“प्रतिष्ठा एक गहना” – सरोज माहेश्वरी : Moral stories in hindi

Moral stories in hindi : प्रतिष्ठा वह बहुमूल्य गहना है जिसे बनाने के लिए व्यक्ति अपना सम्पूर्ण जीवन लगा देता है। जब एक औलाद अपने कुकृत्यों से धन के साथ साथ प्रतिष्ठा को भी मिट्टी में मिला देती है, तब माता पिता के मुंह पर कालिख सी लग जाती है.  सीताराम जी अपने पिता के उच्च संस्कार लेकर समाज में प्रतिष्ठित व्यक्तियों की श्रृंखला में खड़े थे… वह अपने पुश्तैनी व्यापार को बड़ी तन्मयता से चला रहे थे …सीताराम जी का इकलौता पुत्र रौनक अपने नाम के विपरीत घर में काली छाया बनकर आया। जैसे जैसे रौनक बड़ा हुआ जिद्द का पिटारा बनता गया।

बालपन से ही उसका मन पढ़ने में न लगता था …देर रात तक आवारा लड़कों के साथ घूमना सिगरेट फूंकना उसकी दिनचर्या बन गई …बस थोडी देर दुकान पर बैठता।धीरे धीरे व्यापार में पैसों की कमी दिखाई देने लगी…एक दिन सिनेमा हॉल के पीछे नाले के पास ड्रग्स के नशे में पड़ा मिला… दुकान से चोरी किए पैसों से ड्रग्स के जहर को पीता था।

इस बात की खबर माता पिता को आज ही लगी  …इतने सज्जन व्यक्ति की औलाद ने धन के साथ साथ प्रतिष्ठा को भी सरेआम नीलाम कर दिया…उसे सुधारने के अनेकों प्रयत्न किए गए किन्तु कोई फायदा न हुआ… सीताराम जी ने कठोर निर्णय लेकर रौनक को अपने घर से निकाल दिया और अपनी सम्पत्ति से भी बेदखल कर दिया पर उनकी प्रतिष्ठा को नशेड़ी बेटे ने डुबो दिया।

                    एक दिन सीताराम जी के चचेरे भाई दीपेश ने रौनक को रेड लाइट एरिया में छोटी बच्ची के साथ देखा…अरे रौनक! तुम और यह बच्ची कौन है? रौनक बोला… चाचा जी! आप दो मिनट यहीं रुको मैं अभी बच्ची को कमरे पर छोड़कर आकर सब कुछ बताता हूं….थोड़ी ही देर के बाद आकर रौनक ने बताया…चाचा जी! मेरी नीच हरकतों क़े कारण पिता जी ने मुझे घर से निकाल दिया था…

मैं और पाप के दलदल में धंसते धंसते यहां आ गया। एक कोठे पर चौकीदार की नौकरी मिल गई… वहां कोई ग्राहक 18/ 19 साल की लड़क़ी रूपा को प्रेग्नेंट करके चला गया। एक दिन रूपा ने पहली मंजिल से गिरकर अपनी जान देने की कोशिश की…रात की ड्यूटी पर जगे होने के कारण मैंने उसे गिरते देखा और बिजली की गति से जाकर रूपा को बचा लिया।

उसे ऐसा कदम कभी भी न उठाने की सलाह दी…  अब जब भी मौका मिलता मैं उससे बात करता ।उसका सामीप्य मुझे सुकून देता… रूप भी मुझसे बातें करने में अपने आप को सहज महसूस करती ….एक दिन मैंने रूपा के सामने उसके अजन्मे बच्चे का पिता बनने एवं रूपा से शादी करने का प्रस्ताव रखा…

उसे तो मानों रेगिस्तान में नदी का स्रोत मिल गया… मैं अपने सभी दुर्व्यसन छोड़कर कैसे ही उस दलदल से निकला। रूपा से शादी की और अब ईंट पत्थर ढोकर मैं और रूपा बच्ची के साथ जीवनयापन कर रहे हैं। अपने कुकृत्यों से मैंने माता पिता का नाम डुबाया… अब एक पीड़िता और बच्ची को सहारा देकर मैं बहुत खुश हूँ।

  मैं कुछ अच्छे काम करके अपने बुरे कर्मों की थोड़ी भरपाई करना चाहता हूं । माता पिता की प्रतिष्ठा को उबारना चाहता हूं… बेटी को अच्छी शिक्षा देकर उसके दादा दादी को थोड़े से प्रतिष्ठा के गहने से सजाना चाहता हूं….प्रतिष्ठित लोगों की पंक्ति में खड़ा करना चाहता हूं….

स्व रचित मौलिक रचना 

सरोज माहेश्वरी पुणे ( महाराष्ट्र )

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