सहारा – अंतरा

आज खिचड़ी का दिन है.. रमिया ने मिट्टी के चूल्हे पर खिचड़ी का पतीला चढ़ाया तो बरबस ही मन अतीत की गलियों में घूमने लगा।  बंसी को भी खिचड़ी बेहद पसंद थी । खिचड़ी के दिन तो जैसे उसकी मन मांगी मुराद पूरी हो जाती थी। भले ही रमिया के पास खाने को फांके थे लेकिन खिचड़ी के दिन वह मुट्ठी भर उड़द दाल का जुगाड़ जरूर कर लेती थी। बंसी खिचड़ी के साथ अचार और  दही खाकर ऐसा खुश होता था जैसे कोई पकवान खा रहा हो। धीरे-धीरे रमिया के चेहरे की मुस्कान गर्म आंसुओं से भीगने लगी और वह दर्दनाक मंजर उसकी आंखों में तैरने लगा जब गांव की एक छोटी सी लड़ाई की वजह से उसका 26 साल का बंसी अपनी जान से हाथ धो बैठा था। अभी तो वह कमाने वाला हुआ था… अब तो रमिया के भी आराम के दिन आये थे। सोचा था जिंदगी भर खटने के बाद बुढ़ापा चैन से गुजरेगा लेकिन बंसी की लाश देखकर रमिया पछाड़ मारकर रोती और बेहोश हो जाती। बंसी के दाह संस्कार के बाद भी रमिया थाने की सीढ़ियों पर ही न्याय की आस लगाए बैठी रही…

 “हियाँ कब तक बैठी रहियो…  घर काहे नहीं जाती?”

 “अब कौन है उहाँ..जेहिके खातिर घर जाई” रमिया ने बिना कोई प्रतिक्रिया दिए उस आवाज की ओर देखे बिना जवाब दिया ।

 “तो का पूरी जिंदगी हिये बैठिहो…  कछु खाती पीती भी नाहीं… ऐसे तो मर जहियो”  एक लरजती परेशान मर्दाना आवाज ने रमिया के दर्द को कचोट लिया।

 “जेके खातिर जियत रहीं ऊ तो चला गवा तो हमरे जिए का फायदा”  रमिया के चेहरे पर दर्द के साथ-साथ क्रोध भी फ़ैल गया।



 “अगर बुरा ना मानो तो हमरे घर चलो… गांव के बाहर झोपड़ा है हमार… अकेले कब तक चक्कर कटिहो थाना कचहरी के… ” शून्य में ताकती दो आंखों से आंसू छलक गए।

 तभी वर्तमान में झोपडी के बाहर से आते गायन से रमिया की तंद्रा टूटी..

“गरम गर्म खिचड़ी,गरम गर्म घिउ(ghee)

कहा ले बुढ़ेवा, जुड़ाय जाए ज्यू(jee)”

“ई लेओ तुम्हार दही और घी… खिचड़ी तैयार भई कि नहीं”  भोला के हास्य के साथ ही आवाज आते-आते रमिया के पास तक पहुंच गई थी।

 “आ गए बुढ़ऊ..खिचड़ी बस हुई ही समझो… हाथ धो लेओ और चटाई बिछाओ.. अबही लावत हैं।”

 रमिया खिचड़ी परसते हुए सोच रही थी कि अच्छा किया उसने जो भोला की बात मान ली और उसके घर चली आई। भोला ने मुकदमे की दौड़ भाग में रमिया की खूब मदद की और उस नाजुक वक्त में भोला ने रमिया की सच्चे दोस्त की तरह हिम्मत बंधाई वरना अकेली रमिया उन हालात में या तो पागल हो जाती है या तो हिम्मत हार जाती…

 खिचड़ी की थाली भोला के सामने पहुंची तो भोला ने भगवान को धन्यवाद दिया और मन ही मन सोचने लगा कि उसका इस दुनिया में कोई नहीं था.. रिक्शा चला कर अपना बुढ़ापा काट रहा था.. रमिया के घर आने से उसे कोई सहारा मिल गया। इस रिश्ते का कोई नाम तो नहीं है पर कुछ रिश्ते नाम के मोहताज नहीं होते।

 दोनों ने एक दूसरे की तरफ मुस्कुरा कर देखा और अपने सारे दुख भुलाकर खिचड़ी का आनंद लेने लगे और इस तरह अनजान रिश्ते से बंधे दो अजनबी बेसहारा अब एक दूसरे का सहारा बन गए थे।

मौलिक 

स्वरचित 

अंतरा

 

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