आज वर्षों बाद उसे अपने सामने देख मैं काफी अचंभित था…और मन प्रसन्नचित्त भी.. प्रसन्नचित्त इसलिए कि उसने वह मुकाम हासिल कर लिया था जिसकी उसे चाह थी….और अचंभित इसलिए कि आज वो जहाँ खड़ी थी उसकी मैने कभी कल्पना भी नहीं की थी..हालांकि आशांवित जरूर था कि वह आगे अच्छा करगी लेकिन इतनी जल्दी सोचा नहीं था.. बहुत कम समय में बहुत ऊँचे स्थान पर पहुँची थी वह.
शायद उसकी लगन और जुनून ही वजह रही होगी…वरना इतने कम समय में जिला कलेक्टर बन जाना आसान बात नहीं थी..खैर वज़ह जो भी रही हो मेरे लिए उसे यहाँ देखना एक सुखद अनुभूति थी..क्योंकि आज वो जिला कलेक्टर बनकर उसी कॉलेज के द्वारा आयोजित एलुमनाई मीटिंग (पूर्व छात्रों का पुनः मिलन ) में मुख्य अतिथि बनकर आई थी जहाँ उसे उसके प्रोफेसर हीन दृष्टिकोण से देखते थे….उसपर किसी भी प्रोफेसर को विश्वास या जरा अंदाजा भी नहीं था कि वह पढ लिखकर इतना आगे बढ सकती है…पर कहते हैं जहाँ चाह वहाँ राह…उसने अपनी मेहनत और लगन से वह कर दिखाया था जो उसने करना चाहा था..
कुछ पल को मैं मानों फ्लैश बैक में चला गया… मैं अपने बैच का सबसे तेज विद्यार्थी तो नहीं था…..पर पढ़ने में ठीक ठाक था और हमेशा अव्वल ही आता था..
लेकिन जाने क्यूँ सबसे पिछली बेंच पर बैठने की प्रवृत्ति मुझसे छोड़े नहीं छूटती थी…जो स्कूल से लेकर आगे कॉलेज तक बनी रही क्लास प्रोफेसर कितनी बार कहते या पूछते आगे क्यूँ नहीं बैठते…क्यूँ हमेशा पीछे बैठते हो…पढने में तो ठीक हो….फिर…??
मैं कह देता सर…ध्यान अच्छे से जाता है.. आप जो पढाते हैं ज्यादा अच्छे से समझ आता है..
हाँ यह बात अलग थी कि लेक्चर के दौरान प्रोफेसर द्वारा कुछ पूछे और मेरे जवाब देने पर क्लास के सभी लड़के लड़कियों को मेरी ओर पीछे मुखातिब होना पड़ता था..जिससे कभी कभी सबको गुस्सा भी आता था…
वहीं मेरे क्लास की एक शांत भोली सी लड़की सुगंधा भारद्वाज,जिसे सभी प्रोफेसर बात बात पर बिगड़ते रहते थे और वह सबकी डाँट सुन कर कई बार तो सुबक सुबक रोने भी लगती थी..
हालांकि पढने में मेरी तरह वह भी ठीक ठाक थी फिर भी जाने क्यूँ क्लास में प्रोफेसर के कुछ पूछे जाने पर जवाब नहीं दे पाती थी..
यह मेरा उसके प्रति खिंचाव था,उसके प्रति मन में उमड़ता प्रेम या कुछ और कह नहीं सकता ..हाँ इतना जानता था ..वह मुझे अच्छी लगती थी और उसे इस तरह क्लास में डाँट सुनता या उसे रोता देख मुझे अच्छा नहीं लगता था..
एक अजीब सी कशिश थी उसकी आँखों में.. उसकी बटन जैसी दो आँखें हर समय कुछ ढूँढती प्रतीत होती थी.. उसकी आँखें..क्या कहूँ शांत झील में दो मोती..
