क दिया। उसकी आँखों में एक विशेष भाव था, जिसे मैंने सम्मान ही समझा।
ऐसे ही कई दिन गुजर गए और एक दिन वह दिखा नहीं तो मन में कुछ बेचैनी और व्याकुलता महसूस की। उसके पास ही बैठकर खिलौने बेचने वाले से उसके बारे में पूछा तो उसे कुछ पता न था, लेकिन उसने अरुण के घर का पता बता दिया, जो पास ही था।
मुझे घर जाने में देर हो रही थी, लेकिन मैं अपने कदमों को उसके घर की ओर उठने से रोक न सका। छोटा सा, एक कमरे का घर था। दरवाजा खुला था, फिर भी मैंने खटखटा दिया जिसे सुन कर एक स्त्री बाहर आई।
“जी कहिए!” वह एक नितांत अपरिचित को सामने देख कर हैरान और असहज थी।
“अरुण का घर यही है न?”
“जी, अरुण मेरा बेटा है, आप कौन हैं?”
“अरुण से मैं लगभग रोज ही मिलता हूँ, आज नहीं दिखा तो घर का पता खिलौने वाले से लेकर चला आया”।
“आप अंदर आइए न,” उसके कहने के ढंग से उसके शिक्षित होने का अहसास हुआ।
कमरे में अरुण बिस्तर पर पड़ा सो रहा था। प्लास्टिक की एकमात्र कुर्सी कोने में थी। अरुण की माँ उसके बिस्तर पर पैरों की ओर बैठी और मैं उस कुर्सी पर। फर्श पर कागज़ और लिफ़ाफ़े बनाने की लेई पड़े थे। घर के हालात पर वह शर्मिंदा हो रही थी।
मैंने अरुण का हाल-चाल पूछा तो पता चला वह कल से बीमार था। होम्योपैथी की दवा ली थी, किंतु कोई आराम नहीं आया। आज तो वह उठ ही नहीं पाया था। मैंने तुरंत अपने फैमिली डॉक्टर को फोन लगाया और उसकी माँ से बात कराई। उसने जो दवाएं बताईं मैंने ऑनलाइन आर्डर कर दीं। उसकी माँ मेरे पैर छूने लगीं जिसे बड़ी मुश्किल से रोका मैंने।
वह नम आँखों से मुझे बताने लगीं कि अरुण अक्सर मेरी बातें करता है—
“एक दिन आप उसके लिए बर्गर लाए थे न!”
“हाँ, तो?”
“अपने पापा के गुज़रने के बाद उसने कभी बर्गर नहीं खाया। वही अरुण के लिए लाते थे, उसे बहुत पसंद था, बर्गर!” उसकी माँ ने साड़ी के पल्लू से आँसू पौंछे।
उस दिन अरुण के बर्गर खाते हुए रोने का कारण जानकर मैं आश्चर्यचकित था।
अरुण की माँ के वैधव्य और दुर्दशा की कहानी सुन कर मुझे दुःख जरूर हुआ, लेकिन अरुण और उनके हौंसले की मैंने दिल से दाद दी। वह और अरुण खुद लिफ़ाफ़े बनाते थे। वह स्वयं दसवीं तक पढ़ी थीं और अरुण को खुद पढ़ाती थीं। अरुण ‘ओपन स्कूल’ से हाईस्कूल की परीक्षा भी देने वाला था। घोर निर्धनता में ऐसा जज़्बा! मुझे बहुत अच्छा महसूस हुआ कि मैं ऐसे खुद्दार परिवार के कुछ काम आया।
लेखक: डा. अशोकालरा