ब्रजमोहन देव के पक्ष में जमीन की डिग्री नहीं हुई थी। जिस जमीन पर उसने दावा किया था वह प्रधानी जोत थी। जमीन पर उसका दावा खारीज हो गया था। लेकिन विशारदपुर थाने का बड़ा बाबू सकते में था। कल ही उसने इलाके के रसूखदार ब्रजमोहन देव के कहने पर उस खंडहरनुमा घर से एक महिला और उसके बच्चे को लाठी के जोर पर वहाँ से खदेड़ दिया था। यह खंडहर उसी विवादित जमीन पर या यूं कहिये विवादित बनाई गई जमीन पर था, जिसपर सुनवाई चल रही थी।
दारोगा शिवनाथ बाबू धर्मपरायण आदमी थे लेकिन कानून के पालन में अटल। लेकिन कल जब ब्रजमोहन देव ने बुलाकर उनसे कहा कि मुकदमे में उनकी डिग्री हुई जा रही है और उनको आगे इस जमीन पर कोई लफड़ा नहीं चाहिए तो, वे इतना भर भी न कह सके कि डिग्री की कागज पहले आने दे। उन्होंने न आव देखा न ताव, सीधा चले गए खंडहर को खाली कराने। अब उन्हें रह-रहकर ख्याल आ रहा था कि महिला कितना रोयी-गिड़गिड़ायी, अपनी लाचारी और भगवान की दुहाई दी और फिर भी बात न बनी तो उसने अपने बच्चे की दुहाई दी लेकिन वे टस-से-मस नहीं हुए। अब उन्हें अपना किया ही पीछा नहीं छोड़ रहा था। उन्हें ग्लानि तो हुई और वे उसी ग्लानी में वापस उस खंडहर पर गए कि पूस की ठंढ में महिला शायद वापस लौट आई हो। लेकिन व्यर्थ। खंडहर सुना था। उसने हारकर सिपाहियों को महिला और उसके बच्चे की खोज के लिए रवाना किया ताकि उसकी खैरकदम पता चले।
सिपाही खाली हाथ लौटकर चले आए थे। और उन्होंने जो जानकारी दी उससे उनका कलेजा फट पड़ा। सिपाहियों ने बताया कि महिला असहाय बेवा थी और अभी चंद दिन पहले ही लंबी बिमारी के बाद उसके पति भगवान को प्यारे हो गये थे। शहर में अपना कोई नहीं था तो महिला गाँव के खंडहर में रहकर अपना गुजर-बसर कर रही थी। प्रधानी की यह जमीन एक जमाने में उसके बाप-दादाओं की थी इसलिए।
सिपाही के लौटने की देरी थी कि दारोगा शिवनाथ व्यथित हो उठे। ये क्या कर दिया उन्होंने और क्या बीत रही होगी अभी उस अभागी महिला और बच्चे के साथ। गर्म लिहाफ के नीचे रहते हुए भी उसके हाथ-पैर कांप रहे थे। पत्नी चंद्रमा को रहा न गया तो आखिर पुछ ही लिया- ‘जो हाथ शैतान-से-शैतान अपराधियों को धर दबोचने में नहीं कांपे वह इस लिहाफ के नीचे भी क्यों कांप रहे हैं। सब ठीक तो है।’
दारोगा इतना ही कह पाया- “हाथ किसी अपराधी की वजह से नहीं बल्कि खुद अपराधी होने के वजह से कांप रहे हैं, चंदा। हाँ आज मैं ही अपराधी बन गया हूँ और पता नहीं कैसे प्रायश्चित करूँ?” कहकर उसने सारी बात अपनी पत्नी को बता दी।
पत्नी ने भी माथे पर हाथ रख लिया- “आह ये क्या हो गया तुमसे? लेकिन तुम दिल छोटा न करो, रोज के काम में कुछ ऊँच-नीच हो ही जाती है। वो महिला और बच्चे जहाँ भी होंगे ठीक ही होंगे। अभी के लिए सब भुलकर सो जाओ।”
दारोगा ने भारी मन से कहा- “सो तो नहीं पाऊँगा क्योंकि वह महिला और उसका बच्चा मेरी आँखों के सामने से ओझल ही नहीं हो रहे हैं। और तुम कहती हो भूल जाओ? परंतु एक बात कहो अगर ऐसा किसी ने तुम्हारे और बाबू के साथ कर दिया होता तो क्या तुम यही कहती?”
