आश्चर्य हो रहा रेणुका को देखे अम्मा को , मजबूर हैं सोचने पर क्या ये वही रेणुका है जो वर्षों पहले चीखती चिल्लाती तड़पती थी।
आंसू तो जैसे कोर पर रखे हो कोई जरा सा बोल भर दे तो भरभरा पड़ते थे।
उन्हें अच्छे से याद है जब पहले पहल उसके दिल को चोट लगी तो वो कोई और नहीं रक्षाबंधन का था।
आपसी रिश्तों में खटास आने के कारण वो राखी बांधने नहीं जा पाई थी और दिन भर भाई का इंतजार करके थककर पलंग पर राखी लिए सो गई थी।उसका चेहरा देखते नहीं बन रहा था।
कितना झट पटाई थी वो पर कुछ वश में न होने के कारण मन मसोस कर रह गई थी।
उसके बाद उसका हर त्योहार रो रोकर बीता , न कहीं का कोई समाचार मिलता और न इधर से कोई समाचार जाता।
ऐसा हो गया जैसे कुछ है ही नहीं जिंदगी में।धीरे धीरे समय बीतता गया।
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और कहते हैं ना कि वक्त हर ज़ख्म का मरहम है तो ठीक ही कहा है ।
वक्त के साथ धीरे धीरे उन अपनों की स्मृतियां धुंधलाने लगी जिनके बिना जीवन जीने की वो कल्पना भी नहीं कर सकती
भाई करती भी कैसे दिन के चार फोन जो होते थे कभी उन्हीं अपनों के साथ।
हालांकि कडुआहटो को याद कर मन पक्का नहीं किया जा सकता।
पर कुछ अकेजन ऐसे आए जिंदगी में जिसने उसे उन लोगों के साथ खुश रहने पर मजबूर कर दिया जिनकी वजह से तकरार हुई अपनों से।
करती भी क्या इन्हें छोड़कर कहीं जा भी तो नहीं सकती
और फिर जाए तो कहां भला ससुराल से पीड़ित स्त्री का कोई अपना होता है क्या ?
नहीं…….हां नहीं……।
ये बिल्कुल सच है कि वही घर जहां हम चौबीस साल गुजार कर आते हैं वो भी शादी के बाद तभी मां सम्मान देता है जब पति साथ हो।
वरना कुछ की नज़रों में हम खटकने लगते हैं वो कहते जरूर नहीं पर हाव भाव से लगता है।
है ना बात सही।
तो बस यही इनसे भी किया।
जब देखा सब खुश मस्त और व्यस्त हैं तो इसने भी खुद को बदल दिया ऐसे जैसे इसकी जिंदगी में उन सबका कोई महत्व ही नहीं है।
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और खुश रहने लगी।
अब इसे देखकर नहीं लगता कि ये वही हैं जो कभी हमेशा मुर्झाई मुर्झाई सी रहती थी।
एक दिन अम्मा से रहा न गया तो बुलाकर उससे पूछ ही लिया क्या बेटा मेल मिलाप हो गया क्या? आजकल बड़ा चहकती रहती हो ।
तो वो बोली नही अम्मा ऐसा कुछ नहीं हुआ।
बस हमने वक्त के साथ जीना सीख लिया। अपनों के तिरस्कार ने जिनसे हमारी मान मर्यादा समाज में है अपनी छोटी सी दुनिया पति बच्चों में रमना सीख लिया।
स्वरचित
कंचन श्रीवास्तव
बहुत अच्छी कहानी है। हार्दिक शुभकामनाएं एवं अभिनंदन।