पुनरावृत्ति  – डा उर्मिला सिन्हा

 घनी झाड़ियों ,ऊंचे पेड़ों से आच्छादित , शहर के कोलाहल से दूर निर्जर वन प्रांतर में बसा हुआ यह महिला महाविद्यालय मुझे अपने एकाकी जीवन जो कभी अभिशाप लगता था ; वरदान साबित हुई। यहां प्रकृति से सीधा साक्षात्कार मेरे रोम रोम में न‌ई स्फूर्ति भर देती है।

    चपरासी ने एक पूर्जा आगे बढ़ाया। मैं ने अभ्यास वश उसे एक ओर रख दिया। कार्य की अधिकता से मैं लस्त पस्त हो रही थी। हजारों तरह के काम।

 ”  चार बजे कार्यालय बंद होता है। इतनी सारी फाइलें हैं । क्या करूं, क्या छोड़ दूं? सभी तो जरूरी है।”

मैं बिजली की तेजी से फाइलें निपटाने लगी।

“मैडम, अभी –

अभी मैंने आपको एक पूर्जा दिया था।”

आवाज सुनकर मैं चौंकी,”हां क्या बात है?”

“एक सज्जन आपसे मिलना चाहते हैं…!”

“अब एक और मुसीबत…..!”

मैं झुंझला उठी।कल्ह सुबह बुलाओ।”

       दूसरी सुबह मैं बिल्कुल तरोताजा थी। उन्मुक्त, चुस्त फाइलें निपटाने के लिए तैयार।जब से मैं कालेज की प्रिंसिपल बनी हूं कार्य की अधिकता बढ़ गई है। हजारों समस्याएं । नाना प्रकार के लोगों से मिलना जुलना चाहिए।

 आज सुबह मैं देर से उठी। बड़े मन से तैयार हुई।फिरोजी मेरा प्रिय रंग है । बंगलोर से एक छात्रा लाई थी प्लेन फिरोजी साड़ी पर काला बार्डर उसे धारण किया। अकेलापन भी क्या चीज है, कभी कभी तो बड़ा खलता है और किसी वक्त राहत भी देता है।

 चपरासी अंदर आया।हाथ जोड़कर नमस्कार किया”मैडम कल्ह वाले सज्जन आए हैं।”

 “कौन से साहब आते हैं?”




 “वही जो कल्ह शाम में आते थे।”

  अनायास ही मुझे कल्ह की बात याद आ गई।”प्रथम ग्रासे मक्षिका:पाते।”लो हो गई शुरूआत आज मुलाकात से ही कुछ सोंच मैं ने अनुमति दे दी।

अगले ही पल ,”अंदर आ सकता हूं ?”

एक रौबीले पुरुष का प्रवेश। मैं इशारे से कुर्सी पर बैठने का संकेत देती हूं। मैं ने बातचीत के लिए अपना सिर उठाया। आगंतुक भी मेरी ओर उन्मुख हुए ।हम दोनों एक साथ ही चौंक गए।”तुम , आप अलका मुखर्जी?”

 वे आश्चर्य से चीख उठे।

मैंने स्वीकृति में सिर हिला दिया। पुराने परिचय की दिपदिपाती लौ हम दोनों के आंखों में एक साथ जल उठी।मगर  छीजें रिश्तों की कड़वाहट। यह वह पल था जब समय ठहर गया और हम दोनों की जुबान गूंगी हो गई।

   जैसे अचानक तूफान आ गया हो, भूचाल से धरती , आकाश एक हो गया हो।सारा उत्साह जो एक आगन्तुक से मिलने का था कपूर की भांति उड़ गया। हम-दोनों बिल्कुल चुप थे ।नि: शब्द।

   मैं पच्चीस साल पूर्व अतीत में पहुंच गई। कालेज छात्रावास में रहती थी।: पढ़ाई में मेधावी थी। छात्र वृत्ति भी मिलती थी। सुन्दर मैं बहुत हूं। कहते हैं मेरी मां भी बहुत सुंदर थी जो मेरे जन्म के पश्चात स्वर्ग सिधार गई थी। पिता ने दुसरी शादी कर ली। पिता का बहुत बड़ा कारोबार था। विमाता से प्यार की क्या उम्मीद करती। पिता ने छात्रावास में डाल दिया। मुझे खाने पहनने किसी भी तरह की कमी नहीं थी। मेरे पासबुक में हजारों रूपए थे। बिना मांगें ही मुझे सब-कुछ मिल जाता था।बस कमी थी तो सिर्फ एक चीज़ की ; वह था प्यार, अपनापन।

  छात्रावास के कठोर अनुशासन में रहने के बाद जब घर आ जाती तो विमाता की घूरती आंखों से मुझे बड़ा डर लगता। पिता कभी एक -दो बातें करते भी तो अकेले में। शायद दुसरी पत्नी से डरते थे। सौतेले भाई बहन मेरी जासूसी में रहते। जैसे,”दीदी , शापिंग से देर से लौटी।”

“…..

