पिता का त्याग” – भावना ठाकर ‘भावु’ 

कमल को बचपन से लेकर उसके पिता के गुज़रने तक की एक-एक बात आज याद रही थी। पिता के त्याग पर फ़ख़्र महसूस हो रहा था और अपनी बेरुख़ी पर गुस्सा आ रहा था। नींद कोसों दूर जा चुकी थी, एक बेचैनी ने उसके वजूद को घेर रखा था। शीतल ने कमल को इतना परेशान पहले कभी नहीं देखा था।

कमल के सर पर हाथ रखकर शीतल ने पूछा, क्या हुआ कमल आज नींद नहीं आ रही? तबियत तो ठीक है न। शीतल को पता था दो पेग पीते ही कमल घोड़े बेचकर गहरी नींद में सोने वाला इंसान है, उसके बदले पौनी बोतल पीने के बाद भी आज न जानें क्यूँ करवट पर करवट ले रहा है। 

कमल शीतल से लिपट कर सिसकियाँ भरते छोटे बच्चे की तरह रोने लगा और बोला, यस शीतल आज दस बोतल भी पेट में उड़ेल दूँ न तो भी नींद नहीं आएगी। आज मेरा रोम-रोम जल रहा है, क्यूँकि आज मेरे पापा की बरसी है। आज मैं पापा के प्यार को तरस रहा हूँ।

जीते जी रत्ती भर सुख नहीं दिया मैंने उनको। जिनकी मुझे पूजा करनी चाहिए थी उस इंसान की मैंने कभी कद्र नहीं की। जिसने मेरी ज़िंदगी संवारने के लिए अपनी ज़ात घिस डाली उस इंसान के दिल तक पहुँचकर उनकी तकलीफ़ जानने की कोशिश भी नहीं की मैंने।

मेरे पापा देवता थे, बस एक ज़ुर्म था उनका कि वह गरीब थे और उस इंसान से मैं इसलिए नफ़रत करता रहा क्यूँकि वह गरीब था। क्यूँ मैं इतनी सहज बात को समझ नहीं पाया कि हर इंसान की औकात एक सी नहीं होती सबको अपनी किस्मत के मुताबिक उपरवाला देता है। हर कोई अरबपति नहीं होते। किसी और के घरों की चकाचौंध के साथ अपने सामान्य पिता की आय से तुलना करके उनको बात-बात पर नीचा दिखाता रहा। 

ये जो आज हम इस आलिशान 4 बीएचके वाले घर में नर्म गद्दों पर रेंग रहे है वो उस नि:स्वार्थ इंसान की देन है।



मुझे अपनी गरीबी से बेहद नफ़रत थी, मेरे आस-पास और स्कूल कालेज में रईश खानदान के नबीरे जब बाइक और गाड़ी में बैठकर रोब ज़ाडते आते थे तब खुद को बहुत बौना महसूस करता था मैं। मुझे अपने बाप पर गुस्सा आता था और घिन्न आती थी

कि क्यूँ कहीं से ज़्यादा पैसे कमा कर मुझे भी उन सारे बच्चों की तरह सब लाकर नहीं देते। मेरे पापा ने अपनी हैसियत से ज़्यादा मेरी हर जरूरतें पूरी की। रात-दिन काम करके मुझे पढ़ाया उनका एक ही मकसद था मैं पढ़ लिखकर बड़ा आदमी बनूँ।

जो उनको नहीं मिला वो सब मुझे देने की कोशिश करते थे। दो जोड़ी कपड़े में पूरा साल निकाल देते थे पर मुझे जब मांगूँ खरीद कर देते थे। चप्पल में न जानें कितने टांके लगवाकर चलाते थे, खुद साइकिल पर घूमते थे पर एक दिन जब मेरी नाराज़गी पर सेकेंड हैंड बाइक कहीं से खरीद कर लाए

तब मैंने बाइक को लात मारकर कहा था, नई खरीदने की हैसियत हो तभी बाइक दिलाना, नहीं चाहिए मुझे किसीकी उतरन। उस दिन पापा मम्मी के काँधे पर सर रखकर खूब रोए और बोले, हे ईश्वर अगले जन्म में या तो मुझे इस लायक बनाना की अपने बच्चे को राजकुमार की तरह रख पाऊँ,