कहते हैं कभी न कभी हर इंसान की जिंदगी मे एक ऐसा शख्स जरूर आता या आती है जिसे देखते ही मन में उससे मिलने उससे बात करने की तीव्र इच्छा होती है..इंसान का मन करता है कि आगे बढकर उससे पूछे कि क्या हुआ कैसे हो..लेकिन इंसान इन दो शब्दों का बोझ चाहकर भी उठा नही पाता…या यूँ कहें कुछ कहने या पूछने की साहस तक नहीं कर पाता…उपर से वह इंसान कोई महिला या लड़की हो..जिसे आप मन ही मन पसंद करते हो..बिना जाने कि आपके प्रति उसके मन में क्या और कैसी धारना है…
मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही था…मैं चाहकर भी सुगंधा से कुछ कह या पूछ नहीं पाता था…दूसरी मुझे लगता था कि मेरे आगे पीछे क्लास के अन्य लड़के लड़कियों की झुँड लगी होने की वजह से वह मुझे नापसंद करती है शायद..
क्योंकि वह सबसे अलग और अकेले रहती थी, न किसी से कुछ बात करना न किसी से किसी तरह की टोका टाकी..बस क्लास में लेक्चर अटैंड करती और निकल जाती..
लेकिन एक दिन क्या मन किया कि उसे लॉन में अगले लेक्चर की प्रतीक्षा में बैठी देख हिम्मत कर उससे बात करने की कोशिश की…
डरते डरते उसके पास गया….और पूछा सुनो…अगर समय हो और बुरा न लगे तो कुछ बात करनी है..
उसका सीधा और सरल जवाब… जी मुझे नहीं करनी….
बस थोड़ी देर…..
कहा न नहीं करनी… फिर क्यूँ खामख्वाह की जिद्द कर रहें आप..
कहकर वहाँ से उठकर लाईब्रेरी की ओर चली गई..
मैं भी जाने क्या सोच उसके पीछे पीछे लाईब्रेरी तक पहुँच गया…
देखा कोने में बैठी किताब पढ रही है…. मैं किसी ढीठ की तरह उसके सामने वाले चेयर की ओर इशारा करते हुए बिना किसी फार्मेलिटी के उससे पूछा….
क्या मैं यहाँ थोड़ी देर बैठ सकता हूँ.. उसने कोई जवाब नहीं दिया… मैने दुबारा पूछा.. क्या मैं यहाँ बैठ सकता हूँ
इसबार उसका उत्तर “जी” था
मै चुपचाप चेयर खिसकाकर उसके सामने बैठ गया.
मन ही मन डर भी रहा था आज कहीं पीट न जाऊँ…सारी जमी जमाई इज्ज़त मिट्टी में मिल जाएगी..
पर शायद लाईब्रेरी में होने के कारण बैठने को जी कह दिया हो उसने …उसकी आँखों में डर साफ दिख रहा था..वह इधर उधर देख रही थी..कहीं कोई देख तो नहीं रहा..उसकी नज़रे किताब में ही गड़ी थी…
एक बात पूँछूँ..
पूछिए…
उसने नजरे झुकाए मानों औपचारिकता वस कहा…
तुम इतनी चुपचाप सी क्यूँ रहती हो..
बस यूँ ही….और लड़कियों की तरह बकबक की आदत नहीं
सो तो है….मैने कहा..
मैने हिम्मत कर पूछा….
क्लास में प्रोफेसर जो पढाते हैं वह समझ नहीं आता तो तुम दुबारा पूछती क्यूँ नहीं..नाहक डाँट सुननी पड़ती है..तुम्हें
उसने प्रश्न भरी नज़रों से मेरी ओर देखा…
पर कुछ कहा नहीं…
मैने फिर पूछा..
प्रोफेसर का पढाया समझ नहीं आता या कोई दिक्कत आती है …
आपको क्या..??? और क्यूँ पूछ रहें..???
उसने एकदम धीमे स्वर में कहा…
अगर कहो तो मैं कुछ मदद करूँ….