दीदी , सहेली के घर रोज जाती है ।”आदि—आदि।

  मैं इन बेमतलब के बातों पर ध्यान नहीं देती थी। फिर भी कहीं न कहीं मन को ठेस लगती। इतनी बड़ी दुनिया में मैं बिल्कुल अकेली हूं न कोई मेरा है न मैं किसी की।सोचते ही हाथ पैरों में झुरझुरी सी होने लगती। स्वाभाविक चंचलता जो इस उम्र में रहती है मेरे साथ नहीं था। मैं गम्भीर, निर्विकार, तटस्थ,हर्ष-विषाद से परे। मैं छुट्टी समाप्त होने का इंतजार करती। सत्य है, जहां स्नेह रत्ती भर भी नहीं मिले वहां दिल कैसे लगे।

  बी०ए०प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होना मेरे लिए आश्चर्य की बात नहीं थी। अब मैं पी०जी०, में आ गई थी यहां सही शिक्षा थी। अभी तक मैं घर बाहर बहुत कठोर अनुशासन में रहती आई थी । यहां थोड़ी स्वतंत्रता मिली तो लगा कि हवा में उड़ रही हूं। जैसे चाहो पढ़ो घूमों। विश्वविद्यालय भवन भी बड़ा ही आलीशान । पहाड़ियों से घिरा , शुद्ध वायु, शांत वातावरण । छात्र छात्राओं की सम्मिलित खिलखिलाहट अध्ययन अध्यापन की चर्चा,गरम चाय, काफी । राजनीति , फिल्म पर बहस।सच, जिंदगी का मजा आ गया। अभी तक मैं इन बातों से अनभिज्ञ थी।भिज्ञ होते ही जीवन का अर्थ ही बदल गया। जहां मैं पहले अपने आप पर बिल्कुल ध्यान नहीं देती थी वहीं अब सलीके से रहने लगी। कुछ छात्रों से भी मित्रता हो गई थी। पढ़ाई भी दिल लगाकर करती। मेरे लिए सोने के दिन थे और चांदी की रातें।

 “आप का पत्र मिला,उसी सिलसिले में आया हूं।”कहीं से डूबती हुई आवाज आई




यह आवाज किसी और की नहीं बल्कि सामने बैठे महाशय की है।”भला इनकी आवाज मैं कैसे भूल सकती हूं।’मैने अपने आप को संयत करने की कोशिश की। अब तक मैं संभल चुकी थी। मैं ने ध्यान से देखा ।गोरा रंग कुछ लाल पड़ गया था ।लम्बा कद , झुकने लगा है।तनी हुई भौंहें ढीली पड़ने लगी है । मूंछों में वह ताव नहीं है। चेहरा झूर्रियों से भरा हुआ है । बड़ी बड़ी आंखों में कुछ डर का भाव है , खौफ का या हठधर्मिता का।

“रति आपकी…!”

“जी , पोती है। मेरे बेटे रमेश की इकलौती बेटी….!”

 झन झना झन ….झन! हृदय के तार बज उठे रमेश के नाम से। वहीं कहीं टीस सी उठी। मैं मर्माहत हो उठी ।हे प्रभु मुझे किस दुविधा में डाल दिया। फिर भी मैंने अपने आप को कठोर बना लिया। मैं किसी भी हालत में कमजोर नहीं पडूंगी। आज विधाता ने मुझे बदला लेने का अवसर दिया है।उसे भला मैं हाथों से क्यों  जाने दूं। इतिहास अपने आप को दुसरा रहा था ।

“मैं रति को अपने छात्रावास में नहीं रख सकती …वह यहां के नियमों का पालन नहीं करतीं।”

  “”सामने वाला चुप।

मैं बोलती रही वे सुनते रहे सिर झुकाए। मैं सोंच रही थी अभी भभक उठेंगे।

“चूंकि यह लड़कियों का कालेज और छात्रावास है , यहां किसी को मनमानी नहीं करने दी जाएगी। आप नाम कटाकर अपने वार्ड को ले जा सकते हैं..”! मैंने बिल्कुल प्रिंसिपलाना अंदाज में कहा।

इसी बीच किसी ने रति को सूचना दे दी थी कि तुम्हारे दादा जी आये हैं और प्रिंसिपल मैडम के कमरे में बैठे हुए हैं।

   मैंने मेंज पर रखी घंटी बजाती। चपरासी उपस्थित हुआ,”रति बी०ए०फाईनल को यहां भेजो…”

 एक मिनट के अंतराल पर महीन सी आवाज आई,”में आई कमिंग मैडम!”

