माँ, मैं इतवार को सुबह आ रही हूँ… वो पिछली बार कांता मौसी हरिद्वार से कुछ लाने के लिए कह रही थी …पूछकर बता देना , ले आऊँगी ।
मंगला ! सब ठीक है ना … यूँ अचानक?
सब ठीक है । क्या मैं आप सब से मिलने नहीं आ सकती ?
धत्त ! तेरा घर है … मैं तो यूँ ही पूछ रही थी । वो मन्नु और गुड़िया की परीक्षा चल रही है तो मुझे लगा कि वहाँ भी तुम्हारे बच्चों के पेपर चल रहे होंगे तो कैसे आने की योजना बन गई?
मेरे कौन से बच्चे माँ! और मैंने क्या दुनिया का ठेका उठा रखा है? जिनके बच्चे हैं , वो देंखे अपने आप ।
आ जा बेटा ….
मंगला के कहने का लहजा देखकर उसकी माँ को याद आ गया कि देवर के बेटे मानव का जन्मदिन है 22 मार्च को …. और मंगला इसलिए वहाँ रहना नहीं चाहती । उन्होंने अपनी बहू को बेटी के आने की सूचना देने के लिए उसे आवाज़ दी —-
सुनयना , इतवार को मंगला आ रही है …. बच्चों की परीक्षा कब तक है ? बुआ के आने पर तो ये किताब खोलेंगे नहीं….देख लेना बेटा!
इनके पेपर तो शुक्रवार को ख़त्म हो जाएँगे माँ जी ! चलो ठीक है कि बुआ के साथ दो- चार दिन इनका मन बहल जाएगा और दीदी को भी अच्छा लगेगा ।
दोपहर के खाने के बाद सुनयना सास के साथ बैठी मटर छीलते हुए बोली—-
माँजी! सोलह साल हो गए पर दीदी आज तक 22 मार्च को नहीं भूली …. समझा- समझाकर थक चुके पर इस मुद्दे पर तो जैसे उन्होंने कान बंद कर लिए हैं ।
हाँ…. पर कुछ बातें इंसान के हाथ में नहीं होती , चलो फिर कोशिश करेंगे उसे समझाने की ।पता नहीं, क्या बहाना बनाकर आएगी इस बार? अब तो शायद उसकी सास और मनोहर जी भी उसके यहाँ आने का कारण समझ चुके हैं ।
हाँ…. तभी तो अब उनका फ़ोन नहीं आता वरना आपको याद है ना कि शुरू-शुरू में दीदी आपकी बीमारी का बहाना करके आई … और जब वहाँ से आपकी तबीयत पूछने का फ़ोन आया तो हम कैसे सकपका जाते थे ।
इतवार को मंगला अपने मायके पहुँच गई । हमेशा की तरह सबने खुले दिल से उसका स्वागत किया । माँ और भाई- भाभी के साथ सामान्य व्यवहार था पर 22 मार्च की सुबह , रोज़ सुबह पाँच बजे उठकर अपने और माँ के लिए चाय बनाकर लाने वाली मंगला बिस्तर पर पड़ी रही——
मंगला…मंगला ! उठ जा लाडो …. जा चाय बना ले ।
माँ, मेरी तबीयत ठीक नहीं है, मुझसे उठा नहीं जा रहा । भाभी को आवाज़ लगा लो ।
चल .. लेटी रह । सुनयना अपने- आप दे जाएगी । पूरा दिन बच्चों के साथ बच्ची बनी बैठी रहती है… कल भी कितनी बार कहा कि बेटा , दो घड़ी कमर सीधी कर ले पर ना …. तबीयत तो ख़राब होनी ही थी ।
असली कारण जानते हुए भी मंगला की माँ ने ऐसा ज़ाहिर किया कि जैसे वे बेटी के साथ घटी दुर्घटना भूल चुकी हैं ।
दीदी! चलो नाश्ता कर लो । आपके भइया पूछ रहे हैं कि डॉक्टर को बुलाएँ क्या ? बुख़ार तो लग नहीं रहा । गुड़िया को कहती हूँ कि आपकी बी० पी० एक बार चैक कर लेगी , माँजी की मशीन है ही घर में ।
सब सामान्य था । कुछ देर बाद भाई- भाभी ने ज़बरदस्ती करके मंगला को उठाया , बाहर लेकर आए ।
—- चलो , बाहर बैठकर कुछ खाओ- पीओ… मन ठीक हो जाएगा । बच्चे भी आज डरे हुए हैं कि कहीं उनके कारण ही तो बुआ की तबीयत ख़राब नहीं हो गई?
मंगला बाहर आकर बरामदे में माँ के पास बैठ गई । भाभी के ज़ोर देने पर उसने एक कप चाय के साथ दो बिस्कुट खा लिए और चुपचाप अपना पतला सा शॉल लेकर बैठ गई ।
अब कैसा जी है बेटा ! चल नहा- धो लें, फिर तुझे मंदिर ले चलती हूँ ।
मुझे कहीं नहीं जाना माँ! भगवान ने मेरे साथ क्या अच्छा किया? आज मेरा बेटा पूरे सोलह साल का हो गया होता …
इतना कहते ही मंगला माँ की गोद में सिर रखकर बहुत देर तक रोती रही । माँ की आँखों से भी अविरल आँसुओं की धारा बह रही थी पर उन्होंने गोद में सिर रखें बेटी को अपने आँसुओं की भनक तक न लगने दी । जब मंगला का मन रोने के बाद थोड़ा हल्का हुआ तो उसने कहा—-
जो गया मेरा गया माँ, किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता…
ना मंगला , परिवार में एक-दूसरे के सुख- दुख का सबको फ़र्क़ पड़ता है बेटा ! हाँ.. कई बार हम अपने मनोभावों को प्रकट नहीं कर पाते । और भगवान ने तेरे साथ अच्छा क्यों नहीं किया….
