Moral Stories in Hindi : सरिता को पंडितों ने बार-बार समझाया था कि माता-पिता का पिंडदान भाई ही करता है।सरिता ने जिद पकड़ ली थी कि उसे भी जाना है गया।भाई ने भी समझाया उसे” तेरा जाना जरूरी नहीं दीदी।बच्चों और पति को परेशानी हो जाएगी। तू घर से ही मां-पापा को अर्घ अर्पित कर देना।”
सरिता नहीं मानी।पति को भी उसकी जिद पसंद नहीं आई थी।पता नहीं सरिता को इतनी हिम्मत कहां से आ गई थी ,कि वह टस से मस नहीं हुई।
सरिता आज भी नहीं भूली थी जब पापा को लकवा मार गया था तब,देवर की शादी की वज़ह से नहीं जा पाई थी।भाई बार – बार बोल रहा था”दीदी,पापा तुम्हें देखना चाह रहें हैं,आ जाओ ना।”सरिता की ससुराल की जिम्मेदारियां खत्म ही नहीं हो पा रही थी।सब कुछ निपटा कर जब पंहुची पापा को देखने, उन्होंने पहचाना ही नहीं।
अल्जाइमर हो गया था पापा को।शरीर का बायां हिस्सा पहले ही लकवाग्रस्त हो चुका था,और अब अल्जाइमर।बिस्तर पर निष्प्राण पड़े पापा को देखकर उतना दुःख नहीं हुआ ,जितना भाभी की सेवा देखकर हुआ।पराए घर से आई भाभी पापा की, अपने पापा की तरह इतनी देखभाल कर रही थी।पापा की अपनी बेटी कुछ भी नहीं कर पाई।भाभी से नज़रें नहीं मिला पा रही थी सरिता। उन्होंने कभी शिकायत तो नहीं की पर हमेशा बोलती थीं”सरिता,पापा तुम्हें देखने के लिए छटपटा रहे थे।जब याददाश्त ठीक थी ,दरवाजे पर नज़र टिकाए रहते थे कि सरिता आई क्या?”
भाभी के ये शब्द सरिता को जहर बुझे तीर की तरह लग रहे थे।बच्चों को पालते समय माता-पिता तो कभी भेदभाव नहीं करते,फिर बुढ़ापे में उनकी सेवा करने का दायित्व क्यों नहीं निभा पातीं बेटियां?पापा को देखकर आए कुछ महीने ही हुए थे कि खबर मिली पापा नहीं रहे।इस बार भी देख नहीं पाई। रिजर्वेशन नहीं मिलने के कारण दाह संस्कार के बाद ही पहुंच पाई थी।कितना अपमानित महसूस कर रही थी सरिता ख़ुद को,यह किसी को समझा नहीं सकती थी।
मां को पहली बार जब बिना सिंदूर के देखा तो खूब रोई थी सरिता।बड़ा सा जूड़ा और सिंदूर की लाल बिंदी माथे पर,यही चेहरा देखने की आदत थी बचपन से।उस दिन सूनी मांग और रिक्त माथे में मां ,कोई और ही लग रहीं थीं। तेरहवीं तक रुकी थी सरिता,फिर आना पड़ा वापस।इस बार वह सोच कर आई थी कि जो अन्याय पापा के साथ किया उसने,वह अब नहीं दोहराएगी।ससुराल की सारी जिम्मेदारी तो निभा ही रही थी अच्छी बहू बनकर,अच्छी बेटी क्यों नहीं बन पाई वह?
कोविड के समय मां बगीचे में गिर गई थी,कमर की हड्डी टूटी थी बुरी तरह।भतीजी की उस समय कॉलेज की परीक्षा चल रही थी ऑनलाइन,तो भाभी नहीं जा सकती थीं।बड़े कातर स्वर में अनुनय किया था उन्होंने पहली बार”सरिता बबली की परीक्षा है।तुम्हारे भैया मां को ऑपरेशन के लिए दूसरे शहर जा रहें हैं।उन्हें भी शुगर है,कैसे संभाल पाएंगे ख़ुद को और मां को?तुम आ पाओगी क्या सिर्फ दो दिन के लिए? ऑपरेशन के बाद चली जाना।भैया डरते भी तो हैं तुम्हारे ऑपरेशन के नाम से।”
पहली बार भाभी ने साधिकार कुछ कहा था और सरिता इस बार भी इतना ही कह पाई”भाभी,पूछती हूं तुम्हारे ननदोई से।यहां नागपुर में कोविड का बहुत प्रकोप है।पता नहीं क्या कहतें हैं ये?”सरिता ने फोन काटा भी नहीं था कि पति जोर से चिल्लाते हुए कहने लगे,”पागल हो क्या?पूरे शहर में इतनी मौत हो रही है। तुम्हें कैसे भेज दूं”?