नहीं इसकी आवश्यकता नहीं…
उसका शांत स्वर में जवाब देना मुझे हैरान कर गया..
ठीक है….कोई बात नहीं…
मैने फिर पूछा…
क्या पढ़ना है और पढकर आगे क्या बनना चाहती हो..
फिर उसी शांत लहजे में उसने आगे कहा…
गरीब घर की लड़की हूँ..लेकिन सपने बड़े पाल बैठी हूँ…माता पिता सक्षम नहीं अतः ट्यूशन पढाकर अपना पढाई खर्च निकाल पाती हूँ…और प्रशासनिक सेवा मे कोई पद ग्रहण करना चाहती हूँ…
बहुत सुंदर….अच्छी बात है…
मेरा भी झुकाव प्रशासनिक सेवा की ही तरफ था लेकिन उसे बता नहीं पाया..
क्योंकि मैंने देखा था उस समय उसकी आँखों में रंगीन सपने उमड़ रहे थे.फिर सपने तो उम्र और हैसियत के मोहताज तो होते नहीं.. दिनरात सतरंगी बादलों पर पैर रख कर तैरते किसी किशोर की आँखों की सी उस की आँखें कहीं किसी और ही दुनिया की सैर कर रही थी…
मैने बात आगे बढाते हुए कहा….
क्या तुम्हें लगता है…तुम कर लोगी पूरी…???
जी समझी नहीं…
मेरा मतलब तुम्हारे कठिन सपने से है..जो तुमने मन में पाल रखा है..
क्यूँ गरीब सपनें नहीं देख सकते..उन्हें हक नहीं..???
नहीं मैने ऐसा नहीं कहा…
तुम्हारा देखा सपना..
अच्छा भी है…और बड़ा…भी
लेकिन उसके लिए बहुत मेहनत की आवश्यकता है पढाई में…
करती तो हूँ…पर क्लास में डर जाती हूँ….
ओहहहहहह
जाने किस हक से मैं कह बैठा
पहले मन का डर दूर करो फिर प्रशासनिक सेवा की सोचना…
उसने फिर आँखेँ उपर उठा मुझे देखा..
मैं झेंप सा गया..
क्षमा चाहता हूँ..मेरा आशय पढाई से है..मन में डर हो तो मंजिल पाना मुश्किल होता है..और अगर डर न हो तो कठिन से कठिन राह आसान हो जाती है…क्योकि जो तुम्हारा लक्ष्य है उसके लिए निरंतरता और दृढ़ता की आवश्यकता होती है
जी….
मेरी सुलझी बातें सुन सुगंधा थोड़ी सहज हो चली थी..
उसे थोड़ा सहज होते देख मेरा मन काबू में नहीं रहा
और जब मन काबू में नहीं रहता तो भावानाओं को खुला आकाश मिल जाता हैं..वो इतनी जोर उफनती हैं कि रोके नही रूकती…..मैं भी अपने मन में उमड़ती भावनाएँ रोक नहीं सका…और अपनी फिलिंग्स जाहिर कर बैठा.
मैं यहीं गलती और जल्दबाजी कर गया…जो उससे पूछ बैठा..
क्या हमारी दोस्ती हो सकती है…
दोस्ती क्यूँ भला…..
मैं यहाँ पढने आती हूँ…न कि दोस्ती और रिश्ते निभाने
बेहतर होगा आप अपनी मर्यादा में रहें और मैं अपनी मर्यादा में…
पर ….
पर वर कुछ नहीं..कह उठ कर जाने लगी…
मैंने रोका…
सुगंधा….मेरी बात तो सुनो….
देखिए मेरे पाता पिता ने बड़ी मुशकिलों से मुझे पाला है..एक छोटी बहन व भाई है… नहीं चाहती कि मैं कोई ऐसा काम करूँ कि उनका सर शर्म से नीचा हो…
लेकिन दोस्ती से सर नीचा होने का क्या ताल्लुक़..
