Moral Stories in Hindi : सेठ रामगोपाल जी को अच्छा बड़ा व्यापार विरासत में मिला था।उनके पिता बनारसीदास जी ने बहुत संघर्ष कर अपनी छोटी सी परचून की दुकान को अनाज व गुड़ की आडत के प्रतिष्ठान में बदल दिया था। अपने बेटे रामगोपाल को अपना व्यापार संभालने का प्रशिक्षण देने हेतु उन्होंने अपने जीवनकाल में ही रामगोपाल को अपने साथ बैठाना प्रारम्भ कर दिया था।रामगोपाल जी ने भी बड़ी तन्मयता से व्यापार के गुर अपने पिता से सीखे थे।व्यापार खूब चल निकला था।बनारसीदास जी ने नये घर का निर्माण कर लिया था।
इसी बीच एक दिन एक व्यक्ति बनारसी दास जी की दुकान पर आया।बनारसी दास जी दुकान के अंदर बने एक छोटे से कमरे में विश्राम कर रहे थे।रामगोपाल जी ही उस समय गद्दी पर बैठे थे।उस व्यक्ति ने बहुत ही शालीनता से रामगोपाल जी से नमस्ते की और बनारसी दास जी के विषय मे पूछने लगा।रामगोपाल जी उस व्यक्ति से उसका मंतव्य पूछने ही वाले थे कि बनारसीदास जी स्वयं बाहर आ गये।वो उस व्यक्ति को पहचान नही रहे थे।
प्रश्नवाचक दृष्टि से वे उस व्यक्ति की ओर देखने लगे।इतने में ही उस व्यक्ति ने लपक कर बनारसीदास जी के पास आकर उनके चरण स्पर्श कर लिये।बड़ी ही आत्मीयता से बोला ताऊ जी मैं वीरेंद्र,आपका भतीजा।आपने मुझे पहले देखा नहीं ना,तो कैसे पहचानते? ताऊ जी मैं आपके गावँ के शांति शरण का बेटा हूँ।ओह, शान्ति, अच्छा तो तुम शान्ति के बेटे हो।आओ आओ बेटा, खड़े क्यूँ हो ,आओ बैठो।
रामगोपाल जी बस आगंतुक और अपने पिता को ही बारी बारी से देख रहे थे। आगंतुक वीरेंद्र से बनारसीदास जी ने उसके पिता शान्ति शरण की कुशलक्षेम पूछी तो वीरेंद्र ने रोते हुए बताया कि शांति शरण जी अब दुनिया मे नही रहे थे।
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शान्ति शरण और बनारसीदास जी कभी गांव में पड़ौसी थे।मुद्दत से बनारसीदास जी का अपने गावँ जाना हुआ ही नही था,इस कारण अब शान्ति शरण या अन्य की सन्तति को क्या पहचानते? वीरेंद्र रात्रि को बनारसीदास जी के यहां ही रुके।बातचीत में बताया कि सब जमीन बिक चुकी है,गावँ में अब रहना दूभर है, खाने के भी लाले पड़ गये है।
वीरेंद्र ने ये भी बताया कि उसके भी एक बेटा है जो अभी छोटा है।अब वो बनारसीदास जी के पास इस विश्वास से आया है कि वे ही अपने साथ काम पर लगा लेंगे।ठीक है बेटा बुरे समय मे अपने काम नही आयेंगे तो कौन आयेगा।वीरेंद्र तुम चिंता मत करो,अपना पुराना घर खाली पड़ा है,उसमे आ जाओ, और तुम रामगोपाल के साथ दुकान जाना शुरू कर दो,ईश्वर सब ठीक करेगा।तुम निश्चिंत हो सो जाओ।
बनारसीदास जी ने खुद जीवन संघर्ष कर अब सम्पन्नता देखी थी,यही कारण था वो भूख भी समझते थे,बेरोजगारी भी जानते थे और यह भी महसूस करते थे,दुर्दिन में कैसे अपने भी मुँह फेर लेते हैं?इसीलिए उन्हें वीरेंद्र से पूरी सहानुभूति हो गयी थी।
अगले ही सप्ताह वीरेंद्र ने अपने परिवार के साथ बनारसीदास जी के पुराने वाले घर मे रहना प्रारंभ कर दिया और दुकान पर भी जाना शुरू कर दिया। वीरेंद्र के दिन बुहर गये थे।उसने अपने बेटे को अच्छे विद्यालय में दाखिला करा दिया था।शहर में घर हो गया था,जमे जमाये व्यापार में काम मिल गया था।सब ठीक चल ही रहा था,एक दिन वीरेंद्र ने रामगोपाल जी की अनुपस्थिति में बनारसीदास जी के पैर छू कर उन्हें खूब धन्यवाद दिया साथ ही कहा ताऊ जी आपने तो हमे जीवन दान दिया है,आपका अहसान हम कभी नही भूल सकते।
