प्रेम से सींचें रिश्ते – शिव कुमारी शुक्ला : Moral Stories in Hindi

रामेश्वरी जी एक सीधी सादी, सुलझीं महिला थीं ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं थीं ‌ग्रामीण परिवेश में हमेशा रहीं थीं किन्तु उनकी सोच, समझने की शक्ति निराली थी। वे किसी भी समस्या से घबरातीं नहीं थीं,

वल्कि समाधान सोचने में जुट जातीं। उनके इसी गुण ने उन्हें परिवार, मुहल्ले में एक अलग स्थान दिया था।जब भी किसी महिला को कोई समस्या होती वो सीधी रामेश्वरी जी के पास आजातीं  और हमेशा सकारात्मक समाधान पाकर ही लौटतीं।

उनके पति केदार जी भी भले मानुष थे।सबकी मदद   करने को तैयार, कैसी भी समस्या हो सुलझाने को तैयार इसी लिए गांव वालों ने उन्हें सरपंच बनाया हुआ था। दोनों पति-पत्नी अंहकार,गुरुर से कोसों दूर। उनके दो बच्चे थे बड़ी बेटी महक एवं छोटा बेटा मिहिर।

वैसे मिहिर ने इंजीनियरिंग की हुई थी किन्तु वह गांव में ही रहकर कृषि में नवाचार कर उपज बढ़ाने एवं उन्नत कृषि कैसे की जाए के लिए नये -नये प्रयोग करता रहता था।फल उगाने का भी उसे बहुत शौक था, सो उसने बाहर नौकरी करने के बजाए अपनी पुश्तैनी जमीन में ही फलों की खेती करने का मन बना लिया था और वह उसी में लगा था।अभी सात माह पूर्व ही उसकी शादी मीता से हुई थी।

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मिहिर के घर में पारिवारिक मूल्यों को बहुत ही महत्व दिया जाता था। पारिवारिक संबंध तो सुदृढ़ थे ही साथ ही अड़ोस-पड़ोस को भी उतना ही महत्वपूर्ण समझा जाता था।

जबकि मीता जहां से आई थी वह एक कस्बा था और बड़े शहर के नजदीक होने से शहरी रहन-सहन का वहां असर ज्यादा था। मीता पारिवारिक मूल्यों को तो समझती थी किन्तु उसकी सोच केवल अपने परिवार तक ही सीमित थी अन्य नाते -रिश्तों को वह अधिक अहमियत नहीं देती थी।

अड़ोस-पड़ोस भी उसे समय व्यतीत के योग्य ही लगते उनकी अहमियत भी उसके दिमाग में ज्यादा नहीं थी। वह पढ़ी-लिखी थी सो वह अन्य गांव वालीं स्त्रीयों से अपने आप को अधिक महत्व देती थी। अक्सर वह मिहिर को भी शहर में नौकरी करने के लिए उकसाती। शहरी जीवन की सुख-सुविधाएं उसे आकर्षित करतीं और वह चाहती थी

कि मिहिर शहर में नौकरी कर ले। किन्तु मिहिर न तो अपने माता-पिता को अकेला छोड़ना चाहता था और न ही नौकरी करने की उसकी कोई इच्छा थी। वह तो अपने नवाचार करने में मस्त था सो वह मीता को भी समझाता नौकरी , नौकरी होती है मीता और अपना काम अपना होता है। मैं अपना काम इतनी मेहनत से करूंगा

तो सफलता मिलेगी ही और किसी की गुलामी  क्यों करूं मैं अपने मन का मालिक हूं अपना ही काम करूंगा , तुम भी मेरे साथ मन लगाओ , मुझे सहयोग करो। मेरी योजनाओं को समझो। दोनों मिलकर काम करेंगे तो तुम्हें भी मज़ा आएगा और अपने काम में भी उन्नति होगी। किन्तु मीता का अल्हड़ मन यह सब नहीं स्वीकरता,सो वह समय पर सब छोड़ किसी परिणाम का इन्तजार कर रही थी।

तभी उसकी बुआ सास आ गईं वे आराम से रहतीं किन्तु कभी -कभी उसे रोक टोक देतीं।वह बोलती तो कुछ नहीं किन्तु उसे अच्छा नहीं लगता। सोचती दो-चार दिन में चलीं जाएंगी किन्तु यह क्या वे पूरे दो महीने रूक कर  गईं । बुजुर्ग थीं सो परिवार की कोई चिंता नहीं थी।घर में बेटा बहू सब सम्हाल रहे थे।

