” सुधा, मैं चलती हूं..… देर हो रही है …. ” कहते जानकी मंदिर में हो रहे सत्संग के बीच में हीं उठ कर जाने लगी।
” जानकी रूक तो… कहाँ चल दी इतनी जल्दी , अभी अभी तो तू आई थी! ” थोड़ी देर और रूक जा बस आरती होते ही प्रसाद लेकर चलते हैं। मैं भी चल पडूंगी तेरे साथ हीं।” जानकी की सहेली और पड़ोसन सुधा उसे रोकते हुए बोली।
” नहीं सुधा, मुझे घर जाना है। ससुर जी की चाय का वक्त हो गया है और सासु माँ को दवा भी देनी है ।”
” क्या जानकी तू भी….. सारा दिन सास- ससुर के पीछे- पीछे घूमती रहती है…… ससुराल वालों की चाहे जितनी भी सेवा कर लो वो तो कभी हमारी तारीफ करने से रहे….. । सारा जिंदगी इनकी सेवा- सत्कार में गुजार देंगे तो अपनी जिंदगी कब जीएंगे ? अपनी खुशी भी बहुत जरूरी है।
चल माना कि तूं किट्टी पार्टी में नहीं आती है लेकिन भगवान के सत्संग में तो थोड़ा टाइम रूक हीं सकती है ना ।” सुधा ने चिढ़कर कहा।
जानकी मुस्कुराते हुए बोली, ” सच कहा तुमने सुधा, चाहें किसी की कितनी भी सेवा करलो वो हमारी तारीफ नहीं करते… ठीक वैसे ही भगवान की भी चाहे जितनी भक्ति कर लो वो कभी हमसे आकर ये नहीं कहते कि तुमने हमारी इतनी पूजा- भक्ति की है । .. सुधा हमारे बुजुर्गों की सेवा करना भी भगवान की भक्ति से कम नहीं है…
यदि बूढ़े सास- ससुर घर में भूखे- प्यासे बैठे हों और हम भगवान के कीर्तन में लगे रहें तो ऐसी भक्ति तो भगवान को भी मंजूर नहीं होती …. ।
एक दिन उम्र का ये पड़ाव हमारी जीवन में भी आना है … कोई अपनी मर्जी से किसी पर निर्भर नहीं रहता.. लेकिन जब शरीर साथ नहीं देता उस वक्त हम अपनों का हीं सहारा ढूंढते हैं। हम बच्चों को इसी विश्वास के साथ बड़ा करते हैं कि आगे जाकर कभी जरूरत पड़े तो वो हमें संभाल लेंगे…
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आज मेरी सासु माँ के पैरों में इतनी शक्ति भी नहीं है कि वो खुद से उठकर नहा ले या रसोई में जाकर चाय भी बना ले । … ये सब जानते बूझते भी यदि मैं उन्हें सहारा नहीं दूंगी तो मेरे बच्चे मुझसे क्या सीखेंगे??”
जानकी की बातें सुनकर सुधा के चेहरे का रंग उड़ गया.. उसके घर में भी उसके ससुर जी बिस्तर पर पड़े शायद इस चीज का इंतजार कर रहे होंगे की कोई उनसे कुछ खाने- पीने की पूछ ले । क्योंकि दोपहर में दलिया देने के बाद उसने उनसे पानी के लिए भी नहीं पूछा था और सत्संग में जाने के लिए तैयार होने लगी थी।
सुधा के ससुर जी लकवा से ग्रस्त हो गए थे। वो घर के पीछे वाले कमरे में वो अपने बिस्तर पर पड़े रहते हैं क्योंकि उन्हें सबके सामने लाने में सुधा को शर्म आती है । हर रोज एक लड़का आकर उनकी साफ सफाई कर देता और सुधा सुबह शाम बस दो वक्त कुछ दलिया, खिचड़ी देकर अपनी जिम्मेदारी से इतिश्री कर लेती।
अपने कर्म याद आते हीं वो सुधा झेंपते हुए बोली, ” रूक जानकी मैं भी चलती हूं तेरे साथ । वो अचानक से कोई काम याद आ गया।”
मंदिर में हाथ जोड़कर जानकी और सुधा तेज कदमों से घर की ओर चल दी…..
आज सुधा भी सोच रही थी कि जानकी सही कह रही है … मैं आज जो व्यवहार अपने ससुर के साथ कर रही हूं है उससे मेरे बच्चों को क्या प्रेरणा मिल रही होगी?? मेरे बुढ़ापे में यदि मेरे बच्चों ने मेरे साथ यही व्यवहार किया तो क्या होगा?? यदि अपना बुढ़ापा संवारना है अभी से इसकी नींव रखनी होगी … । पहले हीं बहुत देर हो चुकी है अब मैं और देर नहीं करूंगी ….
लेखिका : सविता गोयल