पहल – करुणा मलिक : Moral Stories in Hindi

मम्मी! सर्दियाँ शुरू हो गई है । चलो ये पुराने कपड़े किसी को दे आएँ ताकि नए कपड़ों के लिए जगह बन जाएँ ।

निक्की, क्या सारे ही गर्म कपड़े निकाल दोगे ? पहनकर देख लो ,अभी तो एकदम नए हैं । 

पर इस साल इनका फ़ैशन नहीं रहेगा मम्मी!  

दूसरे कमरे से आती अपनी पत्नी सपना और बेटे की बातचीत सुनकर  गौरव अचानक तक़रीबन चालीस साल पहले अपने घर के उस कमरे में पहुँच गया , जहाँ एक दिन उसने अपनी माँ से कहा था—-

ना मैं ये क़मीज़ नहीं पहनूँगा , ये तो बड़े भैया की थी । मेरे लिए तो कभी  नया कपड़ा नहीं ख़रीदती ।

चल ठीक है । बहस मत कर दुलारी फूफी के बाबू को दे दूँगी ।अपने से नीचे वालों को देखकर जीना चाहिए । देखा बाबू को , ना माँ ना बाप , बूढ़ी नानी  के साथ रहता है । पढ़ाई में हमेशा अव्वल आता है । भगवान करें, कामयाब हो जाए बेचारा, बड़े दुखों से पाला है इसको फूफी ने । 

ए  बालेश्वर की बहू  , कहाँ  है? सुबह से दो दफ़ा आ चुकी , क्या कपड़ों के ढेर में छिपी बैठी है । 

आ जाओ चाची , कपड़ों के ढेर में बैठी , पुराने कपड़े छाँट रही थी । बताओ इतने महँगे कपड़े आते , दो चार बार पहनते ही छोटे हो जाते । इसे छोटे को दिखा रही थी कि यह क़मीज़ पहन लेना पर कहाँ? साफ़ मना कर दिया । अच्छा, चाची कैसे आना हुआ? 

वो कल सत्यनारायण भगवान की कथा रखी है तो बुलावा देने आई थी और अपनी बड़ी परात भी निकाल लेना , मँगवा लूँगी ।

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अभी बाबू बाहर ही था , बुला लो चाची । परात घर पहुँचा आएगा। 

गौरव के पड़ोस में रहने वाली दादी ने बाहर निकल कर देखा और आवाज़ भी लगाई कि अगर बाबू आसपास होगा तो दौड़कर आएगा । बाबू तो नहीं था पर पड़ोस का दूसरा लड़का बाहर आकर बोला —-

दादी, कोई काम है क्या? बाबू तो चला गया । 

अरे बेटा , एक बड़ी परात भेजनी थी घर , कल कथा रखवाई है। चल , बाद में किसी को भेजूँगी ।

कहाँ है परात , ला मैं रख आऊँगा । पता नहीं अब बाबू आएगा भी कि नहीं? 

कहने को तो गली में  सब पड़ोसी थे पर एक दूसरे के साथ सबका रिश्ता था । किसी के घर बेवक्त मेहमान आने पर पता भी नहीं चलता था कि कौन से घर से सब्ज़ी आई या रायता ? कई बार तो बना बनाया आटा भी मिल जाता और मेहमान यह सोचता ही रह जाता होगा कि थाली में इतनी कटोरियाँ कैसे आ गई ?

जिस दिन दुलारी फूफी की इकलौती लड़की को उसके शराबी पति ने मायके में आकर पीट दिया उस दिन  दुलारी फूफी की एक चीख पर पूरा मोहल्ला इकट्ठा हो गया था ।

ख़बरदार! जो अब एक उँगली भी लगाई । दुलारी फूफी को अकेली समझने की गलती मत समझना ।लाजों के  ताऊ- चाचा और भाई ज़िंदा है । 

उस दिन तो मंगल ने लोगों से माफ़ी माँगी और लाजो को ठीक से रखने का वायदा किया पर दो महीने बाद ही लाजों अधमरी हालत में फिर से मायके आ गई । 

माँ, अब मुझसे और ना सहा जाता । काम करके दो रोटी यहीं खा लूँगी । 

दुलारी फूफी ने दो चार बड़ी उम्र के लोगों के सामने लाजो का मामला रखा पर सबने कहा —-

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फूफी, अब लाजो को वहाँ भेजने की गलती मत करना । क्या हम इतने मिलकर एक बहन को नहीं रख सकते और लाजो कौन सा बैठकर खाती है वहाँ? आदमी कहीं भी दो रोटी का जुगाड़ कर ही लेता है । भगवान की इच्छा हुई और कोई ढंग का लड़का मिला तो दूसरे ब्याह की सोच लेंगे । 

लाजो के आने के महीना भर बाद ही पता चला कि वो तो माँ बनने वाली है । दुलारी फूफी ने एकबार फिर बेटी को सोचने और अपने घर लौटने को कहा पर लाजो ने हाथ जोड़कर कहा कि वह समय से पहले मरना नहीं चाहती । 

पति ने भी कभी मुड़कर खोज खबर नहीं ली । अब रोज़ कमाकर खाने वाले लोग थे इसलिए क़ानूनी लिखित तलाक़ और मुआवज़े या ख़र्चा देने की तो कोई बात नहीं थी । 

अपनी माँ की ही तरह लाजो पड़ोसी ज़मींदारों के घर जाती । वहीं काम काज करती और इज़्ज़त की रोटी खाती । ज़मींदार होने के बावजूद भी रहने सहने और खाने पीने का तरीक़ा बेहद साधारण था । इसलिए ना तो दुलारी फूफी को और ना ही लाजो को कभी अलगाव का सामना करना पड़ा । मोहल्ले के सभी बच्चे भाई-बहनों की तरह रहते थे । खुद लड़ते और खुद ही सुलह कर लेते थे । अक्सर माता-पिता बच्चों की शिकायत सुनकर कहते —-

अरे , डाँट दिया तो क्या हो गया? ताऊ है तेरा , कुछ न कुछ तो किया होगा । बिना कारण वो क्यूँ कहेगा भला ? 

