“केशवी सुन तो बेटा किधर भागी जा रही है… तेरे दोस्त आते ही होंगे…अच्छे से तेल लगा लेना नहीं तो रंग छुड़ाते वक्त रोने लगेगी ।”कला अपनी बेटी को घर से बाहर जाते देख कर जोर से बोली
“ आती हूँ माँ पहले अपने कान्हा के साथ होली तो खेल आऊँ नहीं तो वो ग़ुस्सा करेगा।” कहती हुई केशवी घर से निकल गई
“ ये तुम्हारी बेटी भी ना बचपन से ही बस कान्हा कान्हा करती रहती है इतने दोस्तों के साथ होती है पर कान्हा सबसे पहले ।” अपने पति मदन को सुनाते हुए कला ने कहा और काम में लग गई
उधर भागती दौड़ती केशवी कान्हा के पास पहुँची उसे रंग लगाया फिर खुद के गालों पर रंग लगा प्यार से कान्हा को देख कर बोली “ हैप्पी होली कान्हा!”
वहीं खड़े आसपास के सारे लोग केशवी की बात सुनकर हँस पड़े ।
तभी मंदिर के पुजारी ने कहा ,” हो गई तेरी होली तेरे कान्हा के साथ कर दिया मेरे लल्ला को गंदा ।”
मुहँ पर हाथ रख केशवी ने कहा ,” देखो मेरा कान्हा कितना सलोना लग रहा है और उसकी मुस्कान मेरे रंग लगाते ही और बड़ी हो गई.. बाबा मेरे कान्हा का ख़्याल रखना अभी घर जाती हूँ ।” कहती हुई केशवी दौड़ती हाँफती घर पहुँच कर दोस्तों के संग होली खेलने में व्यस्त हो गई
जैसे जैसे केशवी बड़ी होती गई उसका कान्हा के साथ प्रेम भी बढ़ता जा रहा था… वो कभी खुद को अकेले समझती ही नहीं है उसे लगता उसका कान्हा भी उसके साथ है ।
स्कूल कॉलेज में भी उसके दोस्त कम ही बने क्योंकि उसे कान्हा प्रेम के सिवा कुछ सुझता ही नहीं था …. वो सोते जागते बस कान्हा से ही बातें करती रहती थी।
प्रेम दिवानी को कान्हा में ही सब दोस्त नज़र आते थे और कहीं ना कहीं केशवी का कान्हा के प्रति अनदेखा प्रेम एक आकार लेने लगा था ।
“ सुनती हो अपनी केशवी के लिए पंडित जी ने कुछ रिश्ते सुझाएँ है और उन्होंने तस्वीरें भी दी है तुम भी देख लो और केशवी को भी जरा दिखा कर उसकी राय पूछ लो… इकलौती बेटी है उसके नखरे तो बस कान्हा ही समझ सकते है ।” अपनी पत्नी से ये कहते हुए मदन जी हौले से मुस्कुरा दिए
कला ने जब बेटी को तस्वीरें दिखाई तो केशवी मुँह बना कर बोली ,” माँ मुझे शादी नहीं करनी है ।”
“ पगला गई है क्या जो ये बात कह रही है…देख बेटी तेरी पसंद का पूछ कर ही सब करेंगे एक बार तू भी तो लड़कों की तस्वीरें देख लें जो तुम्हें जँचेगा उससे ही आगे की बात की जाएगी।” कला ने बेटी के सिर पर पुचकारते हुए हाथ फेरते कहा
केशवी बेमन से तस्वीरें देखने लगी उसके मन मंदिर में तो कान्हा बसे थे हर तस्वीर में वो कान्हा को खोजने लगी तभी एक तस्वीर को देखकर उसने कहा,” ये ठीक है।”
माता पिता ने जब लड़के का पता करवाया तो उसका नाम माधव निकला।
केशवी के मन में कान्हा की जो छवि बनी थी उससे काफी हद तक माधव की शक्ल सूरत मिल रहीं थीं शायद इसी वजह से केशवी ने हाँ कही थी ।
