रायपुर वाली भौजी – सुबोध चतुर्वेदी  : Moral Stories in Hindi

सुबह अचानक भाई का फोन  आया ,चाय का प्याला हाथ में लिये मैंने रिसीवर कान से लगाया ,दूसरी ओर से भाई का स्वर था—सुनो ,रात को रायपुर वाली नहीं रही .क्या,कैसे ? कैसे क्या कितनी बीमार चल रहीं थी एक तरह से जी गईं समझो “.मैंने स्वगत ही कहा—हां सचमुच जी गईं .रिसीवर रख कर मैं कुर्सी पर बैठ गई .बच्चे पास में सोये हुए थे अच्छा ही है इस समय मुझे एकांत की सचमुच जरूरत थी .मेरी विचारधारा एक बिंदु पर  आकर ठहर गई-जी गईं “ क्या सचमुच वे इतने वर्षों से जीवित थीं ?खाते-पीते चलते फिरते सांस लेते इंसान को यदि जीवित कहा जा सकता है तो वे सचमुच जीवित थीं ,पर किसके लिये ?एक निरर्थक जिंदगी,जहां   उम्मीद की कोई किरण बाकी नहीं.सोचते-सोचते कब मेरी  अश्रुधारा बह निकली मुझे कुछ भान नहीं ,मैं भी उसके साथ बहने लगी.

                                                                   अपने होश संभालने से आजतक मैंने  उन्हैं दुख के सागर में डूबा ही पाया  आंसुओं से उनका चोली-दामन का साथ था. क्या घर-बाहर ,छोठे-बडे के लिये वे जगत प्रसिद्ध भौजी थीं किसी के घर कोई भी काम हो लोग उन्हैं निसंकोच बुला भेजते  आलस्य उन्हैं छू भी नहीं गया था जब दोपहर को सब सो जाते कभी वे सुंदरकांड का पाठ करती ,कभी बडियां तोडती ,कभी अचार  डालती मतलब यह वे हर मर्ज की दवा थी हुनर देनेवाले ने कोई कंजूसी नहीं की थी पर सूरत गढते समय  अवश्य कंजूसी दिखा गया था रंग गेहुंआ अवश्य था पर छोटी-छोटी आंखें बडे से चेहरे पर बडी सी नाक  दिखती थीं .बाल-विवाह हुआ था तब कोई समझ भी नहीं थी .भाई परदेश में रहकर कमाते थे  ,वे गांव में संयुक्त परिवार में रहती थीं .भाई कभी अपने साथ शहर नहीं ले गये ,जाहिर है शहर के तौरतरीके से वे बिल्कुल अनजान रहीं उन्हैं पत्नि का दर्जा भी नहीं मिला जिसकी वे हकदार थीं

                                                              .दिनभर वे स्वयं को काम-काज में उलझाये रखती, पर रात को जब सब्र का बाध टूट जाता ,उनकी दर्दभरी स्वर-लहरियां वातावरण में गूंजने लगती उनका कंठ-स्वर मधुर था गाने के साथ-साथ  आंसू निरंतर बहते जिन्हैं देख कर भी घर के बुजुर्ग  अनदेखा करते रहते .मेरी उम्र यह सब समझने लायक नहीं थी .कभी-कभी जिञासा को दबा नहीं पाती ,मां से पूछने पहुंच जाती, -मां.भौजी गाना गाते-गाते क्यों रोती है ,कही दर्द होता है ? मां झिडकी देती .”भागो यहां से ,बच्चों को सब जानना जरूरी नहीं है “ पर मानव स्वभाव ठहरा ,जितना छुपाया जाता उतना ही जानने का  आग्रह बढता जाता .भौजी से पूछते तो वे एक दीर्घ श्वास लेकर कहती –अब तुम क्या समझोगी ? हमारी फूटी तकदीर है फिर विषयांतर करती –अच्छा बिट्टो ससुराल जाओ तो हमें भी साथ ले चलना  अब यहां मन नही लगता

                                                          .मन ही मन मैंने निश्चय कर लिया था कि इस बार जब शहर से भाई  आयेंगे  मैं इनकी बातें छिप कर सुनूंगी इच्छा भी जल्दी पूरी हो गई  मैं पानी देने के बहाने गई ,दरवाजे के पीछे छिपकर उन दोनों के संवाद सुनने लगी .मैंने देखा भाई के हाथ मे एक कागज है ,भौजी से वे कह रहे है ,चुपचाप दस्तखत करो “वे रोती जा रही है और इंकार कर रही हैं .भाई अचानक गरज उठे हैं मैं घबराकर वहां से भाग आई ,सोचती रही एक दस्तखत ही तो करवा रहे हैं ,क्यों नहीं कर देती ? इससे ज्यादा कुछ समझ नहीं पाई .

