आजकल पितृपक्ष चल रहा है।इस काल में लोग पितरों के प्रति अपनी आस्था व्यक्त करतें हैं। पितृपक्ष हर साल भाद्र मास के शुक्लपक्ष की पूर्णिमा तिथि से प्रारंभ होकर आश्विन मास की अमावस्या तिथि को समाप्त हो जाता है।हरेक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार अपने पितरों पर अपनी आस्था व्यक्त करतें हैं।इस प्रथा पर अनेक तरह की टीका -टिप्पणियाँ भी होतीं रहतीं हैं।पहले मैं भी इस प्रथा से सहमत नहीं थी।पाँच वर्ष पहले छः मास के अन्तराल में ही मेरे माता-पिता का निधन हो गया।उनके क्रिया-कर्म में काफी दिनों बाद मुझे गाँव जाने का अवसर प्राप्त हुआ। गाँव में सारे कर्मकांड बहुत वृहद तरीके से मनाएँ जा रहें थे।मैं काफी उत्सुकता से सारे कर्मकांड देख रही थी,चूँकि माता-पिता का लम्बी उम्र में देहांत हुआ था,इस कारण कोई खास गम का माहौल नहीं था।
विस्तृत कर्मकांड को देखते-देखते एकाएक मैंने बगल में बैठी अपनी चाची से सवाल किया-“चाची!क्या इतने सारे कर्मकांड ढकोसला नहीं लगतें हैं?”
चाची ने बड़ी ही सहज भाव से मेरे सवालों के जवाब देते हुए कहा-“बिटिया! हमारे सारे संस्कार जन्म,मुंडन,उपनयन से लेकर श्राद्ध तक ऐसे बनाए गए थे कि उनमें बारहों वर्ण की सहभागिता हों और उनकी जीविका भी सुचारु रुप से चलती रहें।”
चाची की बातों पर गौर करने पर मैंने पाया कि सचमुच पंडित, धोबी,कुम्हार, ग्वाले से लेकर सभी वर्ण इस कर्मकांड में शामिल थे तथा उनकी भूमिका महत्वपूर्ण थी।उनके सहयोग के बिना सारे कर्मकांड असंभव थे।चाची की बातों ने मुझपर गहरा असर किया।उसके बाद से मैंने पितृपक्ष के बहाने ही पंडित जी तथा अन्य जरुरतमंद लोगों को कुछ देना शुरु कर दिया।पितरों की आत्मा संतुष्ट होती है या नहीं,मुझे पता नहीं!परन्तु जरुरतमंदों की संतुष्ट आत्मा देखकर मेरे चेहरे पर सुकून के भाव आ जातें हैं और मेरे सुकून भरे चेहरे को देखकर पितरों की आत्मा अवश्य संतुष्ट होती होगी!
समाप्त।
लेखिका-डाॅ संजु झा।