सारी बातचीत हो जाने के बाद दोनों की शादी का शुभ मुहूर्त निकाला गया… केशवी अपने मायके से ससुराल आ गई साथ ही अपने कान्हा की मूर्ति भी ले कर आई जिसके साथ उसने बचपन से लेकर अब तक समय गुज़ारा था।
“ अच्छा कान्हा से इतना प्रेम है कि वो तुम्हारे साथ हमारे कमरे तक आ गए ।” माधव ने पहली रात केशवी को छेड़ते हुए कहा
सुनते ही केशवी के नैनों से गंगा जमुना बरसने लगे,” आपको मेरे कान्हा का यहाँ रहना पसंद नहीं है तो कहीं और रख दूँगी पर मेरी सुबह और रात कान्हा से बात करके ही होती है उसका क्या करूँगी?” रोते रोते केशवी ने पूछा
“ अरे पगली रो क्यों रही हो मैं तो बस मज़ाक़ कर रहा था…अब जहां तुम वहाँ तुम्हारे कान्हा ।” केशवी को रोते देख माधव घबराते हुए बोले
माधव के प्रेम सानिध्य में केशवी वैसा ही महसूस कर रही थी जैसा वो कान्हा के साथ महसूस किया करती थीं…. समय गुजरता जा रहा था और दोनों के बीच प्रेम का बहाव भी ।
एक दिन पता चलता है केशवी माँ बनने वाली है ।
जैसे ही ये खबर माधव ने सुना उसे गले लगाते हुए बोला,” हमारे घर लड्डू गोपाल आने वाले हैं….तुम्हारे गोद में तुम्हारा कान्हा खेलेगा केशवी ।”
“ क्यों राधा रानी नहीं आ सकती हैं क्या…मुझे तो मेरे जैसी ही राधा रानी चाहिए जो मेरे साथ साथ कान्हा की पूजा किया करें ।” केशवी ने हंसते हुए कहा
दोनों की हँसी ठिठोली के बीच समय गुजरने लगा और नौवें महीने के चढ़ते केशवी को लेकर माधव डॉक्टर के पास जाँच के लिए आया हुआ था ।
डॉ ने जब कहा सब कुछ ठीक है अभी समय है जब दर्द होगा तब आ जाना ।
दोनों ख़ुशी ख़ुशी घर लौट रहे थे…. पर सामने उनका इंतज़ार कोई और ही कर रहा था ।
माधव अपनी ही धुन में गाड़ी चला रहा था और केशवी के पेट पर हाथ फेरते हुए कह रहा था,” देख लल्ला अपनी माँ को जरा भी तंग ना करना नहीं तो रोने लगेगी फिर मैं तो चुप करवाने आऊँगा नहीं तुम्हें ही सब सँभालना होगा।”
तभी केशवी ज़ोर से चिल्लाई ,” माधव ट्रक ।”
तब तक तो एक जोर की टक्कर हुई और बस….
अस्पताल में केशवी को होश आया तो पता चला उसका ऑपरेशन करके बच्चा निकाल दिया गया और माधव के बारे में कोई भी कुछ नहीं बता रहा था ।
केशवी आँखें बंद कर के वो घटना याद करने लगी…वो रोयेगी….तुम्हें ही सँभालना होगा…कानों में ये बोल केशवी को बार बार सुनाई दे रहे थे वो जोर जोर से रोने की कोशिश करने लगी पर आवाज़ जैसे गले में अटक गया था और आँसू वो निकलने को तैयार ही नहीं थे ।
“ क्यों माधव क्यों…. प्रेम की नैया पार तो लगा देते बीच मँझधार में छोड़ कर चले गए और गोद में लल्ला को दे गए… बताओ मैं अकेले कैसे उसका पालन पोषण करूँगी… जाने से पहले एक बार भी मेरे बारे में नहीं सोचे … क्या हमारा प्रेम इतना कच्चा था?”
