Moral stories in hindi : अरे कब आई बिटिया…… बस कल ही आई हूं चाची ……आप कैसी हैं …? ठीक हूं बेटा …..
पर उनके ठीक हूं कहने में भी सब कुछ ठीक नहीं होने का पूरा आभास हो रहा था…..। चाची मायके की पड़ोसी थीं …जिन्हें हम रघुवर चाची कहते थे ….हमारे समय में अड़ोसी पड़ोसी बिल्कुल परिवार की तरह होते थे….. इसलिए मिलने की इच्छा, अपनापन, सुख-दुख बांटने में कोई हिचक नहीं होती थी …..पहचान स्वरूप हम सब चाची के आगे चाचा का नाम लगा दिया करते थे…। बातों का सिलसिला बढ़ाते हुए मैंने पूछा… तीनों भाभी ठीक है ना चाची और मयूरी कैसी है…..? कुछ देर की चुप्पी के बाद गहरी सांस लेते हुए चाची ने कहा ……हां वो सब तो ठीक है बेटा.. पर मैं ही शायद माँ नहीं बन पाई….. चाची का हाथ पकड़ते हुए मैंने पूछा…. अरे क्या बात है चाची आप परेशान लग रही हैं…..
बेटा… जब पहले पहले बड़ी बहू आई थी… तब मैं सास नहीं माँ थी …. फिर मझँली बहू आई तो मैं माँ से सास बन गई ….. और फिर छोटी बहू आने के बाद तो मैं सास से सौतेली सास बन गई…।
और मयूरी को तो भगवान भी अपने घर ले जाने से घबरा रहे हैं अब जानती तो हो बेटा एक जवान बेटी का बिस्तर में पड़े रहना….. यदि बड़ी बहू ना होती तो न जाने क्या होता… अब मुझसे भी मयूरी की देखभाल नहीं हो पाती .. मयूरी चलने फिरने में असमर्थ…पराश्रित..! मुझे अपनी चिंता नहीं है पर मेरे जाने के बाद मयूरी का क्या होगा…… चाची के आंखों में आंसू से उनकी चिंता और दुख साफ दिखाई दे रहा था…..!
अरे चाची जब आपके रहने पर भी बड़ी भाभी मयूरी की देखभाल करती हैं तो बाद में भी करेंगी.. आप चिंता मत कीजिए…. मैंने चाची को ढ़ाढ़स बंधाने की कोशिश की….। क्या है ना बेटा ….प्रांशु (बड़े बेटे) की ठेकेदारी ठीक से नहीं चल रही है तो उनकी माली हालत इतनी अच्छी नहीं है जबकि हिमांशु (मझँले) और आशु (छोटे) का बिजनेस अच्छा चल रहा है… तो इन दोनों का रुतबा या बोलें घमंड भी ज्यादा है….. यही सब देखकर मैं बड़ी बहू का दो चार पैसे से मदद कर देती हूँ …..बस यहीं से मुझ पर भेदभाव पक्षपात जैसे ना जाने कितने तोहमत और लांछन लगाए गए…… और बाकी दोनों बहुओं के लिए बुरी बनती गई ….सच बताऊँ बेटा …..दौलत ना बहुत बड़ी चीज है… अपने ही घर में अपने ही लोगों के प्रति व्यवहार बदल जाता है….।
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और जानती हो बेटा सबसे ज्यादा दुख तो इस बात का लगता है कि…. लोग भी सिर्फ मजबूरी और फायदे जैसे शब्दों का जामा पहनाकर बड़ी बहू के स्वभाव को आंकते हैं… बड़ी होने के बावजूद सुबह से उठकर घर का सारा काम निपटाने की कोशिश करती है… रिश्तेदारी निभाना हो.. सब की खातिरदारी करनी हो… उसी की जिम्मेदारी होती है …तो लोग सोचते हैं आर्थिक हालत कमजोर है इसलिए मजबूरी वश उसे ही ये सब करना पड़ता है …..अरे क्या उसके स्वभाव में सरलता सहजता व समर्पण भाव नहीं हो सकता…। बस इतनी ही तो बात हुई थी उस दिन रघुवर चाची से….
क्या …..? रघुवर चाची नहीं रही …? अब बड़ी बहू का क्या होगा..? मेरा मन भी दया चिंता सहानुभूति जैसे मिश्रित भाव से भर गया..। समय के साथ साथ वो भी धीरे-धीरे धूमिल होते गए ..।
लंबे अंतराल के बाद एक दिन मैंने मायके में फोन लगाकर भाभी से पूछा ……रघुवर चाची के घर का क्या हाल है…? तब भाभी ने बताया ….उनके घर बड़ी बहू की हालत सबसे अच्छी है …उनका बेटा बड़ा हो गया …व्यापार अच्छा चल रहा है और चाची ने प्रॉपर्टी में बेटों के साथ मयूरी को भी समान हकदार बनाया था …..मयूरी ने भी अपनी प्रॉपर्टी बड़ी बहू को लिख दिया….. जो वाकई में हकदार भी थी और कुछ ही दिनों में मयूरी का निधन भी हो गया..।
चलिए भाभी… मयूरी को भी मुक्ति मिल गई और बड़ी बहू को भी मयूरी की सेवा से मुक्ति मिल गई….. मैंने सिर्फ इतना ही तो कहा था……पर जवाब में भाभी ने बोला…
अरे नहीं …..बड़ी बहू मयूरी को याद कर अभी भी रोती है….. उनके आंखों से बहते आंसू… उनके प्यार समर्पण और निष्ठा के पुख्ता सबूत हैं ….सच में वो दिल से ही बहुत अच्छी है…।
शायद रघुवर चाची बड़ी बहू के साफ दिल…. पारिवारिक एकता .और समर्पण भाव को समझ चुकी थी ….और बड़ी बहू के बदले परिवेश को देख समाज भी समझ गया था कर्म का फल अवश्य मिलता है…।
( स्वरचित मौलिक एवं अप्रकाशित रचना)
श्रीमती संध्या त्रिपाठी
मौलिक/अप्रकाशित
#आँसू