पत्नी ने कुछ नहीं कहा।
दारोगा शिवनाथ चौकी पर बैठे थे लेकिन बिलकुल शांत और चारों ओर अलग नीरवता पसरी हुई। आँखों के सामने दुखियारी बेवा और ठंढ से ठिठुरता उसका बच्चा सिर पर बिना छत के। ये अपराध पहाड़ मालूम होता था। उसी समय थाने पर एसपी साहब की दबिश हुई। दारोगा कमांडर अधिकारी को देखते ही अपनी कुरसी छोड़ उठ खड़े हुए और मुस्तैदी से सैल्युट करते हुए ‘जय हिंद’ कहा।
“क्यों शिवनाथ, सबकुछ ठीक चल रहा है या कुछ मायुस नजर आते हो।“
दारोगा सामने ही फफक पड़ा- “हुजूर मुझसे अपराध हो गया है।“ दारोगा ने ब्रजमोहन देव के कहने पर महिला को खंडहर से निकाल बाहर करने की बात सदर अधिकारी को बयाँ कर दी। एसपी साहब ने दारोगा के कंधे पर हाथ रखकर कहा- “तो तुम मुझसे क्या चाहते हो?”
दारोगा- “मेरे कुकर्मों की सजा माई-बाप। मैं और इस बोझ को बर्दाश्त करने में असमर्थ हूँ, मेरे दमन के कारण एक बेवा और मासूम पर जान का संकट आ गया। मैं दोषी हूँ हुजूर।”
एसपी साहब ने पूरी बात सुनी और एक गहरी साँस लेकर कहा- “तो ये बात है। तुम चाहते हो कि जिस अपराधबोध से तुम गुजर रहे हो उससे मैं भी गुजरूँ। मियाँ ये मुझसे न होगा। गाड़ी के नीचे आ जानेवाले मेमने के लिए ड्राइवर को जेल नहीं दी जा सकती है। तुम इससे बाहर आओ। कुछ दिन में सब ठीक हो जाएगा।” इतना कहकर एसपी साहब अपनी राह निकल लिए। पुलिस कमांडर ने सोचा कि समय से साथ उसकी संवेदना राह पकड़ लेगी लेकिन ऐसा न हुआ।
दिन बिता शाम हो गई। लेकिन दारोगा के अंदर का तुफान जलजले का रूप ले रहा था। उसे लग पड़ा कि इससे बाहर आना नामुमकिन है। और अगर उसने समय रहते कुछ न किया तो जिंदा लाश बनकर रह जाएगा। उसने एक कागज निकाली और उसपर अपना अपराध उकेर कर रख दिया। पूस की वह रात भी पहाड़ से कम न थी, उसने वह रात भी आँखों-ही-आँखों में काटी।
सुबह वह नहा-धो, तैयार हो निकल गया लेकिन थाने की ओर नहीं कचहरी की ओर। कचहरी शुरू हो रही थी और कुरसी पर आसिन जिला जज मुकदमों की सुनवाई ले रहे थे। जज ने दारोगा की और देखा और दारोगा ने उनका अभिवादन किया।
“दारोगा साहब, आज सबेरे-सबेरे, किसकी पेशी है?“ जज ने ब-हैसियत कहा।
“सर आज इंसाफ के दरबार में मेरी खुदकी पेशी है। मैंने वो अपराध कर दिया है कि मेरा जीवन मुझपर भार बन गया है। उसकी सजा मिलने तक मेरी आत्मा मुझको धिक्कारती है। इतना कि मैं इस बोझ को अब और सहन नहीं कर सकता हूँ।” इतना कहकर उसने वह चिट्टी जो लिखी थी जज साहब को सौंप दी।
जज साहब ने खत का पूरा मजमून पढ़ा और कहा- “गलती तो हुई है और आपने अपने प्रदत्त सीमा का ख्याल रखे बिना व्यवहार किया है और कुछ हद तक अपनी शक्ति का भी दुरूपयोग किया है। पुलिस को एक डॉक्टर की तरह व्यवहार करना चाहिए लेकिन कभी-कभी एक डॉक्टर को भी ऐसा ऑपरेशन करना पड़ता है जिसमें रोगी का अंग तो चला जाता है लेकिन जीवन बच जाता है। आपके साथ दुःखद यह है कि आपने ऑपरेशन की आवश्यकता की पुष्टि किये बिना ही चीर-फाड़ कर दी। मैं आपके आवेदन को समुचित कार्रवाई के लिए आपके उच्चाधिकारी को भेज देता हूँ।”
“लेकिन साथ ही कहना चाहता हूँ कि आपने एक मिशाल कायम की है। दुनिया की सबसे बड़ी अदालत होती है अंतरात्मा और सबसे अच्छी चीज आपने की है कि उसे दबाया नहीं। अंतरात्मा जरूर गवाही देती है कि आपने गलत किया है अथवा नहीं। आपने पछताने की जगह प्रायश्चित करने का जो फैसला लिया है वह आत्मा के शुद्धिकरण के लिए नितांत जरूरी है। लोग यदि अंतरात्मा में खुद के किये को देखने लगे तो ये दुनिया एक दिन अपराधमुक्त हो जाएगी।”
–पुरूषोत्तम
(यह मेरी स्वरचित और मौलिक रचना है।)