ताऊ जी आपके लिये तो हम जान भी दे देंगे।बनारसीदास जी बोले अरे वीरेंद्र बेटा, कैसी बात करते हो,तुम तो अपने हो अपनो पर कोई अहसान करता है क्या?किसी चीज की जरूरत हुआ करे तो बेटा रामगोपाल से बता दिया करो,वो भी तुम्हे बहुत मानता है।क्यो नही ताऊ जी,आपसे नही कहूंगा तो किससे कहूंगा?वो ताऊ जी एक बात मन मे है पर कहने में संकोच हो रहा है,पता नही आप क्या समझ ले? अरे वीरेंद्र तुम कहो क्या कहना चाहते हो,निःसंकोच कहो।
वो ताऊ जी मेरा बेटा सचिन भी बड़ा होता आ रहा है,अभी तो आपकी सरपरस्ती है,आगे पता नही क्या हो,आप ताऊ जी गलत न समझे तो मैंने एक दुकान देखी है,उसे सचिन को दिलवा दे तो उसका भी जीवन आपकी दया से संवर जायेगा।आपकी साख से अभी माल भी उधार मिल जाया करेगा,बाद में मीजान बनेगा तो उधार की है जरूरत भी नही पड़ेगी।बनारसीदास जी को वीरेंद्र की बात जँची और उन्होंने वीरेंद्र को वह दुकान दिलवाने की हामी भर दी।वीरेंद्र ने भाव विहल हो एक बार फिर बनारसीदास जी के पावँ पकड़ लिये।
अपने पिता के निर्णय पर रामगोपाल जी ने भी कोई आपत्ति नही की।उसका मानना था जो उसके पिता करेंगे वो सही ही होगा।वीरेंद्र जी को दुकान दिला दी गयी,माल भी भरवा दिया गया, मुहर्त भी सम्पन्न हो गया।
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वीरेंद्र ने अपने बेटे सचिन के साथ अपनी नई दुकान पर जाना शुरू कर दिया।कुछ ही दिनों में वीरेंद्र का काम अच्छे रूप में चलने लगा।इधर बनारसीदास जी वृद्धावस्था के कारण अस्वस्थ रहने लगे थे।तीन दिनों से तो हॉस्पिटल में एडमिट थे।डॉक्टर कह रहा था कि अब तो जब तक सांस है ठीक है,बाकी अब कुछ रह नही गया है।
रामगोपाल जी वीरेंद्र को बार बार फोन लगा रहे थे,पर मिल ही नही रहा था।आज की रात बनारसीदास जी के लिये भारी थी सो वो वीरेंद्र को भी साथ रखना चाहते थे,पर फोन नही लग रहा था।बनारसीदास जी की जैसे ही आँख लगी रामगोपाल जी नर्स से कह खुद ही वीरेंद्र के घर की ओर चल दिये जो नजदीक में ही था।
घर के पास पहुँच रामगोपाल जी घंटी बजाने को ही थे कि बराबर में ही विंडो से उन्हें वीरेंद्र और उसके पुत्र सचिन की आवाजें सुनाई दी।अनजानी जिज्ञासा वश रामगोपाल जी वहीं खड़े होकर उस वार्तालाप को सुनने का प्रयत्न करने लगे।वीरेन्द्र अपने पुत्र को समझा रहा था कि सचिन ये बाप बेटे है ना बिल्कुल अक्ल के अंधे है,देख मैं गांव से आया ,
मुझे पहले देखा तक नही,मैंने थोड़े से आंसू बहाये, पैर छुए नतीजा घर मिल गया और अब तेरे लिये दुकान।अपना तो जीवन सुधर गया ना।बेटा ध्यान रखना ताऊ हो या उसका बेटा रामगोपाल, जैसे ही सामने आवे एकदम पैर छूना और उनके एहसानों का गुणगान करना और फिर धीरे से अपनी कोई भी फरमाइश रख देना। आज का जमाना ऐसी ही रिश्तेदारी का है।
बाप बेटे का अट्हास रामगोपाल जी से आगे सहन नही हुआ।वे समझ ही नही पा रहे थे कि मुसीबत के मारे वीरेंद्र के लिये उनके पिता के सहयोग का क्या यह सिला है?कही ना कही कोई चूक तो बाबूजी और मुझसे हुई है जो वीरेंद्र के लिये इतना सहयोग करते हुए भी उसमे हमारे लिये उपहास की भावना ही आयी।खिन्न भाव से रामगोपाल जी अकेले ही हॉस्पिटल की ओर लौट आये।
बालेश्वर गुप्ता, नोयडा
मौलिक एवं अप्रकाशित।