                                             “अरे .भाई , आज चाय नहीं मिलेगी क्या ? पति की आवाज ने मुझे यादों के भंवर से धरातल पर ला पटका .मैं नि:शब्द उठी ,चाय बनाई  और इनके हाथ में पकडा दी मेरा रुआसा चेहरा देख कर ये चौंक गये .पूछने लगे—क्या बात है ? तबियत ठीक नहीं क्या ,कुछ परेशान दिख रही हो. सहानुभूति का स्वर सुनते ही मैं फूट-फ़ूट कर रोने लगी .मेरे सब्र का बांध टूट चुका था .हिचकियों के बीच मैंने वाकया बतलाया तो गंभीर स्वर कानों में आया .देखा जाये तो एक तरह से उनके हित में ही हुआ है ज्यादा उम्र पाकर ही कौन सा सुख पा लेतीं यह तटस्थता मुझे विचलित कर गई .मेरी शिकयती नजरें देख कर ये कहने लगे—तुम यह मत समझो,कि उनके जाने का मुझे दुख नहीं हुआ है, पर ठंडे दिमाग से सोचकर देखो ,तुम्हैं मेरी बात ठीक लगेगी कटु सत्य था पर ह्लदय इतनी सहजता से कैसे स्वीकार कर सकता था भरे ह्लदय से मैंने कहा—सच कहते हो ,वे मुक्त हो गई पर किससे? अपनी  उन सांसो से या उन करमों से जिसकी सजा वे  आजन्म भुगतती रहीं इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं कह पाई .मेरा पूरा दिन उनसे जुडी स्मृतियों में डूबते- उतराते बीता .हालांकि घर के सारे कार्य यंत्रवत चलते रहे ,पर मैं कहां मुक्त हो पाई ?

एक दिन मैंने पिताजी को मां से कहते सुना- अब हम जाकर बहू को शहर छोड  आयेंगे ,कब तक  अकेली यहां पडी रहेगी ? आखिर हमारा भी तो कुछ फर्ज बनता है.मां का दबा स्वर आया –जो रखने से उन्हौंने इंकार कर दिया तो ? पिताजी ने कोई जबाव नहीं दिया ,शायद उनके पास था भी नहीं. बाल-मंडली में मायूसी छा गई क्या भौजी सचमुच शहर चली जायेगी ? रात को कहानी कौन सुनायेगा एकदिन स्कूल से लौटकर देखा ,भौजी खुशी-खुशी  सामान बांध रही हैं ,प्रसन्नता रोम-रोम से छलकी पड रही है ,देख कर मैं रुआंसी हो गई ,तुम तो भौजी सचमुच जा रही हो  अब रात को कहानी कौन सुनायेगा ? मेरे सिर पर हल्की सी चपत लगाते बोली—अब बिट्टो तुम्हारी कहानी के पीछे हम अपनी जिंदगी तबाह कर लें क्या ? मैं उनका मुंह देखती रह गई ,हद हो गई ,हमें कहानी सुनाने से जिंदगी तबाह हो रही है तो जाये ,मैं मुंह फुलाकर वहां से चली आई