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पति थे नहीं। अपने भाई से बैठीं बतियातीं रहतीं। कभी बचपन की यादें, माता- पिता की यादें , कभी जीवन के खट्टे-मीठे अनुभव याद करते। दोपहर में खाना खाने के बाद मम्मी जी और बुआ जी एक ही खाट पर लेट जातीं और घंटों बातों में खोई रहतीं लगता ही नहीं कि वे ननद भाभी हैं,न कोईऔपचारिकता न कोई दिखावा ।

मीता सोचती इनके माता-पिता तो हैं नहीं फिर कोई भाई-भाभी के साथ इतने दिनों तक रहता है। किन्तु उनके बीच का प्रेम देख कर सोचती कि इनमें आपस में इस उम्र में भी कितना प्रेम है,बहन  भाई का  प्रेम, ननद भाभी का निर्मल संबंध।

बुआ सास को गये अभी बीस दिन ही हुए होंगे कि चाची सास आ गईं।वे कुछ ही दूर स्थित एक अन्य गांव में रहतीं थीं। उनके बेटे की शादी थी सो जेठानी से सलाह -मश्विरा करनेआईं थीं और यह कहने कि आपको पहले से आकर सब सम्हालना है दीदी।आप तो बैठे -बैठे  बतातीं जाऐं सब कर लेंगे। हमें आपके मार्गदर्शन की जरूरत है।

कुछ दिनों बाद शहर खरीदारी करने चलेंगे सो आप और भाईसाहब साथ चलें, एक से दो की राय ठीक रहती है। मैं खबर करवा दूंगी जब चलना होगा।जब उन्होंने चलने को बोला तो  मम्मी जी ने मनुहार करके उन्हें दो दिन और रोक लिया। ऐसे सप्ताह भर रह कर  गई । उनके जाने के बाद मीता ने राहत की सांस ली और सोचने लगी बड़ों का सम्मान करने का कितना अनूठा तरीका है और मम्मी जी ने कैसे मनुहार कर उन्हें रोक लिया।

महिना बीतते -बीतते दिसम्बर में बड़े दिनों की छुट्टियां लग गईं सो बड़ी ननद बच्चों सहित आ गईं, बोली मम्मी मैं तो मीता के साथ रह ही नहीं पाई, बड़ी इच्छा हो रही थी साथ रहने की।अब हम आपस में मिल जुलकर बहुत सारी बातें करेंगे एक दूसरे को जानेंगे समझेंगे। बच्चे छोटे ही थे सो सारा दिन मामी-मामी करते आगे पीछे घूमते।

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कभी कुछ खाने की फरमाइश, कभी साथ खेलने की। उनके साथ अब मीता को भी आनन्द आने लगा था। खुश मिजाज ननद ने भी उसक दिल जीत लिया। दोनों बातें करते -करते रसोई में काम कर लेतीं फिर दिन में फुर्सत में बैठ अपनी अपनी बातें एक दूसरे को बततीं बचपन की, पढ़ाई की, पति एवं बच्चों की। बच्चों की बातें सुन मीता हैरान हो जाती एक नया अनुभव उसे होता।

ऐसे ही सगे संबंधियों के आते -जाते समय गुजर रहा था। कभी मम्मी जी के पास पड़ोसिनें आ जाती, खूब हंसी ठिठोली का माहौल हो जाता। किन्तु अभी भी वह सोचती क्या इतने लोगों से संबंध बना कर 

रखना जरूरी है।एक दिन चाची का बुलावा आ  गया । मम्मी जी ने मीता से भी कहा  बेटा तुम भी हमारे साथ चलो।तुम्हारा घूमना भी हो जाएगा और तुम भी कुछ खरीदारी कर लेना और चाची का घर परिवार भी देख लेना, सबसे मिलना जुलना हो जाएगा।

मम्मी जी अभी तो मुझे कुछ लेना नहीं है घर तो जब शादी में चलेंगे तब देख लूंगी।

पापा जी बोले तब बात ओर रहेगी।घर मेहमानों से भरा रहेगा जो मजा अभी आएगा वह तब नहीं, और तुम साथ रहोगी तो खरीदारी में राय देने में मदद करोगी। नई उम्र की हो तुम्हारी पंसद नई बहू से मेल खाएगी सो चलो तैयार हो जाओ।