है…बहुत गहरा ताल्लुक़ है…
यहाँ लोग छोटी से छोटी बात को भी बड़ी बना देते हैं..
फिर आप जैसे पैसे वालों को बहुत से दोस्त मिल जाते हैं..और भी मिल जाऐंगे. वैसे भी आप सब के लिए किसी से दोस्ती आम बात है
पर मैं औरों जैसा नहीं..जानती हो …
विश्वास दिलाता हूँ कभी नजरें नीची नहीं होने दूँगा..या अपने किसी कार्य से तुम्हारा सर नीचा होने दूँगा…
मैने अपनी तरफ से अपने स्वयं की सफाई देने की कोशिश की..
हो सकता है आप अलग हो और आपकी मंशा सही हो लेकिन कभी कभी न चाहकर भी मन की इच्छाओं का गला घोटना पड़ता है और वैसे भी जो बातें आपके अंदर नहीं हैं, जिन इच्छाओं का घर आपका दिलो दिमाग कभी हो ही नहीं सकता उन इच्छाओं का आपके मन के अंदर जन्म भी बेमानी है..अतः हमारी दोस्ती मुमकिन नहीं…
और हाँ आइंदा आगे से मुझसे बात करने या मेरी राह आने की कोशिश न करें तो बेहतर होगा..मैं जैसी हूँ ठीक हूँ…
उसने दो टूक शब्दों में कहा और वहाँ से उठकर चली गई.
मै लाख रोकता रहा..
पर उसने एक न सुनी..
मैं ठगा सा उसे जाते हुए देखता रहा…
अगले लेक्चर का समय हो गया था अतः क्लास की ओर बढ गया…नजरें सुगंधा को ही ढूँढ रही थी पर वह क्लास में नहीं थी…
अगले दिन भी वह कॉलेज नहीं आई…
जाने क्यूँ मेरा मन यह सोच ग्लानि सा महसूस कर रहा था..कि मेरी नासमझी के कारण उसने कॉलेज आना छोड़ दिया था..
मन तकलीफ से भर गया..
कहीं मेरी बातों का उसपर बुरा असर तो नहीं हो गया..
वो बुरा तो नहीं मान गई..सोच सोच सारा दिन परेशान रहा..
कुछ दिन ऐसे ही चलता रहा..मैं कॉलेज जाता पर वह नहीं दिखती…
पढाई के दौरान मेरा मन व्याकुल रहता..पढाई में मन नहीं लगता…हर पल हर दिन उसका ख्याल मेरे दिमाग में रहता,उसे देखे बिना लगता कि जिंदगी का सारा टेंशन आज ही है,एक परेशान आत्मा की तरह हर समय भटकता रहता.
दोस्त यार को कुछ बता नहीं सकता था…कहीं सब उसका मखौल न उड़ाने लगे…
उसके बाद मै काफी खामोश हो गया हालांकि मन में जरूरत से ज्यादा शोर भरा रहने लगा था….मन में देर तक चुप्पी छाई रहती और धीरे धीरे बड़ी होती जाती. इतनी की मुझे खुद से घबराहट होने लगती..कभी कभी तो मेरे भीतर रूदन उखड़ने लगती थी
फिर एक दिन वह कॉलेज आई…क्लास में उसे देख मन को खुशी हुई…लेकिन उसने मेरी तरफ देखना भी उचित नहीं समझा….
मैने भी न कुछ कहा और न ही कुछ पूछा…बस सारा लेक्चर चुप चाप उसे देखता रहा…
लेक्चर खत्म हुआ और वह उठ कर क्लास से बाहर चली गई… मैं उसे जाता देखता रहा….
