“सलोनी एक रिश्ता अपना सा” -अनीता चेची

आज मैंने गृह प्रवेश में अनेक मेहमानों को बुलाया। चारों और खुशी और आनंद का वातावरण, मै भी  फूली नहीं समा रही थी, तरह तरह के पकवान बनाए गए।

घर में हवन  रखा गया , एक मेहमान ऐसा भी था जो बिन बुलाए आया और घर  के दरवाजे के बाहर ही बैठा रहा। जो सभी को आते जाते देख रहा था । मैंने मेहमानों की आवभगत में व्यस्त होने के कारण उस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। शाम होने तक सभी मेहमान जा चुके थे परंतु बिन बुलाया मेहमान अभी भी दरवाजे के बाहर ही बैठा था। मोती सी दो आंखें, काला चमकदार रंग संतोष की गहरी भावना समझदारी से लबरेज नियत, उसके चेहरे से साफ झलक रही थी। मैंने एक कटोरे में दूध और रोटी उसके लिए वहाॅं  रख दी। उसके रंग को देखकर मेरे जेहन में एक ही नाम आया”सलोनी”

 भूख से व्याकुल सलोनी ने झट से दूध पीकर रोटी खा ली । मैंने कभी कुत्तों को ऐसे भोजन का इंतजार करते हुए नहीं देखा था। गांव में हम खाने से कुत्तों को भगाते रहते थे परंतु पहली बार  इतनी समझदारी सलोनी में दिखाई दी।अगले दिन  देखा सलोनी पार्क में एक सफेद कुत्ते के साथ बैठी है ।वह प्रतिदिन उस कुत्ते के साथ उसी जगह पर बैठी रहती ।  कमाल की बात है मैंने कभी किसी ओर कुत्ते के साथ उसे कभी नहीं देखा ।अब तो मेरी उत्सुकता सलोनी में  ओर ज्यादा बढ़ गई। मैं रोज उसे देखती, वह रोज शाम को उसी कुत्ते के पास बैठी रहती।कुछ दिन बाद उसने दो बच्चों को जन्म दिया। दोनों बिल्कुल उसके जैसे काला चमकदार रंग ,मोती सी आंखें उसकी इस हालत में मैंने उसके लिए दलिया बना कर खिलाना  शुरू कर दिया। उसके पिल्लों में से एक बेहद ही शांत और सीधा,जबकि दूसरा बड़ा ही चंचल और शरारती। उनके आचरण को देखकर  मैंने उनका नामकरण कर दिया रंगा, बिल्ला  

   ‘रंगा’  बेहद शरारती और ‘बिल्ला’ शांत , दोनों का  रंग रूप एक जैसा उनके स्वभाव के कारण ही  हम उनको पहचान पाते। धीरे-धीरे दोनों बड़े होने लगे।  रंगा इधर से उधर उछल कूद के कारण सलोनी को परेशान करता। एक दिन दिसंबर की घनी कोहरे वाली रात में सलोनी, मेरे घर के बाहर जोर-जोर से भौंकने  लगी,मेरी नींद एक दम खुल गई ,मैंने  पतिदेव को जगाया ।

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 और कहा, देखो’ , सलोनी भोंक रही है,  लगता है बाहर कोई चोर है।’

 उन्होंने कहा ,’चलो देखते हैं ‘।

हमने चारों तरफ देखा कोई भी नहीं था । सलोनी एक गड्ढे के पास बार-बार चक्कर काट कर फिर हमारे दरवाजे के पास आ जाती और भौंकने लगती।

 पतिदेव ने कहा ,’छोड़ो यह तो ऐसे ही भौंक रही है ,तुम सो जाओ, इस समय बाहर जाना   ठीक नहीं है’।

सलोनी के भौंकने में एक अजीब सी वेदना थी जो मुझे सोने नहीं दे रही थी।मुझे लग रहा था कोई  तो बात है जिसके कारण वह इतने चक्कर काट रही है  ।

पतिदेव की आज्ञा के बगैर बाहर जाने की  हिम्मत  भी नहीं हो रही थी। परंतु  मन नहीं माना  ।

 मैंने हिम्मत कर दोबारा पतिदेव से कहा, बाहर चल कर देखते हैं, वह इतनी परेशान क्यों है?