या मुझे बेऔलाद रखना। इस जन्म में मेरी हैसियत नहीं तो कहाँ से बेटे के सपने पूरे करूँ। फिर भी मेरा दिल नहीं पिघला कितना खुदगर्ज़ था मैं, मुझे अपने गरीब बाप से नफ़रत क्यूँ थी उनका क्या दोष था। 

यार ये जो पिता होते है न भगवान से कम नहीं होते, चट्टान की तरह अपने बच्चों की मुश्किलों को अपने सीने पर झेलते है। बच्चें बड़े सेलफ़िश होते है अपने ही सुख की परवाह होती है। क्यूँ कभी मैंने ये नहीं सोचा की मैं कोई छोटा मोटा काम करके अपने बाप की झुकी रीढ़ से थोड़ा बोझ कम करूँ। क्यूँ उनका दर्द, उनकी बेबसी, उनकी लाचारी मैंने महसूस नहीं की। 

जानती हो शीतल उस महान इंसान ने मेरी ज़िंदगी बनाने के लिए क्या किया? जब ये नौकरी लगनी थी तब दो उम्मीदवार थे एक मैं और एक किसी राजकारणी का बेटा जो पैसे के दम पर ये नौकरी हासिल करना चाहता था, पर मेरे गरीब बाप के पास पैसे नहीं थे

तो उन्होंने अपनी किडनी एक दौलतमंद को बेचकर बदले में पैसे लिए और उस राजकारणी से डबल पैसे देकर मुझे ये नौकरी दिलवाई, वरना मेरी काबिलियत कहाँ थी। किडनी ऑपरेशन के बाद इन्फेक्शन के कारण पापा चल बसे। मैं अभागा उनके लिए कुछ नहीं कर पाया।

जिस दिन पापा गुज़र गए उस दिन मैं सर पटक पटककर रोया, उस दिन मुझे महसूस हुआ कि मैं अनाथ हो गया। बड़ी शिद्दत से चिल्ला-चिल्लाकर भगवान से अपना बाप वापस मांगता रहा पर उपर जाकर कहाँ कोई वापस आता है। काश की जीते जी उनकी अहमियत समझ पाता।  

आज मैं उस पोज़िशन पर हूँ की दुनिया के सारे सुख खरीद सकता हूँ। काश कहीं ऐसी कोई दुकान होती जहाँ खोए हुए अपने भी पैसे देकर खरीद पाते तो मेरे पापा को खरीद लाता और सोने के सिंहासन पर बिठाता। शीतल इस नौकरी में पैसे ही पैसे है, पापा सुख भोगने से पहले ही चले गए। शायद किसी जन्म का मेरा ऋण चुकाने ही मेरे पिता बनें थे। जीते जी तो उनको कोई सुख नहीं दे पाया, अब मैं करोड़ों रुपये कमा कर पापा के नाम एक किड़नी अस्पताल बनवाना चाहता हूँ

, जहाँ पर हर जरूरतमंद का मुफ़्त इलाज होगा। और अगर सच में धरती पर किया हुआ दान उपर बैठे पितृ को पहुँचता है तो मुझे कपड़े दान करने है, मुझे चप्पलें दान करनी है, मुझे साइकिल दान करनी है और जी चाहता है दुनिया के सारे सुखों का दान कर दूँ और मेरे पापा जहाँ भी हो उस तक पहुँच जाए तो शायद मेरे मन को सुकून मिले। ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ अगले जन्म में मुझे उसी देवता का बेटा बनाकर जन्म दे, मैं उनका कर्ज़दार हूँ, शायद अगले जन्म में उनके ‘त्याग’ का ऋण चुका पाऊँ।

बोल न शीतल ‘आमीन’ काश की दुआ कुबूल हो जाए। शीतल ने आमीन कहते कमल को अपनी आगोश में भर लिया। पश्चात्ताप की आग में जलते कमल को शीतल की आगोश में हल्की सी शीतलता मिली तो, भूतकाल भूलने की कोशिश करते सो गया।

भावना ठाकर ‘भावु’ बेंगलोर

स्वरचित, मौलिक 

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