इस बीच मिहिर भी उसे यहां के वातावरण, अपने नवाचार, भविष्य की योजनाएं आदि से अवगत कराता रहता। कभी अपने साथ फार्म पर ले जाता और अपने किये कार्यों को दिखाता, जिससे उसे अकेलापन न लगे या वह अपने को उपेक्षित न समझे।अब मिहिर के कार्यों में उसे भी रूचि होने लगी थी सो वह अब उसकी योजनाएं कैसे अधिक सफल हों से संबंधित सुझाव देने लगी थी।

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एक दिन सास बहू बैठी ऐसे ही चर्चा में मश्गूल थीं तो मीता बोली मम्मी जी आप इतना सबकुछ कैसे सम्हाल लेतीं हैं । क्या परिवार में इतने रिश्ते निभाना जरुरी है और फिर पडोसियों से भी आप पूरी तरह पड़ोसी धर्म निभाती हैं। तब रामेश्वरी जी बोलीं मीता तुम अभी बच्ची हो और शहरीपन का असर भी तुम पर है

जहां सब इतने मतलबी हो जाते हैं कि किसी को किसी के बारे में जानने की जरूरत ही नहीं समझते। उन्हें यह भी पता नहीं होता कि उनके पड़ोस में कौन रहता है। उसके साथ क्या घट रहा है।देखो बेटा समय कभी कह कर नहीं आता,कब किसके ऊपर कोई आपदा आ जाए।कब किसे जरूरत पड़ जाए नहीं कह सकते। बुरा वक्त आने पर सबसे पहले पड़ोसी ही काम आते हैं। परिवार वाले दूर रहते हैं सूचना मिलने पर भी आने में समय लगता है।

तब यही पड़ोसी हमारे मददगार साबित होते हैं और अपना पड़ोसी धर्म निभाते हैं।जब तक परिजन न आ जाएं ढाल बनकर खड़े रहते हैं। यह तभी संभव है जब हमारे आपसी संबंध सौहार्दपूर्ण हों। ये लोग आपतकाल में शारीरिक रूप से, रुपए पैसों से हमारी मदद करते हैं । वैसे ही खुशी में भी जब कोई बड़ा आयोजन होता है तब तो पड़ोसी के साथ -साथ हमारे परिवार के लोग भी एकत्र होते हैं किन्तु छोटी -छोटी खुशीयों में यही लोग सम्मिलित होकर हमारा उत्साह बढ़ाते हैं। इसलिए पडौस में मेलजोल होना जरूरी है। 

अब बात करें परिवार की, वैसे चाहे हम एक साथ रहें या अलग अलग किन्तु आवश्यकता पड़ने पर सब एक स्तम्भ की भांति साथ खड़े होते हैं। परिवार में ये जो रिश्ते हैं दादा-दादी, नाना-नानी,ताऊ ताई, चाचा -चाची,  मामा मामी,बुआ, मौसी ये निरर्थक नहीं हैं।यदि इन्हें प्रेम से सींचा जाए तो ये रिश्ते पुष्पित, पल्लवित होते रहते हैं।

अच्छा लगता है एक दूसरे की खुशी में जाकर उनकी खुशी को दोगुनी करना,गम में जाकर ढांढस बंधाना, उन्हें सांत्वना दें दुख कम करना। यही तो परिवार कीआवश्यकताएं हैं।

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वैसे तो सब अपने अपने परिवार के साथ सुखी रहते हैं, व्यस्त रहते हैं, इन्हीं व्यस्तता के पलों मे से दूसरे परिवारजनों के लिए समय निकालना सामाजिकता है। मैं सोचती हूं कि अब तुम समझ गई होगी पड़ोसी और परिवार में क्या अंतर है। किन्तु हमें दोनों की समयानुसार आवश्यकता होती है सो दोनों से संबंध निभाना जरुरी है।

जी मम्मी जी अब मेरे मन के सारे संशय ख़त्म हो गये। आपने कितने प्रेम से मुझे यह समझा दिया और सुखी जीवन की कुंजी  क्या है ये भी बता दिया। मैं किस्मत वाली हूं आप जैसी मां मुझे मिलीं।

चल अब ज्यादा मक्खन मत लगा कह दोनों हंस पड़ीं।

शिव कुमारी शुक्ला 

18-1-25

स्व रचित मौलिक अब से प्रकाशित 

वाक्य****

पड़ोसियों और परिवार मेंयही तो अंतर होता है बेटा

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