हरिद्वार के शांतिकुंज आश्रम में एक बड़े से चीड़ के पेड़ के नीचे बनी बेन्च पर माधवी बैठी थी। वह अपनी सासू माँ नर्मदा के पुराने गठिया, दमा व स्नोफीलिया के उपचार के लिए यहाँ नारायण बाबा की शरण में आयी थी। आज तीसरा दिन है। प्रकृति की गोद में बनी हज़ारों झोपड़ियों में से एक झोपड़ी उसे भी अलॉट की गयी थी अगले पन्द्रह दिनों के लिए। नर्मदा जी अभी प्राणायाम और योगा शिविर में भाग लेने के लिए गयी हुईं थीं। पगडंडियों पर बहुत से रोगी और उनके सहयोगी या तो टहल रहे थे या फिर चिकित्सालय की ओर जा रहे थे। तभी उसकी बगल में एक महिला पाँच वर्षीय बालक के साथ आकर बैठ गयी। बालक अस्वस्थ सा दिख रहा था।
कुछ पल बीते ही थे कि उस बच्चे को खाँसी का एक जोर का ठसका आया जिससे वह बेहाल हो गया। वह महिला उसे सम्भालते हुए रोने लगी।
माधवी उनके पास सरकते हुए उनकी पीठ में हाथ फेरने लगी और बोली, “क्या हुआ है इस बच्चे को दीदी?”
महिला ने अपरिचित माधवी को असमंजस से देखा तो वह बोली, “दीदी, मैं माधवी सिंह राठौर हूँ और अपनी सासू माँ के असाध्य हो चुके गठिया, दमे व स्नोफीलिया के उपचार के लिए कानपुर से आयी हूँ। माँ अभी प्राणायाम-योगा के लिए गयी हुई हैं और मैं यहाँ उनकी प्रतीक्षा कर रही हूँ।”
आश्वस्त होने के बाद गोद में लिए बच्चे को सहलाते हुए वह महिला बोली, “मेरा नाम शिवानी है और यह मेरा बेटा ऋषि है। बहुत इलाज कराया किन्तु इसके नाक व गले का इन्फेक्शन दूर ही नहीं हो रहा है। सर्द हवा और ठंडे पानी से इसे एलर्जी है। कल शाम को बच्चे का रजिस्ट्रेशन कराकर मेरे पति वापस प्रयागराज चले गए हैं। प्राइवेट कर्मचारी हैं न इसलिए अवकाश बहुत कम मिलता है। आज अभी मैं चिकित्सालय जा रही थी कि कुछ पल आराम करने के लिए ठहर गयी हूँ यहाँ।”
“कौन सी कॉटेज में ठहरी हैं आप?”
“सी-22 में”
“अरे वाह! मैं डी-21 में जो ठीक आपके सामने ही तो है। अभी मेरी माँ को शिविर से वापस आने में एक घण्टे का समय है, तब तक दीदी यदि आप चाहें तो मैं आपकी सहायता कर सकती हूँ।”
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ऋषि के लिए दवाएँ लेकर जब तक शिवानी के साथ माधवी वापस आयी तो सीमेंट की उसी बेन्च पर नर्मदा को बैठे हुए पाया।
“अरे! आज आप जल्दी आ गईं माँ..”
“हाँ बहू। एक आकस्मिक निरीक्षण में जाने के लिए नारायण बाबा ने पन्द्रह मिनट पहले ही योग कक्षा का विसर्जन कर दिया था।”
” तो फिर आइये चलें कॉटेज की ओर। आप कुछ नाश्ता कर लें फिर काढ़ा व औषधियाँ ले लें चलकर।” माधवी ने नर्मदा जी का हाथ थामते हुए कहा।
चलते-चलते माधवी ने ऋषि व शिवानी के विषय में भी सब बता दिया। ऋषि की स्थिति को देख कर नर्मदा जी भी बहुत चिंतित हुईं और बोलीं, “शिवानी बेटा, अब किंचित भी चिंतित न होना। यहाँ पहाड़ की गोद में आधा उपचार तो प्राकृतिक जलवायु कर देती है और शेष उपचार नारायण बाबा जी की औषधियाँ। ऋषि यहॉं से बिल्कुल स्वस्थ होकर ही जायेगा।”
भावुक होकर शिवानी ने आँचल के छोर को पकड़ कर नर्मदा जी के चरणों में झुक गयी।
उसके सिर पर हाथ फेरते हुए नर्मदा जी न कहा, “उठो बेटी, प्रभु पर आस्था बनाये रखो। सब ठीक हो जाएगा।”
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अगली सुबह नर्मदा जी को योग शिविर में छोड़कर माधवी कॉटेज में चली आयी और सामने की कॉटेज खुली देखकर धीरे से पुकारा, “दीदी!”