 “यस,कम इन …”मेरा चेहरा सख्त हो गया।

सकुचाई, भयभीत रति सामने आई। दादा जी का पैर उसने आंखों से ही छुआ। ओह! कैसी तड़प थी उन आंखों में। रति के दादा जी जो कभी अपनी कठोरता के लिए प्रसिद्ध थे आज अपनी पोती को ऐसे निहार रहे थे जैसे वह छोटी सी बेगुनाह भोली बच्ची हो।

मैंने एक चुभती नजर रति पर डाला। गजब की प्यारी लग रही है यह लड़की। बिल्कुल अपने पिता की हमशक्ल है। वैसी ही बड़ी बड़ी आंखें, तीखी नासिका, घुंघराले बाल,गोरा चम्प‌ई रंग। अभी तक जिस बात को मैं समझ नहीं सकी थी एक पल में समझ गई;रति मुझे जानी पहचानी सी क्यों लगती है।जिसकी अवांछनीय हरकत ने मेरा रक्तचाप बढ़ा दिया था वह मेरे रमेश की बेटी है। अगर मेरा विवाह इस खुदगर्ज बाप ने अपने बेटे से कर दी होती तो मैं भी रति के उम्र की बेटी की मां होती। अनायास ही मैं भावविह्वल हो उठी। ऐसा लगने लगा कि मैं भवंर में फंस गई हूं। एक ओर रमेश और उसके तानाशाह पिता से प्रतिशोध लेने की प्रबल इच्छा और दूसरी तरफ अपने प्रेमी की प्रतिमूर्ति उसकी बेटी को हृदय से लगा लेने की चाहत।अचानक रति उसके पिता , दादा के चेहरे आपस में गड्ड-मड्ड होने लगे। मुझे चक्कर आ गया।

जब मुझे होश आया तो शाम ढल चुकी थी। सिर दर्द से फटा जा रहा था। दोनों हाथों ‌से सिर थाम मैं चिल्ला उठी,”पानी, पानी!”

“अब तबियत कैसी है, बेटी…?”

 मधुर आवाज आई। यह स्वर मेरे पिता जी की है,मगर मेरे पिता जी तो इस दुनिया में हैं ही नहीं। मैं घबड़ाकर उठ बैठी। रति मेरा सिर सहला रही थी और उसके दादा जी वहीं बैठे हुए थे। मुझे कितना सुख मिल रहा था मैं वर्णन नहीं कर सकती। मेरे दोनों आंखों से अविरल अश्रुधारा बह निकली।




“बेटी तुम बेहोश हो गई थी, तुम्हें कुछ नहीं हुआ बस मानसिक तनाव से होश खो बैठी थी। डॉक्टर ने तुम्हें आराम करने के लिए कहा है।जब तक तुम्हारी तबियत ठीक नहीं हो जाती मैं रति के साथ तुम्हारे पास ही रहूंगा।’मैं उनकी पूरी बात सुनने के पूर्व ही अतीत के पन्नों में खो गई।एम०ए०में मेरे सहपाठी थे रमेश। हम-दोनों का एक ही विषय था–राजनीतिशास्त्र । हम-दोनों आपस में मिलते अनेक विषयों पर चर्चा करते।कब यह बहस और चर्चा पारिवारिक से व्यक्तिगत बातों में बदल गया हमें पता ही नहीं चला।हम एक-दूसरे के बारे में बहुत सी बातें जान समझ गये__कि मैं अमीर बाप और सौतेली मां की उपेक्षिता बेटी हूं। स्नेह और प्यार की भूखी हूं। इस संसार में मैं नितांत अकेली हूं। मैं रमेश की निगाहों में अपनापन पाती हूं। मैं उनकी बाहों में अपने को महफूज पाती हूं–जैसे डूबते हुए को तिनके का सहारा मिल गया हो वह भी शक्ति शाली।

