राहुल सांकृत्यायन – जीवन परिचय -अनुज सारस्वत

महान लेखकों की कहानी मेरी जुबानी 

प्रथम लेखक-मेरे सबसे प्रिय राहुल जी भैया गांधी वाले राहुल नही सांकृत्यायन वाले वाले राहुल भैया यूपी वाले ।

तो जी कारवां शुरू करते हैं,कारवाओं के मसीहा राहुल सांकृत्यायन जी ने मेरे लिये तो एक चुंबक का कार्य किया ,सारी रचनाओ को मैं ऐसे चाट गया इनकी अपुन दीमक हो खैर मेरा बड़ा सौभाग्य है कि महान आत्माओं के बारे में कुछ लिखूं।

अब कैरेक्टर में आते हैं हम थोड़ी देर के लिये आप मान लीजिए हम राहुल जी हैं और अपनी कहानी सुना रहे (ज्यादा बड़ी बात हो गयी लेकिन झेल लो दोस्तों कोई  नही)

मैं केदारनाथ पाण्डे उर्फ राहुल सांकृत्यायन  पिता श्री गोवर्धन पाण्डे और अपनी प्रिय अम्मा श्री मती कुलवंती का लाडला उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ के पंदाह गाँव में नौ अप्रैल सन 1893 में जन्मा था ।

पूरे गाँव मे हल्ला कटा था साहब पाण्डे जी  के  लल्ला हुआ, सबसे बड़े जो थे हम,लल्ला का हल्ला कटना लाजमी था ।

इसके बाद हमारे तीन भाई और एक बहन और धरती पर अवतरित हुए। बचपन में ही नाना के यहाँ चले गये थे हम, 

“पता है क्यों ?”

क्योंकि हमारे नाना रामशरण पाठक जी सेना में बारह साल नौकरी करके आये थे और इतने बेहतरीन किस्से कहानी सुनाते जंग के उन जगहों के जहाँ पर वो रहे ,हमारा मन तो भैया जंग के किस्सों में कम जगहों की जानकारी के लिये ललायित रहता और नाना साहब को कुरेद कुरेद कर पूछते और उन जगह का नक्शा अपने मन मष्तिष्क पर छाप लेते ।

पाँच साल के हुए तो मदरसे में बैठा दिया गया उर्दू का बोलबाला जो था उस समय ।

नाना जी के साथ रहने के हमें बहुत लाभ हुए, उनके साथ दिल्ली, शिमला,नागपुर, हैदराबाद, अमरावती ,नासिक सहित कई शहर घूमें अरे घूमें क्या रट लिये नक्शे सहित दिलों दिमाग में ,क्योंकि घुमक्कड़ी के नशे का प्रथम चरण धीरे धीरे हमारी रक्तवाहिनियों में विचरण करने लगता था ,नींद भी उड़ा देता हमारी।हमारे फौजी नाना जी हर चीज को  विस्तार से बताते जिससे हमारे मष्तिष्क का और विस्तार होता गया।



बात करते हैं पढ़ाई कि जिस मदरसे में हम जाते थे वह झगड़ों की वजह से बंद हो गया क्योंकि राजनीति फिर शिक्षा पर भारी हो गयी, हमें दूसरे विद्यालय भेज दिया गया ,अब हम नौ साल के हो चुके थे और दर्जे (कक्षा) एक में पहुंच चुके थे,फिर भारत की सबसे काली रात का प्रारम्भ हुआ, देश में गाँव में हैजा भयंकर दानव बनकर फैला ,मेरी आँखो के सामने क्या बच्चे क्या बूढ़े एक एक करके काल के गाल में समाते गये ,मेरी प्यारी बहन को भी उस राक्षस ने नहीं छोड़ा।

फिर मुझे फूफा महादेव पंडित बछवल ले गये,उन्होंने ही मुझे संस्कृत व्याकरण की शिक्षा दी ,मैं मस्त मौला केवल एक महीने तक ही सीखा ,योगेश भैया(फुफेरे) भाई से इतनी घनिष्ठता हो गयी थी कि ,रात को छत पर टाट डाले दोनों भाई तब तक घंटो बातें करते जब तीन फूफा जी तीन बार लट्ठ ठोक कर डांटे नही।