मनोहर जैसा नेक पति तेरे पास है, माँ जैसी सास है , लक्ष्मण जैसा देवर है , बहन जैसी देवरानी है , तुझपे जान छिड़कने वाले भाई- भाभी हैं , जन्म देने वाली माँ का हाथ तेरे सिर पर है, भतीजा- भतीजी हैं । क्या एक बच्चे के कारण तू भगवान की दूसरी कृपाओं को नज़रअंदाज़ कर देंगी ?
मंगला… तुझे याद है माँ गंगा की कहानी ? जिन्होंने जन्म देते ही अपने सात पुत्रों को नदी में बहा दिया था । चल .. वो तो देवी का रूप थी , उन्हें सच्चाई पता थी पर बेटा ! भगवान की मर्ज़ी के सामने सब बेबस हैं । अब तू हर साल देवर के बेटे के जन्मदिन पर वहाँ से चली आती है तो क्या कुछ बदल गया? नहीं…..
जीवन चल रहा है । पड़ोसियों और परिवार में यही तो अंतर होता है बेटा! पड़ोस तो अदला-बदला जा सकता है पर परिवार बदला नहीं जाता । कहीं चली जा तू उसी परिवार की बड़ी बहू रहेगी ।अब ठीक तेरे बच्चे के एक साल बाद भगवान ने उसी दिन देवरानी के बेटा दिया तो इसमें उस बच्चे की क्या गलती है? उसके माँ- बाप की क्या गलती है जो तूने सबको अपना दुश्मन समझ लिया ।
देख मंगला ! बहुत हो चुकी ये बेवक़ूफ़ी…. अब तो माँ- सास तेरी नादानियों पर पर्दा डालने के लिए हैं पर कल को तू अकेली रह जाएगी ।
पर माँ, मेरे वहाँ रहने से शायद उनकी ख़ुशी में ख़लल पड़े , इसलिए मैं खुद ही वहाँ से चली जाती हूँ…. जैसे चाहे मनाएँ अपने बेटे का जन्मदिन…एक बार भी किसी ने नहीं कहा कि क्यों जा रही है मंगला …. जन्मदिन के बाद चली जाना ।
देख मंगला , यूँ नहीं किसी को दोषी ठहराना चाहिए । याद कर , पहला जन्मदिन तेरी सास , देवर- देवरानी और मनोहरजी ने कितना रोका था । दो- तीन साल तक वे रोकते रहे , अब वे मानसिक रूप से तैयार हो चुके हैं कि तुम उनके बेटे के जन्मदिन पर रुकोगी नहीं, इसलिए उन्होंने कहना छोड़ दिया ।
माँ अपनी बेटी को समझा रही थी कि मंगला के पति का फ़ोन आया —-
हाँ बेटा , मैं मंगला की माँ बोल रही हूँ…… हाँ मंगला यहीं थी बस ज़रा …. अच्छा, आप आ रहे हैं । ये भी कहने की बात है, आ जाओ ।
चल उठ , नहा- धो लें , मुझे तो जो कहना था बेटा , कह दिया बाक़ी तेरी समझ ।मनोहर जी आ रहे हैं अभी ।
दोपहर बाद गाड़ी के बाहर रुकने की आवाज़ से बरामदे में बैठे घरवाले समझ गए कि मेहमान आ चुके हैं इसलिए वे स्वागत के लिए बाहर गेट पर गए ।
वाह भई ! आज तो पूरा परिवार एक साथ, अपनी माँ को भी ले आते ना ?
नानी , मेरी बड़ी मम्मी कहाँ है?
वो रही पर बेटा मानव ! आज तो तुम्हारा जन्मदिन है और तुम घूम रहे हो ।
मेरा तो जन्मदिन मनाया ही नहीं जाता बस मंदिर जाते हैं । माँ कहती है कि आज के दिन बड़ी मम्मी के साथ एक्सीडेंट हुआ था इसलिए जब तक बड़ी मम्मी उस एक्सीडेंट को नहीं भूलेंगी मेरा जन्मदिन नहीं मनाया जाएगा । बड़ी मम्मी! प्लीज़ भूल जाओ ना , मुझे दिखाओ… कहाँ चोट लगी थी? मेरे सभी दोस्त अपना बर्थडे सेलिब्रेट करते हैं… बोलो ना बड़ी मम्मी!
वो चोट ठीक हो चुकी है मानव बेटा ! तुम जाओ मामा के साथ बाज़ार से अपना केक ख़रीद कर ले आओ । तब तक तुम्हारी सुनयना मामी पकौड़े बना देंगी । भइया! मानव को उसकी पसंद का केक दिलवा लाओ । मैं और तुम्हारी मम्मी गुड़िया और मन्नु के साथ थोड़ी सजावट कर लेते हैं, आज मेरे बेटे का पहला केक काटा जाएगा ।
मंगला की माँ की आँखें भर आई पर उन्होंने हमेशा की तरह पानी की बूँदों को आँखों की कोर से टपकने नहीं दिया ।वे मन ही मन बुदबुदाई—
शाबाश मेरी बेटी ! कुछ चीजों को भूलना ही एकमात्र रास्ता है।
करुणा मलिक
# पड़ोसियों और परिवार में यही तो अंतर होता है, बेटा!