अगला लेक्चर भी यूँ ही खामोशी में गुजर गया..फिर तीसरा ,फिर चौथा…
न कोई शिकवा न कोई शिकायत वह चुप चाप कॉलेज आती लेक्चर एटेंड करती और चुप चाप क्लास से बाहर चली जाती
कहते हैं,रूठी हुई खामोशी से बोलती हुई शिकायतें ज़्यादा अच्छी होती हैं…
मेरा मन दर्द से भर उठता पर चाह कर भी उसे कुछ कह नहीं पाता था…क्योंकि मैं उसकी दोस्ती पाना चाहता था न कि जबरदस्ती हासिल करना…..
हम दोनों अपने समय से कॉलेज आते लेक्चर अटेंड करते और चुपचाप क्लास से बाहर हो जाते..
कभी कभी तो न उसके आने की आहट होती न जाने की टोह मिलती…
फिर भी मेरा बावरा मन…इतने पर भी थिसिस हो या प्रैक्टिकल अक्सर मै अपने नोट्स की कॉपी चुप चाप उसके बैग मे डाल देता..जिसका उसे पता चलता या नहीं या पता चल भी गया हो शायद कह नहीं सकता लेकिन उसके पढाई में उसकी मदद कर मुझे एक अजीब सी संतुष्टि मिलती.धीरे धीरे..यह देख खुशी होती थी कि अब वो किसी भी प्रोफेसर के लेक्चर के दौरान आत्मविश्वास से भरी दिखने लगी थी…
लेकिन फिर जाने अनजाने कभी एक दूसरे से बात नहीं हुई…
उसे बुरा न लगे इसलिए मैं भी कभी उसके पीछे नहीं गया…
समय अपनी गति से बीतता गया…
हम दोनों अपनी अपनी पढाई पूरी कर कॉलेज से बाहर हो गए..उसे मैं याद रहा या नहीं लेकिन मैं बिना सच जाने बिना बुझे कि उसके मन में क्या है मैं थोड़ी बहुत जगह बना पाया या नहीं… या फिर मेरे प्रति उसका नजरिया बदला या नहीं..
दिल में उसके लिए सदा अनकंडीशनल एवं अनचाहा प्रेम भरा रखा…लेकिन चाहकर भी उसकी राह आने की कोशिश नहीं की..सोचता था कि कभी न कभी तो वह मुझे और मेरी भावनाओं को समझेगी ही…
हाँ उसके लिए मन सदा बेचैन जरूर रहा….
खैर इस बीच मैं I.D.A.S के तहत Controller General of Defence Accounts का पदभार संभाल चुका था..
तभी तालियों क गर्गर्गारहट से मेरी तंद्रा भंग हुई….
सुगंधा जिला कलेक्टर बन मुख्य अथिति के रूप में आज मेरे सामने थी..जिसके सम्मान में यह तालियां बज रही थी..वही रंग वही रूप वही शांत स्वभाव की स्वामिनी..उसकी आँखों में आज भी वही कशिश दिख रही थी..और आज भी कुछ ढूँढती सी प्रतीत हो रही थी..
सहसा उसकी नज़रें मुझपर आकर ठहर गई जो उसके लिए सजी मंच के ठीक सामने लगी कुर्सियों की पहली कतार में ही बैठा था..
शायद उसने मुझे पहचान लिया था…
एक हल्की मुस्कुराहट के साथ मौजूद अतिथीगणों से नज़रे बचा उसने हाँथ जोड़ मेर अभिवादन किया…
मैने भी प्रतिउत्तर में अपने दोनों हाँथ जोड़ दिए..
जब फंक्शन खत्म हुआ और सभी अतिथिगण सभागार हॉल से बाहर जाने लगें तो सामने टेबल पर रखे गुलदस्ते से एक खिला गुलाब निकाल उसकी ओर बढ़ा इच्छा हुई कि उसे गुलाब भेंट करूँ लेकिन जाने क्यूँ उसके मंच तक जाकर कदम ठिठक से गए और गुलाब मेरे हाँथों में ही रह गया…
इस डर से कि उसे एक बार फिर बुरा न लगे और वह इतने लगों के बीच अनकम्फर्टेबल न महसूस करे उससे न कुछ बात करने की कोशिश की न कुछ पूछने की..बस बहुत बहुत शुभकामनाएं.. कहा और कुछ पुराने मित्रों से मिलने बाहर भीड़ की ओर बढ़ गया…..