इसी वर्ष मेरे जनेऊ संस्कार हुआ और सच बतायें हम जनेऊ से ज्यादा रेल में बैठने को उत्साहित थे क्योंकि भैया पहली बार हम रेल में बैठे थे और बनारस गये यह यात्रा मेरे जीवन का मील का पत्थर बनी थी।

 अब हम दर्जा तीन (कक्षा 3 ) में आ चुके थे ,गजब बड़ा बड़ा सा अनुभव हो रहा था ,फिर उर्दू की एक किताब में एक शेर पढ़ने को मिला जो जीवन का सार साबित हुआ ,वह शेर था 

“सैर कर दुनिया की गाफिल, जिंदगानी फिर कहाँ?



जिंदगानी गर कुछ रही तो ,नौजवानी फिर कहाँ?”

फिर एक दिन जी पक्का कर निकल पड़े घर से बाहर। जीवन अब नये नये खेल दिखाने लगा घुमक्कड़ी के कारण  नियमित शिक्षा ना कर पाये थे ,तो खुद ही वेद वेदांत  भारतीय संस्कृति की पुस्तकें पढ़ी और स्वाध्याय से ही अनेक भाषाओं पर  अच्छी पकड़ हो गयी थी।

मैनें पहली उडान वाराणसी तक

दूसरी उड़ान कलकत्ता तक

तीसरी उड़ान पुनः कलकत्ता तक 

में सब लिखा।

अब घुमक्कड़ी बचपन से ही हावी होती गयी और यौवन में तो विदेशों तक की दूरी तय करी और अपनी आँखो देखी को कलम में उतारा बडें अच्छे देश घूमने को मिले चाहें वो हिमालय, नेपाल  ,तिब्बत,लंका ,रूस,इंग्लैंड, यूरोप,जापान ,कोरिया,मंचूरिया ,ईरान  या चीन हो।

  इतना घूमने के छपरा चला गया था वहाँ भयंकर बाढ़ आयी हुयी थी ,मानव सेवा करने का प्रभु का इशारा था ।

उसके बाद सत्याग्रह में भाग लिया डंडे के साथ जेल की यात्रा मुफ्त की ,छह माह तक जेल में रहकर अपने घुमक्कड़ी के किस्से सुना सुना कर साथियों को बोर किया।

जेल से निकलने के बाद राजनीति में कूदने का विचार आया गांधी जी की भक्ति और देश का प्यार सब करा गया ,मंत्री भी बन गये फिर घुमक्कड़ी फितरत ने कहीं न ठहरने दीया फिर श्री लंका की ओर प्रस्थान किया अबकी बार मैं किसी को कुछ नही बताने वाला था और ना लिखने वाला उन्नीस मास तीन लंका की गोद में रहा वहीं से मैंने खुद का नामकरण किया केदारनाथ से राहुल सांकृत्यायन। 

फिर मैंने “मेरी जीवन यात्रा” लिखी जिसके छह भाग थे ।

चलिये कुछ और साहित्यिक कृतियाँ बता देता हूँ।

कहानी- वोल्गा से गंगा,बहुरंगी मधेपुरा

उपन्यास-भागो नही दुनिया को बदलो ,मधुर स्वप्न, राजस्थान निवास

यात्रा साहित्य-लंका,किन्नर देश की ओर,चीन में क्या देखा,मेरी लद्दाख यात्रा,मेरी तिब्बत यात्रा,रूस में पच्चीस मास 

 तो जी यह सब लिखते हुये,घूमते हुये  सन 1963 आ चुका था ,अब बस एक ही जगह घूमना रह गया था तो उसका भी  टिकट मिल गया,14 अप्रैल 1963 को मैं अखण्ड यात्रा पर निकल चुका था।

(राहुल जी को हिन्दी यात्रा का जनक माना जाता है,एक तुच्छ सा प्रयास मेरी कलम द्वारा राहुल सांकृत्यायन जी के लिये)

-अनुज सारस्वत की कलम से

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