मेरा विवाह संभ्रांत परिवार में हुआ था और खेती-बाडी भी थी, विवाह के कुछ दिनों बाद जब सासूमां के साथ उनके गांव गई तो आदतन मुझे हर जगह डर लग जाता था पर नई होने के कारण किसी से कुछ कह न पाती।
एक दिन पति से पूछ ही लिया आपको डर नही लगता लाइट भी नहीं रहती और लालटेन या कुप्पी की रोशनी में मुझे तो समझ ही नहीं आता।
पति बोले डर सिर्फ मन का वहम होता है पर फिर भी इन्सान की फितरत है डरने की, आओ आज तुम्हें एक सच्ची घटना सुनाता हूँ-
अतीत कितना भी पुराना हो जेहन में रह ही जाता है और अगर वो अतीत खौफनाक हो तो याद आने पर एक बार को सिहरन भी लाजिमी है।
बात तो बहुत पुरानी है पर मैं आज भी याद करता हूँ तो भले ही सामने वाले को न दिखाऊँ पर खुद के भीतर डर से एक बार को सिहरन हो ही जाती है।
माँ अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी और मैं अपने नाना-नानी का इकलौता नाती इस नाते उनका सारा लाड़ दुलार मुझ पर ही बरसता, बचपन से ही ननिहाल में बहुत अच्छा लगता था, नानी के हाथों का स्वाद मन-मस्तिष्क में एक खुमार जैसा चढा रहता, मुझे जैसे ही दो-चार दिन की छुट्टी मिलती मै सीधा गांव भाग आता।
इस बार भी जैसे ही नौवीं के पेपर खत्म हुए बैगनुमा थैले में दो जोड़ी कपडे डाले और माँ के हाथों से बनी पूरी भाजी रख चल दिया स्टेशन और बैठ गया ट्रेन में, बाबा और चाचा रेलवे में थे तो टिकट की फिक्र भी न रहती।
ट्रेन में बैठ मंजिल की तरफ बढ़ चला एक ही ट्रेन जाती थी गांव तक जिसका नाम था स्यालदाह, अमूमन तो वह लेट न होती पर उस रोज कुछ ज्यादा ही लेट हो गई थी, खाना तो बीच में पडने वाले स्टेशन बरेली में खा लिया और उतर कर हैंडपम्प से पानी पिया, उस जमाने में बोतल बंद पानी नहीं मिलता था, खैर गाडी स्टेशन पर करीब 10 बजे रुकी उतरा तो घटाघुप्प अंधेरा लाइट के नाम पर एक लालटेन टंगी होती थी दो पल रूका हैंडपम्प से पानी पीने के लिए जैसे ही हैंडल चलाया स्टेशन मास्टर की आवाज आई कौन है शायद रात के अंधेरे से उनको भी घबराहट होगी।
मुझे देखते ही बोले अरे! इतनी रात को क्या अभी ट्रेन से उतरे? कहाँ जाओगे इतनी रात में?
मै पानी पीकर उनके पास आया और बोला काका बेझा जाऊँगा और उनकी आगे की बात बिना सुने बाहर आ गया इस तरह के कस्बे वाले स्टेशन पर सवारी आखिरी ट्रेन का इन्तजार कर चली जाती थी। तो सवारी का तो मतलब ही न था तो चल दिया सुनसान सड़क पर, पत्तों की खड़खड़ाहट, मेरे कदमों की आवाज और कुत्तों की आवाज के अतिरिक्त कुछ न था।
एक पल को सोचा क्या करूँ पर नाना ने इतना निडर बनाया था कि हिम्मत कर कदमों को आगे बढ़ा दिया स्टेशन से बेझा गांव करीब 9 किलोमीटर था जिसमें 4 किलोमीटर तो शहर था वह रास्ता पार करने में इतनी घबराहट नहीं हुई क्योंकि सड़कें भी थी और कहीं -कहीं रोशनी भी दिख रही थी जैसे ही गांव का मोड़ आया पीपल के पेड़ के पास रुका हाथ जोड़े और गांव की सीमा में प्रवेश कर गया अब मेरे कदम सरपट चाल में बदल गए थे, था तो मैं भी इंसान ना अंदर से थोड़ा डर लग रहा था पर मैं चला जा रहा था गांव से कुछ दूरी पहले एक बाबा की झोपड़ी थी जो नटवीर बाबा के नाम से जानी जाती थी उस तक पहुंचते ही मैंने महसूस किया मेरी दाईं साइड में कोई बरात चल रही है बैंड बाजे की आवाज भी आ रही थी और सर पर रखे हुंडे(बारात में ले जाने लाइट) भी दिखाई दे रहे थे पर इन्सान नही था एक पल को कलेजा मुंह को आने को हुआ ईश्वर का नाम लिया, उस वक्त अगर मुझे 33 करोड़ देवी देवता के नाम भी याद होते तो शायद मैं सब नाम ले लेता पर अपने गुरु जी की माला जपते हुए मैंने अपने कदमों को आहिस्ता -आहिस्ता बढ़ाना शुरू करा मेरे साथ साथ वो बरात भी चल रही थी मैंने अपने कदमों को और भी भी धीरे कर लिया मैंने गांव में सुन रखा था कि इस तरह के शहाबो की बरात अक्सर निकलती है पर उनसे घबराना नहीं चाहिए और कुछ भी बोलना नहीं चाहिए ना ही उनको पार करना चाहिए मैं चल रहा था अचानक से वह बरात मेरे दाएं साइड से बाईं साइड के लिए मुडी और सड़क पार करने लगी मैं शायद उनसे 10 कदम पीछे रहा हूंगा तो मैने अपने कदमों को और भी धीमे कर लिया ताकि मैं उनके बीच में ना जा सकूं।
तभी एक आवाज आई घबराओ नहीं बेटा हम से डरने की जरूरत नहीं है हम सबको पता है कि तुम बडे घर वाले (नानाजी के घर को बडा घर बोला जाता था)राजनारायण (नानाजी) के नाती हो इतना कहते कहते हुए मेरे सामने एक दोने में कुछ मिठाइयां रखी और बोले खा लो पर मैं शांत रहा जैसे ही वह बरात अंदर की तरफ गई मैंने अपने कदमों को सरपट चाल से बलिक लगभग दौड़ते हुए ही मैं अपने घर की तरफ बढ़ा दिये।
जैसे ही घर में पहुंचा मेरे चौकीदार नाना बोले अरे भइया! इतनी रात में घबराये काहे हो? मैंने बताया नाना शहाबो की बारात मिली वो बोले अच्छा कौनो बात नाहीं डरबे की जरूरत नाही है, पर मैं बहुत घबराया हुआ था सीधा नानाजी की गोद में जाकर लेट गया मेरी धड़कन बहुत तेज थी शायद उन्होंने महसूस कर ली थी बोले इतना मत परेशान हो वो किसी का नुकसान नहीं करते हैं तो वह थपकी देकर मुझे सांत्वना दे रहे थे पर ये तो मैं ही जानता था कि उस हालात से मैं कैसे निकल कर आया था।
पर सुबह मैंने अपनी आदत के अनुसार सबको खूब बढा चढा कर कहानी सुनाई।
हेमलता श्रीवास्तव
दिल्ली