सरिता समझ गई थी कि भाभी ने अवश्य ही सुन लिया होगा।इस बार भी नहीं जा पाई वह, कोविड के दौरान मां के पास।इसी भयानक कोविड में भाई ने तो नहीं सोचा ,कि कैसे ले जाएगा मां को ऑपरेशन के लिए?क्यों?क्योंकि उसके पास दूसरा विकल्प ही नहीं था।पंद्रह दिन हॉस्पिटल में रहकर मां वापस आई।सात महीने बिस्तर पर पड़ी रही।भाभी ने स्कूल की इक्कीस साल की नौकरी छोड़ दी उनकी देखभाल करने के लिए।सरिता कुछ नहीं कर पाई इस बार भी।क्या सच में वह लाचार है?या लाचारी का बहाना बनाने की उसकी आदत हो गई है।
साल भर बाद जब गई सरिता चार -पांच दिन के लिए,इस बार भाभी ने पहले की तरह मजाक में उलाहना नहीं दिया।वह भी समझ चुकी थी कि सरिता पर अधिकार नहीं है।सरिता मन ही मन मर रही थी ,अपनी असमर्थता पर।अब मां ही तो बची है,उनके पास भी रहने का समय नहीं निकाल पाती सरिता।
इधर मां काफी दिनों से बीमार चल रही थी।भाभी ने कुछ नहीं कहा था इस बार ,पर फोन पर मां की आवाज़ सुनकर समझ गई थी वह कि मां ठीक नहीं।भाई ने भी एक बार नहीं कहा अबकी आने के लिए।कितना गिर चुकी है वह अपनों की नजर से?अब उससे उसके मां,भाई-भाभी कोई उम्मीद ही नहीं रखते।
यहां किसे फर्क पड़ता है?ख़बर मिली कि मां को रायपुर ले जाना पड़ा इलाज के लिए।सरिता यह मान ही चुकी थी कि इस बार भी नहीं जा पाएगी।कोविड दोबारा फिर आ चुका था।इस बार सरिता की बेटी ने अपनी मां को हारने नहीं दिया। ज़िद करके गाड़ी बुक करवाई और पापा से कहा”पापा,मां को देख लेने दो नानी को,वरना वह जिंदा लाश बनकर रह जाएगी।
पति इस बार बेटी की ज़िद के आगे आपत्ति नहीं कर पाए।सरिता हॉस्पिटल पहुंची जब,भाई आ सी यू के बाहर ही खड़ा था।सरिता को देखकर लिपट गया और बोला”अच्छा किया दीदी, जो तुम आ गई।मुझे बहुत डर लग रहा था।”सरिता को आज पता चला कि छोटा भाई क्यों उसे बुलाता था किसी के बीमार होने पर।वह सामना नहीं कर पाता था इन परिस्थितियों का।सरिता बड़ी थी उससे तो वह उसे सदा अपने साथ खड़ा देखना चाहता था।सरिता के पास एक दिन का ही समय था।
शाम को ही लौटना था,बुकिंग पर लाए थे गाड़ी।आई सी यू के अंदर पहुंच कर मां को वैन्टीलेटर पर पड़े देखकर रोकर बाहर की तरफ भागने लगी थी सरिता।भाई ने उसका हांथ पकड़ कर कहा”दीदी,मां के कान के पास जाकर बुला ,सुन सकतीं हैं वह।देखना आंख खोल देंगी।”सरिता ने वैसा ही किया तो मां ने सचमुच आंखें खोलीं।सरिता के मन का पश्चाताप थोड़ा कम हुआ मां से मिलकर।इस बात के लिए बेटी की चिर ऋणी रहेगी।
यह सरिता की मां से आखिरी मुलाकात थी।कुछ दिनों बाद ही उनके देहावसान की खबर मिली।भरे कोविड में आखिर बेटी के साथ पहुंच गई थी सरिता। तेरहवीं के बाद आना ही पड़ा।आज दो साल हो रहे थे ,मां को गए ।भाई ने फोन पर जब बताया कि इस बार पितृपक्ष में गया जाएगा, मां-पापा के पिंडदान के लिए,सरिता ने भी कह दिया कि वह भी जाएगी।पति की आज्ञा की जरूरत नहीं समझी उसने इस बार।
बेटी ने सरिता की आंखों में संकल्प की चमक देखी तो बोली”यही बात तो कब से समझा रही थी आपको।अपने बेटी होने का ऋण तो चुकाना ही पड़ेगा,वरना नाना -नानी की आत्मा अतृप्त ही रह जाएगी।”बेटी की बातों से बहुत बल मिला सरिता को।ठीक कहा उसने,बड़ी बेटी को रानी की तरह पाला था मां-पापा ने।आज भाई दोनों को खोकर कितना अकेला महसूस करता होगा?उसे सरिता के साथ की जरूरत है और रहेगी हमेशा।
यह नियम किसने बनाया है कि पिंडदान सिर्फ बेटा ही करेगा?क्या बेटी के लिए मां-बाप की आत्मा को तृप्त करना अन्याय है? अधर्म है।?नहीं अब वह किसी पंडित,या पति की आज्ञा लेने में समय नहीं गंवाएगी।बड़ी मुश्किल से अपने बेटी होने के कर्तव्य का बोध हो पाया है ,अब इस से विमुख नहीं होगी।भाई या कोई और कभी नहीं समझ पाएगा कि यह बेटी के द्वारा माता-पिता का पिंडदान नहीं, प्रायश्चित है।भाई जब उन दोनों को जल दान करेगा,वह भी अपने पश्चाताप के आंसू मिला देगी उसमें। भविष्य में इस आत्मग्लानि के साथ तो नहीं जीना पड़ेगा कि उस पर माता -पिता का कोई अधिकार ही नहीं था।गया जाना भाई के साथ सरिता का उचित पश्चाताप होगा।
शुभ्रा बैनर्जी