लेकिन अभी दरवाजे तक पहुँचा ही था कि उसने मुझे पीछे से आवाज दी..
सुनिए…..
मेरे बढते कदम वहीं रूक गए…
मैने पीछे मुड़कर देखा..
सुगंधा मुझे रूकने का इशारा करती धीमी कदमों से मेरी ओर आ रही थी..जाने क्यूँ वह जैसे जैसे पास आ रही थी मेरे दिल की धड़कनें बढती जा रहीं थी..
मैने अपनी पैंट की जेब से रूमाल निकाल अपना चेहरा पोछने लगा…जाने किस डर से पसीने की कुछ बूंदे चेहरे पर छलक आई थी..
उसने मेरे पास आकर धीमें स्वर में कहा..
किधर चल दिए…???
क्या हम थोड़ी देर बात कर सकते हैं…
ज्््््जी क्यूँ नहीं ..
मैं…वव््््वो बस कुछ पुरानें दोस्तों से मिलने जा रहा था
मैने मानों हकलाते हुए कहा…
हम्ममममम……
उसने हल्की साँस लेते हुए कहा…
इतने सालों बाद मिले…न कुछ पूछा न कुछ कहा..
कैसे हैं आप और कहाँ हैं आजकल..
जी इच्छा तो हुई थी कि आपसे बात करूँ….लेकिन
लेकिन क्या…???
और यह आप आप क्या लगा रखा है…आपने
आपका मुझे तुम कहना ही भाता है..
जी आपका ओहदा….अब आप जिला कलेक्टर हैं..
तो क्या…आप तुम ही संबोधित करेंगें तो अच्छा लगेगा..
उसने उसी धीमे स्वर में कहा..
मैने भी औपचारिकता की तिलांजलि दे दी…
काफी खुशी हुई आपक्््््््….मेरा मतलब है..तुम्हें तुम्हारे मनचाहे मुकाम पर देख कर.आखिर तुमने वो पा लिया जो तुम चाहती थी..पुनः शुभकामनाएं
जी धन्यवाद..
पर सच कहूँ तो आज जो हूँ उसमें आपके योगदान को नाकार नहीं सकती…बहुत चाहा कि आपसे मिलकर आपको धन्यवाद कहूँ पर आपका कहीं पता नहीं चला…
आप अगर अपने तैयार नोट्स छुप छुपाकर मुझे नहीं देते तो शायद आज मैं अपनी मंजिल से दूर ही रहती..
मैं झेंप सा गया..
ओहहह….तो तुम्हें पता चल गया था..
मैने उससे नजरें चुराते हुए पूछा…
जी डरपोक थी पर बुद्धू नहीं..
ओहहहहह…
लेकिन तुम थी कहाँ…..बहुत कोशिश की तुम्हारे बारे में पता करने की पर तुम्हारा कुछ पता ही नहीं चला…..
क्यूँ भला…….???
मेरा मतलब ….क्यूँ कोशिश की खोजने की आपने…
उसके इस विचित्र प्रश्न के लिए मेरे पास कोई उत्तर नहीं था…..।।
वो बस यूँ हीं…
अच्छा….
फिर उसने बताया….वह गांव से आकर शहर के कॉलेज में पढ़ाई कर रही थी…पढाई पूरी होते ही..वह गाँव चली गई…और वहीं से प्रशासनिक परिक्षाओं की तैयारियाँ करनी शुरू कर दी..फिर UPSC के तहत CSE यानि All India Civil Service परीक्षा पास कर उसका चयन इस पद हेतु हो गया…
और तुम्ममम ….मेरा मतलब आप अभी कहाँ हैं..