पतिदेव -‘तुम पागल हो क्या, यह भी कोई वक्त है बाहर जाने का? पीछे इतना बड़ा जंगल है, इस जंगल में रात को कहीं से कोई सांप,चीता आ जाएगा, चुपचाप सो जाओ’।

 परंत मुझे  सलोनी के भौंकने में एक गहरी वेदना सुनाई पड़ रही थी जिसके कारण, मैं सो नहीं पा रही थी। मैंने दरवाजा खोला और भागकर सलोनी के पास चली गई , पतिदेव भी मेरे पीछे पीछे आ गए।

 तुम नहीं मानोगी ,

मैंने कहा, मैं इसे  पीड़ा में 

 नहीं छोड़ सकती।’





 हम दोनों उस गड्ढे की तरफ चल दिए।,गड्ढा बहुत गहरा था। उसमें   रंगा   फंसा हुआ था। सलोनी की आंखों में एक अजीब सी वेदना  दिखाई दे रही थी जैसे  कह रही हो मेरे बच्चे को बचा लो, बार-बार प्रयासों के बाद भी हम रंगा को निकाल नहीं पा रहे थे।

पतिदेव बोले,’ अब चलो यहाॅं से ,यह अपने आप निकल कर बाहर आ जाएगा, पता नहीं किस झंझट में पड़ गई ,मुझे सुबह ऑफिस भी जाना है।

‘यह कहकर वे वहां से चल दिए परंतु मैं वहीं खड़ी रही।

 मैं रंगा को बचाना चाहती थी ।   बड़े प्रयासों के पश्चात हमने रंगा को गड्ढे से बाहर निकाल लिया  अगले दिन  वह  बीमार हो गया उसने खाना पीना छोड़ दिया ।

 वह ठंड में ठिठुर रहा था । मुझे अगले दिन स्कूल  जाना  था। 

स्कूल से आते ही  मैंने  बेटे से कहा, यह ठंड से  मर जाएगा, इसके लिए हम एक छोटा सा घर बनाते हैं।’

  बेटे ने पूरे दिन बैठकर उसके लिए छोटा सा घर बनाया। मैंने उसके के लिए एक ड्रेस तैयार कर दी। अब तो रंगा उस घर के भीतर रहने लगा ।दो दिन  उसने कुछ  नहीं खाया। उसे भूखा देखकर, मैं मन ही मन व्यथित होकर भगवान से उसके स्वस्थ होने की प्रार्थना करती।

धीरे-धीरे उसकी हालत में सुधार होने लगा। एक सप्ताह तक रंगा उस घर के भीतर रहा।  वह बहुत कमजोर हो गया। जो कभी एक जगह नहीं टिकता था वह पहली बार बीमारी की वजह से,सुस्त सा वह उस घर में बैठा रहता।  सलोनी बाहर बैठकर दूर से ही रंगा को देखती। जब मैं उसे रोटी डालती तो वह अपनी रोटी में से आधी रोटी रंगा के पास लेकर जाती और आधी बिल्ला के लिए ।

 मैंने पहली बार इस तरह की संवेदनाएं देखी । सलोनी अपने दोनों बच्चों का ध्यान रख रही थी वह बिल्ला के लिए आधी रोटी ले जाती और रंगा के स्वस्थ होने के इंतजार में दरवाजे के बाहर बैठी रहती। मेरे लिए यह एक नया अनुभव था। मैंने पहली बार ऐसे रिश्ते को महसूस किया था । अपना सा रिश्ता, धीरे-धीरे वह स्वस्थ हो गया और उसने फिर वही उछल कूद शुरू कर दी, कुलांचे मारता हुआ,  ऑंगन  , सड़क पर दौड़ता उसे बंधन पसंद नहीं था। परंतु फिर भी वह मुझे बहुत प्यारा था जब भी मैं बाहर सैर करने जाती वह मेरे पीछे पीछे चलता।   मेरा और उसका बिना बंधन का एक अनोखा अपना सा रिश्ता बन गया । आज भी सलोनी मेरे  पास इसी तरह से  निश्चित समय पर  भोजन कर कर  चली जाती है।

#अपने_तो_अपने_होते_हैं

अनीता चेची, मौलिक रचना,हरियाणा

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