“ केशवी ये तुम क्या बोल रही हो… कैसे सोच लिया मैं तुम्हें मँझधार में छोड़ कर चला जाऊँगा…मैं पग पग पर तुम्हारे साथ रहूँगा तुम्हारे भीतर तुम्हारे मन में और फिर मेरा अंश जो तुम्हारे साथ है…हाँ शायद मेरी ज़िन्दगी कान्हा ने बस इतनी ही लिखी थी… अब तुम आराम से अपने कान्हा के साथ समय व्यतीत करना।” एक हल्की हँसी के साथ केशवी को माधव की आवाज़ कानों में पड़ी
केशवी चारों ओर घूम घूम कर माधव को आवाज़ देकर खोजने लगी।
केशवी के माता-पिता दुर्घटना की जानकारी मिलते ही यहाँ आ चुके थे .. केशवी की ऐसी हालत देख कला लपक कर उसके पास गई और बोली,” बस कर मेरी बच्ची… अब माधव कभी नहीं आएगा।”
“ वो कहीं नहीं गए हैं माँ वो इधर ही है मेरे साथ… भला मेरे कान्हा मुझे इतनी तकलीफ़ नहीं दे सकते वो मेरे माधव को अपने पास नहीं बुला सकते ।” कहते कहते केशवी फफक पड़ी
किसी तरह अपने दुख को सँभालने की कोशिश करती केशवी बेटे की सुन्दर छवि देख ख़ुश रहने की कोशिश करती रहती पर माधव को भूलना उसके लिए आसान नहीं था वो वापस अपने मायके आकर बेटे की परवरिश में लग गई और पहले की भाँति मंदिर जाकर कान्हा को देख कर लड़ने लगती क्यों उसके माधव को अपने पास बुला लिया… और कान्हा अपनी चिर परिचित मुस्कान से उसकी बात सुनते रहते ।
एक दिन केशवी अपने बेटे को सुलाने की कोशिश कर रही थी… उसका बेटा तो सोया नहीं पर उसे नींद आ गई… तभी उसे बेटे का रुदन सुनाई दिया वो जैसे ही आँखें खोली देखती है उसका कृष्णा बिस्तर के किनारे पहुँच कर गिरने ही वाला था पर किसी ने उसे पकड़ लिया था … वो आँखें खोल कर देखने लगी देखती है माधव ने अपने बेटे को पकड़ कर फिर से सुला दिया था और उसके साथ खेल रहा था ।
केशवी को ये एहसास हमेशा होता था कि माधव यहीं कहीं उसके आसपास रहता है उसका ध्यान रखता है हा पर प्रत्यक्ष रूप से वो दिखाई नहीं देता है ।
वक़्त गुज़रने लगा और केशवी अपने कृष्णा और कान्हा में व्यस्त हो गई….. कृष्णा बड़ा हो कर एकदम माधव की शक्ल पाया था रूप गुण सब उसके ही आए थे अब तो उसकी भी शादी की उम्र हो चली थी.. केशवी ने अच्छी लड़की खोज कर कृष्णा का ब्याह उसके साथ कर दिया ।
एक दिन केशवी मंदिर में गई तो उसे ऐसा लगा जैसे उसके साथ साथ कोई चल रहा है पर नज़र दौड़ाने पर कोई भी नहीं दिखाई दे रहा था ।
तभी उसे बहुत पास कानों में एक आवाज़ सुनाई दी ,” केशवी अब तुम्हारे बिना रहा नहीं जाता चल ना मेरे साथ ।”
केशवी को ऐसा महसूस हुआ जैसे माधव ने उसका हाथ पकड़कर चलना शुरू कर दिया हो….वो उसे लेकर कान्हा की मूर्ति के पास आ गया….ना जाने अचानक केशवी के सीने में कैसा दर्द उठा और वो बोल पड़ी,” बस कान्हा अब और मत तरसा बहुत लुका छिपी खेल लिए अब तो आकर मुझे अपने संग ले जा…. माधव मेरा इंतज़ार कर रहा है कान्हा ऽऽऽऽ!” कहते कहते केशवी ने एक लंबी हिचकी ली और कान्हा के सामने माधव के साथ चली गई।
मंदिर में सारे लोग जो केशवी को जानते थे कहने लगे कान्हा के प्रति इसका भक्ति और प्रेम इसे अब तक सँभाल कर रखे हुए था और देखो गई भी तो अपने कान्हा के सामने।
सामने कान्हा के चेहरों पर मुस्कान कायम थी शायद वो भी केशवी के अंतर्मन की व्यथा को समझ रहे थे पर उसकी ज़िम्मेदारियों से उसे बाँध कर रखे हुए थे जब बेटे के जीवन में उसकी संगिनी आ गई तो केशवी को उसके जीवन से मुक्त कर उसे उसके माधव के पास भेज दिए।
मेरी रचना पर आपकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा।
धन्यवाद
रश्मि प्रकाश
# बेटियाँ जन्मोत्सव
आपने तो रूला दिया बहुत अच्छी कहानी और प्रेरणा की ईश्वर हर जगह मौजूद है