तुम भी मुझे तुम कहो तो मुझे अच्छा लगेगा..वैसे भी तुम्हारा मुझे आप कहना पहले भी काफी भारी भरकम लगा करता था..और आज भी लग रहा..
मैने हम दोनों के बीच किसी तरह की औपचारिकता खत्म करने कि दृष्टि से कहा
उसने अपनी झुकीं पलकें उठाकर मेरी ओर देखा..
उस समय हम दोनों के होठों पे हल्की मुस्कुराहट थी
फिर मैने उसे अपने बारे में बताया..कैसे कॉलेज से पढाई खत्म करने के बाद चार साल तक प्रशासनिक सेवा की अथक तैयारी में लगा रहा और बाद I.D.A.S परीक्षा पास की और Controller General of Defence Accounts के पद पे कार्यरत हूँ..
अरे वाहहहहह
सुनकर खुशी का ठिकाना नहीं था उसका..
बड़े छुपे रूस्तम निकले…
उसने भी मुझे बधाई दी ..मैंने भी कृतज्ञता जाहिर की..और चुप हो गया..
लेकिन उसका अगला सवाल मुझे रोमांचित कर गया
शादी की ….आपने..?? आपकी जीवनसंगिनी किधर है..
नहीं….शादी नहीं की अभी..
मैने मन ही मन कहा बस एक #प्रेमसंगिनी है..जिसे सालों से दिल में बसाए फिर रहा..
मानो उसने मन की बातें सुन ली हो
कुछ कहा आपने..?
नहीं…
और तुमने…..
नहीं….अभी नहीं…..
क्यूँ….????
समय नहीं मिला
शादी का समय से क्या लेना..
और अब तो कलेक्टर भी बन गई हो.
कलेक्टर बनने से शादी का क्या लेना देना…
उसने मेरा ही किया सवाल मुझी पे फेंक दिया था..
हम दोनों हँस दिए….
अब तो बड़ी बातें करनी लगी हो…..
लेकिन क्लास में तो बहुत शांत और खामोश रहती थी तुम मानों किसी बात से कोई मतलब ही नही
कैसे कहती कितना अच्छा लगता था खामोश बैठकर आपको देर तक सोचना…
मैं समझा नहीं…मैने उसकी कहे का आशय जानना चाहा
मेरा मतलब मेरी पढाई में आपके द्वारा किए मदद से था..उसने झेंपते हुए तुरंत बात पलट दी.अक्सर आपके किए मदद को ले सोचा करती थी..सब सच जानकर भी कुछ कहती नहीं थी…मेरे किए व्यवहार को लेकर शर्मींदगी भी महसूस हुई…उसने मानों अपने ही कहे पर पर्दा डालना चाहा…
अच्छा कोई बात नहीं..
मैने भी कुछ न पूछना बेहतर समझा.
ये पीछे हाँथ में क्या छुपा रखा है..
शायद नजर पड़ी थी उसकी…
मैने हड़बड़ाहट में पीछे मुड़कर अपना हाँथ देखा..गुलाब अब भी मेरे हाँथ मे ही था…
और हरबराहट में उसके सामने कर बैठा
यह गुलाब किसके लिए..
वो््््वो..
वो क्या..??
कुछ नहीं बस यूँ ही…
किसी क़ो देना था…???
हाँ…..न.ननननहीं…
मतलब….
व्््््वो तुम्हें ही देना था लेकिन…
लेकिन क्या और दिए क्यूँ नहीं..??
मन डर सा गया था कि कहीं तुम फिर बुरा न मान जाओ…
उसने हँसकर कहा….अरे वाहहहह….
और…..बुरा क्यूँ मानती भला…
बस तुम्हारा उस दिन का कहा खयाल आ गया..
दूसरी वहाँ भीड़ भी बहुत थी मैं नहीं चाहता था कोई किसी तरह की बातें करे..