                                                           वे पिताजी के साथ शहर चली गईं.हम सब बच्चे रोते हुए उनके रिक्शे के पीछे कुछ दूर तक दौडे फिर पिताजी की डांट खाकर लौट आये हवा में एक चुप सी पसरी थी घर में एक उदासी का माहौल था घर के बडे दबे स्वर मे न जाने क्या बातें करते पर हम बच्चों को देख कर चुप हो जाते .दो-तीन दिन ही बीते थे ,हमें भौजी के बिछोह की आदत भी नहीं पडी थी कि छोटा भाई चिल्लाता घर में घुसा,–भौजीआ गई ,भौजी आ गईं,हम सब बबच्चों ने बाहर दौड लगा दी पर घर के बडे लोगों को जैसे सांप सूंघ गया .कोई अपनी जगह से हिला भी नहीं .भौजी घर में घूंघट डाले गर में घुसी ,बिना किसी की ओर देखे  अपनी कोठरी का दरवाजा बंद कर लिया .हम लोग तबतक दरवाजा पीटते रहे जबतक मां ने डांटकर भगा नहीं दिया .मां ने स्वगत कहा—रो लेने दो बेचारी को ,जी हल्का हो जायेगा ,तो अपने-आप बाहर आ जायेगी “ बडा अजीब सा लगा था .यदि वे रो रही हैं तो कोई उन्हैं चुप क्यों नही करा सकता ?

                                                  पिताजी  आंगन में सिर झुकाये खाटपर नि:शब्द बैठे थे .कुछ देर बाद छडी उठाकर बाहर निकल गये .बडो के बीच फिर फुसफुसाहट शुरू हो गयी थी हम लोग उजबक  से एक-दूसरे का मुंह ताक रहे थे हवा में तैरता एक वाक्य कानों में आया —बच्चा होता तो शायद बंधे रहते “ फिर सोचा बच्चे हम हैं तो फिर किस बच्चे की बात कर रहे हैं पर बात की तह में जाने की न उम्र थी न जरूरत .खेलने के लिये बाहर दौड लगा दी .बस एक तसल्ली हो गई थी आज रात छत पर लेटकर आसमान में तारे देखते हुए भौजी से परियों ,भूतों की कहानी सुनने को मिलेगी.

                              जब मैं बडी हुई ,कुछ-कुछ समझ में  आने लगा था .भाई अपने दूसरे संसार में व्यस्त थे  धीरे-धीरे उनका आना काफी कम हो गया था बस मनी आर्डर नियम से पिताजी के पास  अवश्य  आजाता था ,जिसमें से कुछ रुपये भौजी को दे दिये जाते .रसीद भी कोरी आती थी पर भौजी मुझसे चुपचाप वह रसीद देखने को मंगा लेती उसपर प्रेम से हाथ फेरती और वह सब पढने का प्रयास करती जो कभी लिखा ही नहीं गया था पर मन की  आखों से वे शायद पति का संदेश पढ लेती थीं  उनके चेहरे पर मुस्कान छा जाती ,मुझे भी देख कर अच्छा ही लगता .अचानक इनकी आवाज कानों में आई .—तुम कब जाना चाहोगी ? प्रोग्राम बनाकर बता देना ,पहले से  छुट्टी की व्यवस्था करनी होगी

                                               .मैं स्मृतिजगत से यथार्थ भूमि पर  आ गई घर वैसे ही अस्तव्यस्त पडा था एक अपराध-बोध ने घेर लिया अभी बच्चे सोकर उठेंगे ,नाश्ता  नहीं बना है महरी भी आती होगी अब तो स्मृति शेष हैं .मशीनी गति से काम में जुट गई दोपहर को थक कर बिस्तर पर लेटी तो लगा इस बार मायके जाना हर बार से कितना  अलग होगा कितना पहले  उत्साह रहता था और अब ?औरत की कितनी भी उम्र हो जाये पर मायके का नाम आते ही वह एक किशोरी बन जाती है परंतु भौजी  को पीहर से भाई लेने आते तो वह जाना नहीं चाहती थी .पिताजी दो-चार महिने के लिये भेजना चाहते पर चलते समय मां से चुपके से कह जातीं –हमें महिने भर में बुलालेना वहां हमें देख कर सबकी  आंखों में एक ही प्रश्न दिखता है .,जिसका जबाब हमारे पास नहीं है ,अब तो यही हमारी देहरी है मरते दम तक आपकी सेवा करेंगे :मां भी दुखी हो उठती –कैसी  अभागी है ,न जाने विधाता ने कैसी तकदीर लिख कर भेजी है पूरी उमर  किसका मुंह देख कर जियेगी ,हे . भगवान हमारे बाद इसका क्या होगा ? मां उनके भाई से कोई न कोई बहाना बना कर वापस पहुंचाने की कहती वे भी जानकर अनजान बन जाते और महिना बीतने से पहले वापस पहुंचा जाते ,वहां से वे मुरझाई कली की तरह लौटती ,कहती—हम से अपने मां०बाप का दुख नहीं देखा जाता  फिर जिंदगी  अपनी रफ्तार से चलने लगती वक्त किसी के लिये कहां रुकता है ?