रमेश के बारे में मैं भी बहुत कुछ जान गई हूं –वे अमीर  , सख्त मिजाज पुराने विचारों के पिता के इकलौते पुत्र हैं।मातृविहीन बेटे पर पिता जान छिड़कते हैं लेकिन अनुशासन के कठोर बंधन में भी जकड़े हुए हैं।अपनी बात मनवाना उन्हें आता है फिर भी हमें एक-दूसरे पर विश्वास था।

 फाइनल परीक्षा समाप्त हुई। पर्चे अच्छे ग‌ए थे हम-दोनों बहुत खुश थे।मगर एक दूसरे से अलग होने का ग़म भी कुछ कम नहीं था।हम एक-दूसरे को ढाढस बंधाते, समझाते, रोते और फिर मुस्कुरा उठते।

 एक दूजे से पत्राचार के लिए वादा किया। रमेश अपने पिता  से बात करेगा। फिर उनकी रजामंदी से हम विवाह के बंधन में बंध जाएंगे। मैं आकाश में उड़ने लगती।

वापस घर आने पर मैं पहले की तरह उदास और मायूस नहीं रहती । बल्कि मेरा चेहरा खुशी से दमकता रहता। विमाता और उनके बच्चों के तानों का बुरा न मानते हुए उनसे भी घुलने मिलने का प्रयास करती। अब मुझे इनके साथ रहना ही कितने दिन है। यही सोच उनकी हर बात को चुटकी में उड़ा देती। दूसरे सप्ताह रमेश की चिट्ठी आई। स्नेह और प्यार से लवरेज। मुख्य बात यह कि उसने अभी तक अपने पिता से बात नहीं की।लिखता है –हिम्मत ही नहीं पड़ती।…बुजदिल कहीं का…!

  मैं ने पत्रोत्तर में अपने हृदय की सम्पूर्ण कोमलता भर दी।जो भी शेरों शायरी मुझे याद थे लिख डाला। बड़े ही प्यार से आग्रह भी —अपने पिता से शीघ्र बात करो।

शुभस्य शीघ्रम्।

इसके बाद रमेश की एक भी चिट्ठी मेरे पास नहीं आई। मैं प्रत्येक सप्ताह नियम पूर्वक पत्र अवश्य लिखती। उत्तर न पाकर मेरा निश्छल हृदय नाना प्रकार के आशंकाओं से भर उठता।

 एक दिन गुलाबी लिफाफे में शादी का कार्ड और साथ में मेरे लिए दो पंक्तियां___वह गुलाबी लिफाफा नहीं  था बल्कि मेरी दुनिया उजाड़ने का संदेश था।

 “रमेश वेड्स कनु “!

दो पंक्तियां मेरे लिए ,”अपना घर बसा लेना। आशा है मुझे माफ करोगी।”

  मैं किंकर्तव्यविमूढ़ ।रोऊं मातम मनाउ किसके लिए । तो र‌ईस बाप का बेटा भी बड़ा खुदगर्ज और चालबाज निकला। कितने आसानी से लिख भेजा _”_मैं तुम्हें आजाद करता हूं…।”

 अरे, तुम मुझे क्या आजाद करोगे ।मैं थूकती हूं तुम पर और तुम्हारी बुद्धि पर। मेरे स्वाभिमान पर कुठाराघात हुआ था।

क्रोध और अपमान से मैं कांप उठी। यह कैसा प्यार का नाटक था ? पहले ही पिता की इजाजत ले लेनी थी …! यह तो अच्छा हुआ कि इस सम्बन्ध में कुछ बताया नहीं वरना घर वालों के व्यंग्य वाणों से मेरा जीना दुश्वार हो जाता। मेरे हृदय में कैसा उथल-पुथल मचा हुआ था यह सिवा मेरे और दैव के जानने वाला कोई नहीं था। इसी बीच परीक्षा फल निकला। हम-दोनों को प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था।

मैंने अपने प्रिंसिपल से सम्पर्क किया,”मैडम मैं वहां पढ़ाना चाहती हूं…!”