गुलाब देने पर कोई क्या बात करता….भला…
तुम्हें नहीं पता शायद…
यहाँ लोग छोटी से छोटी बात को भी बड़ी बना देते हैं..
मैंने उसके ही कहे शब्द उसके सामने दुहरा दिए….
ओहहहहह.
मतलब अब भी नाराज हो मेरे कहे को लेकर…..
नहीं.. नाराज नहीं.और नाराजगी की कोई बात भी नहीं.. तुम अपनी जगह सही थी…
हम्म्म्म..
लेकिन हमारी दोस्ती न होने की दोषी तो मैं ही थी.।
नहीं…
सच कहूँ तो इसमें दोष न तो मेरा था न ही तुम्हारा..बस समय था….ईश्वर भी बड़ा अजीब है..हमें आँखें तो ब्लैक एंड व्हाईट देता है लेकिन सपने रंगीन दिखाता है….हम दोनों ने ही सपने देखें..मंजिल भी लगभग एक ही थी पर रास्ते अलग करने पड़े..
क्योंकि तुम्हें तुम्हारे सपनों का मान रखना था और मुझे अपनी मर्यादा का…
लेकिन अगर मैं आज़ स्वयं दहलीज़ पार करना चाहूँ तो..
मैं समझा नहीं
आप इतने भी बुद्धू तो नहीं…
उसका कहा सुन उससे नज़रे फेर बेचैनी से इधर उधर देखने लगा..
गुलाब नहीं देंगे..मुझे..
क्क््ँयँ यूँ नहीं.
क्या हुआ…कहाँ खो गए…
क्ककुछ नहीं… कहते हुए गुलाब उसकी ओर बढा दिया..
अच्छा छोड़़ो खुद से लगा दो…..कभी बालों में गुलाब लगाया नहीं ं..
मैं मानों डिरेल होते होते बचा…
कहते हैं जब मन काबू में नहीं रहता तो भावानाओं को खुला आकाश मिल जाता हैं….वो इतनी जोड़ उफनती है कि रोके नहीं रूकती…वैसे भी प्रेम अगर खामोश हो तो वह कई रंगों में बँट जाता है उसका कोई एक रंग नहीं रहता..मन की इच्छाएँ अनंत हो जाती हैं..मिलन की मादक खुश्बू मन को बेचैन किए रहती .. इस समय मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा था…
मैने काँपतें हाँथों से गुलाब सुगंधा के बालों में लगा दिए…
और सुगंधा शर्मिली मुस्कान लिए मेरे सीने से लग गई..
आज फिर मन काबू में नहीं था और रोके नहीं रूक रहा था..दिल की धड़कने तेज धड़क रही थी मेरा मन बहकने को आतूर था.
सीनें में वर्षों से जमा प्रेम हिमालय इस सुक्ष्म मिलन से मानों पल भर में पिघलने लगा था,मन किया सुगंधा को जोर से अपनी मजबूत बाँहों में भींच लूँ …लेकिन मैं इस मिलन की मधुर एहसास को छिन्न नहीं होने देना चाहता था..इसलिए हल्के हाँथों से उसके बालों को सहला रहा था साथ ही साथ..
मैं मन ही मन कॉलेज के उन सभी आयोजकों को कृतज्ञतापूर्वक आभार प्रकट कर रहा था जिन्होंने आज एलुमनाई मीटिंग का आयोजन किया था….और मुझे मेरी पहली मंजिल मेरी मित्र मेरी प्रेमसंगनि “सुगंधा” से मिलवाया…था
जो आज वर्षों बाद…मेरी बेताब बेतहाशा धड़कती धड़कनोंं की माझी बन मेरे सीने से लगी थी….फिर जाने क्या सोच आँखों से अश्कों के दो बूँद बाहर छलक पड़े….
#दो बूँद जो मेरी उदास आँखों के गहरे कोरों में कबसे प्यासे पड़े थे…
विनोद सिन्हा “सुदामा”