                                             इंद्रियां शिथिल होने लगी  अब काम पहले जैसा नहीं कर पाती थी .बात-बात मे निर्रथकता का अहसास दिलाया जाने लगा ससुराल में जिनके सहारे जीवन काटने की सोच रहीं थी ,वे भी एक-एक कर विदा होते गये पराश्रित होकर बहुधा अपमानित होती रहीं ,जवानी में सबके कार्य किये  अब बुढापे में कौन मुफ्त की रोटी खिलाये .बूढी होने पर गाय को भी लोग घर से बाहर हकाल देते हैं .मेरे पास नियमित उनके पत्र  आते , आंसुओं से डूबे .मेरे घर  आने की अनुमति संस्कार नहीं देते थे ,बेटी के घर पानी भी नहीं पीते वे अभी भी उसी जमाने में जी रहीं थी पानी जब सिर से गुजर गया तो उन्होंने मायके में शरण लेना ही  उचित समझा .जब पत्र  आया तो मैं पढकर स्तब्ध रह गई .लिखा था—आज  अपना स्वाभिमान ताकपर रख कर भाई के साथ जा रहीं हूं ,विट्टो सोचा नहीं था जिंदगी में यह देखना भी बदा होगा ,बस तुमसे  ही उम्मीद है सम्पर्क बनाये रखना अब शायद ही कभी मिले.”कभी वहां के समाचार मिलें तो जरूर खबर देना.पत्र पढकर एकओर तो मन दुख में डूब गया दूसरी ओर मेरा सर्वांग जल उठा ,जिस व्यक्ति ने जिंदगी भर परवाह नहीं की ,उम्र के इस मोड पर पहुंचकर भी उन्हीं की चिंता सताये जा रही है यही नहीं बडी निष्ठा से करवा चौथ, हरतालिका तीज का व्रत भी विधि-विधान से रखती रही .पति की लम्बी उम्र की कामना  अक्सर उनके होठों पर होती मेरे तर्कों के तीर कभी उनकी आस्था को डिगा नही पाये .

                         अचानक मेरा ध्यान भाई की ओर चला गया ,इस समाचार की उनपर क्या प्रतिक्रिया हुई होगी ? विवाह के बाद कुछ समय तो उनके साथ बिताया ही होगा ,क्या वे यादें कहीं अपराध-बोध नहीं जगाती होंगी ?एक की जिंदगी बरबाद कर दूसरी दुनिया बसाने पर अंतरात्मा ने कभी तो कचोटा होगा ,अपराधों की स्वीकृति बेशक किसी के सामने नहीं कर पायें ,पर क्या वे स्वयं से नजरें मिला पायेंगे ? पता नहीं मै भी न जाने क्या अनाप-शनाप सोच रहीं हूं .कहते हैं आदमी पूर्वजन्म के कर्मों के फल भोगते हैं, हो सकता है भौजी ने पहले जन्म में किसी के साथ बुरा किया हो .मेरे हाथ उस अदृश्य के सामने जुड गये हैं ,मेरे होठ बुदबुदा रहे हैं – प्रभु यह जन्म तो जैसा तुमने दिया , था ,भोगा पर यदि अगला जन्म हो तो उनके आंचल में दो मुठ्ठी सुख के बीज अवश्य डाल देना ,हे ईश्वर उनकी आत्मा को शांति देना. साथ ही मुझे भी साहस देना ,मेरा ह्लदय भी इस बात को स्वीकार कर ले कि वे सचमुच मुक्त हो गई .

स्वरचित

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सुबोध चतुर्वेदी

ग्वालियर

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