जगह ख़ाली थी मुझे आसानी से नौकरी मिल गई। पिता जी मेरे लिए वर ढूंढने लगे,”बेटी , मैं तुम्हारा विवाह करना चाहता हूं।”

“जी…”; मैं ने स्वीकृति में सिर हिला दिया।

 किंतु विधना के कछु और…! दिल का दौरा पड़ने से पिता जी का देहांत हो गया।

सौतेली मां ने सारी जमा-पूंजी अपने हाथों में रखा। मैं उनकी आंखों से दूर रहूं यही तो वे चाहती थी, ताकि जमीन जायदाद में मेरा हिस्सा नहीं हो और उन्हें मेरे लिए वर ढूंढना नहीं पड़े।

  मैं ने अपना सारा ध्यान अध्ययन अध्यापन में लगा दिया। परन्तु सब-कुछ भूलना इतना आसान नहीं था मैं रात रात भर रोती।

 धीरे धीरे मैं ने अपने आप को परिस्थिति के हवाले कर दिया। मेरी ख्याति एक अनुशासन प्रिय शिक्षिका के रूप में होने लगी।

  एक दिन एक समारोह में मेरी मुलाकात रमेश की मुंहबोली बहन से हो गई। मुझे अविवाहित देख उसे आश्चर्य हुआ “, रमेश भाई की शादी चाचा जी ने अतिसुंदरी से कर दी।दहेज भी खूब लाई। भाई की एक न चली। तुम्हारा नाम सुनते ही वे भड़क उठे, कहने लगे जो लड़कियां विवाह पूर्व इतना स्वच्छंद रहतीं हैं ,अपना रिश्ता स्वयं तय करती हैं वे कभी भी शरीफ खानदान की बहू बनने योग्य नहीं होती।”

“उस लड़की को मैं बहू बना ही नहीं सकता जो अमीर घर के लड़कों को अपने जाल में फंसाने का घिनौना षड्यंत्र रचती हैं।”

मैं तिलमिला उठी। मैं सब-कुछ बर्दाश्त कर सकती थी लेकिन अपने आचरण पर लगाये तोहमत को नहीं। मैं किसे क्या कहती ,उस घड़ी को कोसती जब मेरा परिचय रमेश से हुआ था। हमारे पावन‌ रिश्ते की व्याख्या वे इन शब्दों में करेंगे। ऐसा कभी सोचा नहीं था। शायद यही वजह है कि बढ़ती उम्र के साथ मैं युवा लड़कियों के तरफ से ज्यादा सशंकित रहने लगी। कठोर भी। आज मैं प्रिंसिपल के पद पर हूं।

 छात्राएं मेरे नाम से कांपती। अभिभावक मेरे महाविद्यालय और छात्रावास में अपनी बेटियों को देकर निश्चिंत हो जाते।

अनुशासन और मैं एक-दूसरे के पर्यायवाची बन गए थे। किसी भी लड़की से उसका सहोदर भाई भी मिलने आता तो  उससे मैं हजारों प्रश्न पूछती। जब-तक उसके उत्तर से संतुष्ट नहीं हो जाती मिलने की अनुमति नहीं देती।

  कहीं पत्ता भी खड़कता तो मैं चौंकन्नी। हो उठती। मैं जो बरबाद हुई थी वहीं बर्बादी किसी और की न हो यही मेरे अवचेतन मन में रहता था। ईश्वर के अलावा मेरी मनःस्थिति कौन समझ सकता था।




   इसी बीच रति ने प्रथम वर्ष में दाखिला लिया। बड़ी ही प्यारी और सुंदर लड़की थी। मुझे उस रात नींद नहीं आ रही थी। पुरानी यादें रह-रह कर टीस रही थी। नींद की गोली के लिए खड़ी हुई ही थी कि पिछवाड़े स्कूटर रूकने की आवाज आई। धीरे से पिछला दरवाजा खुला और एक लड़की चौंकना इधर उधर देखती घुसी और लगभग दौड़ते हुए छात्रावास के कमरे में घुसी। घड़ी देखा रात्रि के साढ़े दस बजे थे। मुझे काटो तो खून नहीं । अपने आप को चिकोटी काटकर विश्वास दिलाया कि मैं नींद में नहीं हूं।

 “वह लड़की कौन थी? दरवाजा किसने खोला?”अनेकों सवाल मेरे सामने प्रश्नचिन्ह बन खड़े थे। किसी प्रकार रात बीती। सुबह दरबान और सेवकों को तलब किया। उनके अनुसार रति नामक छात्रा किताब खरीदने शहर ग‌ई थी किसी कारणवश देर हो ‌ग‌ई तो दूर का रिश्तेदार स्कूटर से हास्टल छोड़ गया। चूंकि मेरी तबियत खराब थी इसीलिए मुझे जगाया नहीं गया। मैंने रति से जबाव सवाल किया । उसने रटे रटाए तोंते की तरह उपर्युक्त। बात दुहरा दी।

