ऋण – सीमा प्रियदर्शिनी सहाय  : Moral Stories in Hindi

आज अम्मा की पहली बरसी थी।अम्मा ने हम सबसे कहा था “मुझे कभी मरा हुआ मत समझना, मैं तुम्हारे आसपास ही रहूंगी। मेरी जिंदगी मेरे बच्चे हैं इसलिए मेरा जन्मदिन हमेशा मानते रहना।”

ऐसा संयोग हुआ कि जिस दिन अम्मा का जन्मदिन था उसी दिन उनकी मृत्यु भी हुई थी।

एकदम ठीक थीं अम्मा लेकिन होनी को कौन टाल सकता है, अचानक हृदय गति रुकने से उनकी मृत्यु हो गई।

देखते ही देखते एक साल पूरा हो गया था।

हम सभी भाई बहन  अम्मा के घर पर मौजूद थे उनका जन्मदिन और बरसी मनाने के लिए।

“जानकी, तुमने सब मेनू तैयार कर लिया है ना!”संजू भैया ने अचानक बोलकर मेरी तंद्रा तोड़ दिया 

“हां भैया मैंने सारा मेनू तैयार कर लिया है। अम्मा की पसंद के रजवाड़ी दाल, पकौड़े वाली कढ़ी, मूंग दाल का हलवा, खट्टे मीठे काबुली चने और कचौड़ियां।“

“ठीक है अब तुम सब जल्दी से तैयार हो जाओ। पंडित जी आने वाले ही होंगे।”

“जी भैया!”

चार साल पहले जब कोरोना महामारी आई थी तब वह हम सबको हिम्मत दिया करती थी “ठीक से रहना। हिम्मत से। ऐसे हिम्मत नहीं हारते हैं।”

और फिर न जाने क्या हुआ अचानक ही हृदय गति रुकने से…!

नहा कर अपना चेहरा आईने में देखते हुए मेरी आंखों में आंसू भर आए ।

चारों भाई बहनों में मेरा चेहरा बिल्कुल अलग था, मेरा चेहरा किसी से भी नहीं मिलता था।ना अम्मा ,ना बाबूजी से और ना खानदान की किसी सदस्य से ।

यह एक कटु सत्य था कि मैं अम्मा बाबूजी की अपनी बेटी नहीं थी।जब बाबूजी का ट्रांसफर सतना में हुआ था, उस समय मेरी अपनी सगी मां बाबूजी के घर में दाई का काम किया करती थी।

तब मैं छोटी थी, आठ दस वर्ष की। मां के साथ मैं भी अम्मा के घर जाया करती थी।

स्वभाव से पियक्कड़ मेरा बाबा मुझे किसी बेचने वाले के हाथ में बेचने जा रहा था। मेरी मां मुश्किल से बचाकर अम्मा के घर पर भागी भागी आ पहुंची थी।

“ मीनाक्षी मेम साहब, हमारी बेटी को बचा लो ।इसे हमेशा अपने पास रख लो। इससे दाई का काम करवा लेना। मगर इसे छोड़ना मत!”

खून से लथपथ मां को देखकर अम्मा बहुत घबरा गई थी।उन्होंने तुरंत ही पुलिस को खबर भी कर दिया था और अस्पताल फोन कर एंबुलेंस बुलवा लिया था।

बाबा सलाखों के पीछे चले गए थे लेकिन मेरी मां नहीं बच सकी।

अब मैं अनाथ थी लेकिन मीनाक्षी मेम साहब अब मेरी अम्मा बन गई थी। उन्होंने मुझे एक तरह से गोद ले लिया था।संजू भैया, दीप्ति दी, रजनी दीदी और सुधांशु के साथ कभी भी मुझे ऐसा नहीं लगा कि मैं उनकी अपनी सगी नहीं हूं।

शायद उन्हें याद भी ना हो कि मैं उनकी अपनी बिटिया नहीं हूं मगर मुझे याद था।

वह दृश्य मेरी आंखों के आगे चलचित्र की तरह दौड़ जाता है जब बाबा पीकर मां को कुल्हाड़ी से काटने के लिए आगे बढ़ा था और मां फौलाद की तरह खड़ी हो गई थी “नहीं मैं ऐसा नहीं होने दे सकती कभी भी! मेरे जीते-जी यह नहीं होगा कभी भी।”

गुस्से से बौखलाते हुए उस दरिंदे ने मां के ऊपर ताबड़तोड़ कुल्हाड़ी से वार किया। उसी हालत में मां ने मुझे अपने कलेजे में चिपकाकर भागती हुई मीनाक्षी आंटी के घर दौड़ी पहुंच गई थी।

उस समय बाबूजी भी घर पर नहीं थे, दौरे पर गए हुए थे। 

मेरी आंखों में आज भी खौफनाक दृश्य घूम कर  मुझे सहमा देते हैं ।

मां की मृत्यु के बाद अम्मा ने मुझे अपने आंचल की छांव में छुपा लिया था। जैसे सभी बच्चे पढ़े वैसे ही मेरी भी पढ़ाई हुई।दान दहेज देकर मेरी भी शादी करवाया।

 मैं यह नहीं कह सकती कि मां-बाप भगवान के ही रूप होते हैं क्योंकि मैं अपनी जिंदगी में अपने बाबा को देख चुकी हूं ।वह इंसान के रूप में एक राक्षस था। भगवान तो अम्मा बाबूजी के रूप में मुझे मिल गए थे।

जैसे ही हवन खत्म हुआ पंडित जी ने कहा “सभी बच्चे हवन में आहुति दे दो ताकि उनकी आत्मा को शांति मिले।”

अम्मा के नाम पर हवन की आहुति देते हुए मैं फूट-फूट कर रो पड़ी।

पंडित जी ने मुझे रोकते हुए कहा “ऐसे रोते नहीं बेटी उनकी आत्मा को कष्ट होगा।”

मगर मुझे पता था ना मेरी आंखें उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित कर रही थीं।

मुझे यह दिव्य रूप देकर अम्मा परमधाम को चलीं गईं थीं।

अगर वह नहीं होतीं तो आज मेरा क्या होता!आज जानकी कहां होती!

इस ऋण से उऋण होने का तो मैं सोच भी नहीं सकती।

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सीमा प्रियदर्शिनी सहाय 

# बड़ा दिल

पूर्णतः मौलिक और अप्रकाशित रचना बेटियां के साप्ताहिक विषय बड़ा दिल हेतु।

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