गौरव को अच्छी तरह से याद है कि कैसे माँ हर तीज त्योहार पर दुलारी फूफी के लिए नई धोती देती थी , लाजो बुआ के लिए सूट सिलवाती और बाबू के कपड़ों के लिए रूपये देती । कितना सुंदर तालमेल था , अगर माँ ने कपड़े बनवाए तो मोहल्ले के दूसरे लोगों के घर से कपड़ों के नाम पर रुपये मिल जाते । सचमुच ना दिखावा था और ना ही होड़ । 

जिस दिन लाजो बुआ सरकारी अस्पताल से बाबू को गोद में लेकर लौटी , पूरे मोहल्ले के बच्चों ने उसे घेर लिया । अपनी गोद में  बाबू को लेने की होड़  लगती । पर एक बार फिर दुलारी फूफी के ऊपर वज्रपात हो गया । 

लाजो बुआ को डिलीवरी के बाद कुछ ऐसा इंफ़ेक्शन हुआ कि डॉक्टर उन्हें बचा नहीं पाए । और दो महीने के बाबू को माँ की गोद में डालकर लाजो दुनिया से चली गई। 

दोहते को गोद में लिए दुलारी फूफी के क्रंदन से पत्थर दिल भी हिल उठे थे पर विधाता की अपनी व्यवस्था है और मनुष्य के रोने- चीखने का उस पर कोई असर नहीं होता ।

फूफी, तुम अकेली ना हो । बाबू हमारा सबका है , पल जाएगा। इसके मामा-मामियों  , नाना-नानियों और भाई बहनों से मोहल्ला भरा पड़ा है । किसी बात की चिंता मत करना । 

सचमुच कपड़े- लत्ते, खाने- पीने की तो बात ही क्या कहें , बाबू के लिए सुबह से शाम तक देखभाल करने वाले हज़ारों हाथ उपलब्ध रहने लगे । 

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दुलारी, बाबू को यहाँ पालने में लिटाकर अपना काम कर ले । मैं अख़बार भी पढ़ता रहूँगा और इसे भी देख लूँगा । 

फूफी , उठ गया था बाबू , दादी के पास खटिया पर लिटा दिया है, दूध की बोतल देकर आई हूँ, दादी देख लेगी । 

फूफी , गर्म पानी बचा है बाबू को नहला दो । बाल्टी को कहाँ उठाकर ले जाओगी , यहीं नहला कर सुला दो । 

इस तरह बाबू का बचपन पूरी गली में कभी इस दरवाज़े तो कभी दूसरे दरवाज़े , बहुत आसानी से बीत गया ।  चार साल का होने पर फूफी ने उसका नाम सरकारी स्कूल में लिखवा दिया । और बाबू के स्कूल जाने के साथ ही मोहल्ले के घरों में उसके लिए पुरानी कॉपी- किताबों का बंडल भी बांधकर रखा जाने लगा ।

अरे बेटा! तूने तो पास कर ली ये कक्षा , बांधकर ऊपर टांड पर रख दे …. बाबू के काम आ जाएँगी सारी किताबें ।

अम्मा, अभी तो बाबू बहुत छोटा है । अगर किताबें बदल गई ?

कुछ ना बदलती , बस पाठ आगे- पीछे हो जाते हैं । 

यह सब सोचकर गौरव को आज हँसी आई कि उस समय कितनी आसानी से कभी स्कूल का मुँह तक न देखने वाली अम्मा की बातों पर कितनी आसानी से विश्वास कर लेते थे । 

धीरे-धीरे बाबू ने इंटर पास कर लिया और उसका आयकर विभाग में क्लर्क के पद पर चयन हो गया । जिस दिन पहली तनख़्वाह मिली , दुलारी फूफी ने पूरे मोहल्ले में रसगुल्ले बाँटें  । दुलारी फूफी ने मोहल्ले के भाई-भाभियों और  भतीजे- भतीजियों के सामने हाथ जोड़कर कहा—

मैं बड़ी क़िस्मत वाली हूँ जो ऐसा गली – मोहल्ला मिला जहाँ पड़ोसी नहीं, भाई चारा बसता है । अगर तुम सबने एक ग़रीब विधवा और उसके दोहते को सहारा ना दिया होता तो शायद हम दोनों ही मर-खप जाते या छोटा सा बच्चा बिना सही देखरेख के ग़लत रास्ते पर चला जाता । 

समय बदला । नौकरियों के कारण गाँव- कस्बे छूटे । महानगरों में तो  लोगों के जीवन के साथ- साथ मानसिकता भी बदल गई । उसी का नतीजा है कि अब पड़ोसी अपरिचित बन गए । लोगों ने एक-दूसरे के दुख- दर्द को समझना छोड़ दिया , कुशलक्षेम पूछना तो दूर , राम- रहीम तक नहीं रही और भी न जाने क्या-क्या हो गया । 

गौरव ने मन ही मन संकल्प लिया कि दूसरे लोगों पर तो उसका वश नहीं पर वह अपने पड़ोसियों से जान पहचान ज़रूर बढ़ाएगा । पार्क में बैठे बुजुर्गों के लिए कुछ समय अवश्य निकालेगा और जहाँ तक संभव होगा नई पीढ़ी को भी पड़ोसी – धर्म से परिचित करवाएगा । 

करुणा मलिक 

# क़िस्मत वाली

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