 धीरे धीरे मैं इस घटना को भूल ग‌‌ई। एक शाम मैं कालेज के बाग में सैर कर रही थी। शीतल समीर तन मन को सुकून दे रहा था ।पंक्षी चहचहाते अपने घोंसले की ओर लौट रहे थे। अचानक झाड़ियों के पीछे से हंसने की आवाज आई। रति किसी लड़के के साथ घुल-मिल कर बातें कर रही थी।यह लड़का यहां कैसे? रति की हिम्मत । मैं स्तब्ध।।

 रति की नजर मेरे ऊपर पड़ी। जैसे काली नागिन देख ली हो। साक्षात यमदूत। उसनेे लड़के से कुछ कहा।जड़वत खड़ा लड़का धीरे धीरे बाहर जाने लगा। मैंने उसे रोककर उसकी लानत सलामत की और सुरक्षा गार्ड से बाहर निकालवा दिया। मैं गुस्से से थर-थर कांप रही थी। जिस पर मैं ने इतना भरोसा किया वह ऐसा निकलेगी। मैं ने सोचा नहीं था। मेरे अतिशय क्रोध के कारण या डर से दोनों अपनी सफाई में एक शब्द भी नहीं बोल पाये। लड़का अपमानित कर निकाला गया और लड़की रोती हुई अंदर भागी। दोनों के दुस्साहस पर मैं दंग रह ग‌ई।मैंने दूसरे ही दिन लड़की के घर अर्जेंट लेटर भिजवाया। फलस्वरूप अभिभावक के रूप में रमेश के पिता मेरे सामने बैठे हुए हैं और मुजरिम के रूप में रति मेरे सामने खड़ी है।

  मेरे दिल में चाहे जितनी भी शिकायत दोनों बाप-बेटे से रही हो इस वक्त सब कपूर की भांति उड़ गया। रति की झुकीं पलकें देख मुझे अपना अतीत याद आ गया। यह बदला लेने का समय नहीं है । मेरी तो आधी जिंदगी बीत ग‌ई। मैं इस बालिका का जीवन अपने कायर , धोखेबाज प्रेमी के प्रतिशोध में नष्ट होने नहीं दूंगी।

 हालांकि समय ने मेरी आपबीती की पुनरावृत्ति ही की थी।

“रति, वह लड़का कौन था? उसकी पूरी जानकारी दो।”मैंने सपाट शब्दों में कहा।

   रोते हुए रति ने पूरी बात बताई। लड़के को बुलाया गया।उसका नाम यश था। वह अच्छे परिवार का था , नौकरी भी लगने वाली थी। रति की सहेली का भाई था।: रति और यश दोनों एक-दूसरे को बेहद पसंद करते हैं। मैंने उसके अभिभावक को बुलाया और रति के दादा जी की सहमति से दोनों का विवाह तय करा दिया। मेरे हृदय से एक भारी बोझ उतर गया। रति और यश दोनों मेरे गुलाम हो गए। मेरा मन फूल की तरह हल्का हो गया।

आजतक जिस अपमान और प्रतिशोध की भावना से मेरा हृदय प्रज्वलित था वह बच्चों की खुशी की अग्नि से पिघल गया था।

 जाते-जाते रति के दादा जी रूआंसे हो गये।भर्राये गले से बोल उठी,”जीती रहो बिटिया, मैंने तो तुम्हारी जिन्दगी बरबाद कर दी किन्तु तुमने मेरा दामन खुशियों से भर दिया। मैं ने तुम्हें पहचानने में भूल की। रमेश की शादी मैंने उसकी मर्जी के खिलाफ जरूर कर दी परन्तु परिणाम सुखद नहीं रहा।वह कभी भी पत्नी और बेटी से जुड़ नहीं पाया। रति के जन्म के पश्चात उसकी मां ईश्वर को प्यारी हो गई। वह भी विदेश जा बैठा।”

“मैं किस मुंह से कहूं, शायद उसे तुम्हारा इंतज़ार आज भी है…!”

मैं क्या जवाब दूं! मेरी वाणी अवरुद्ध हो गई और पांव वापस कालेज की ओर मुड़ गये……!

   मेरा स्वाभिमान आडे़ आ गया।

सर्वाधिकार सुरक्षित मौलिक रचना–डा उर्मिला सिन्हा©®

रांची झारखंड

 

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