“आ जाओ माधवी।” अंदर से शिवानी की आवाज आयी।
भीतर जाकर देखा तो एक चटाई पर ऋषि आराम से सो रहा था जबकि उसी के पास बिछी दूसरी चटाई पर शिवानी बैठी थी।
“शायद ऋषि को आराम है उपचार से।”
“हाँ। सुबह-सुबह जलनेति का पहला प्रयास किया गया है जो आशानुरूप तो नहीं रहा किन्तु उससे आराम तो बहुत दिख रहा है मुझे। आने के बाद से सो ही रहा है ऋषि।” शिवानी ने प्रफुल्लित होते हुए कहा।
“धीरे धीरे यह स्वस्थ भी हो जाएगा दीदी।” माधवी ने शिवानी के कंधे सहलाते हुए कहा तो वह भावुक हो गई और बोली, “इसके पापा को भी जुकाम हो जाती थी तो बड़ी कठिनाई से दूर होती थी। उन्हें भी ठण्डे पानी और ठण्डी हवा से एलर्जी थी उनको।”
“थी…! मतलब?”
शिवानी एकदम से चौंक गई माधवी की इस प्रतिक्रिया से। वह उसे देखने लगी और फिर दृष्टि फेर कर ऋषि को देखने लगी। देखते ही देखते उसकी आँखों से झर-झर आँसू गिरने लगे।
“दीदी, जो भी गाँठ बाँध रखी हो हृदय में उसे खोल दो आज और भविष्य में फिर कभी न रोने के लिए आज ही जी भर कर रो लीजिये।” माधवी ने शिवानी को बाहों में भर कर माथे को चूमते हुए कहा तो शिवानी सहसा उससे लिपट गयी और फफक फफक कर रोने लगी। माधवी उसकी पीठ को धीरे धीरे सहलाने लगी।
कुछ देर बाद जब शिवानी कुछ संयत हुई तो उसने अपने आँसू पोछे और सम्भल कर बैठ गयी फिर ऋषि के चेहरे पर हाथ फेरते हुए कहा, “ऋषि मेरे पहले पति का बेटा है।”
“पहले पति का बेटा..!!” इस बार माधवी चौंक गई।
“सुनो माधवी.. आज पहली बार मैं यह सब किसी तीसरे के सामने उजागर कर रही हूँ। मैं देहरादून के एक गरीब माँबाप की बड़ी बेटी हूँ। मेरी एक छोटी बहन भी है। हमारी एक फूलों की दुकान है जिसे मैं और माँ ही देखते थे क्योंकि पापा चलफिर नहीं पा रहे थे। एक दिन जब मैं दुकान में फूल सजा रही थी तब डिफेंस अकेडमी के कुछ नौजवान आये और गुलाब का एक बड़ा बुके बनाने को कहा। जबतक मैं बुके बनाती रही तबतक एक जवान खड़ा रहा जबकि दूसरे बाज़ार में कुछ दूसरी वस्तुएं लेने चले गए। जब मैं बुके देने लगी तो उस जवान ने मुझसे गुलाब का एक फूल और खरीदा और वापस मुझे देते हुए कहा,’यह आपके लिए।’
मैं हक्काबक्का रह गयी। मैं कुछ कह पाती कि उसने फिर से कहा,’ले लीजिए प्लीज, मेरे साथी आ रहे हैं और इस दशा में देखकर वे मेरा उपहास उड़ाएंगे।’
मैंने उसके साथियों को आते हुए देखा तो उसके हाथ से फूल झपट लिया और ओट में जाकर मुस्कुराने लगी। यह थी मनोज के साथ मेरी पहली भेंट।
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उसके कमीशन्ड ऑफिसर बनते बनते हमारा प्यार मजबूत होता चला गया। पास आउट परेड के समय उसके मातापिता आये तो उसने उन्हें हमारे प्यार के विषय में बता दिया। बेमन से ही सही किन्तु वे मेरे माँ पापा से मिले और मनोज के लिए मेरा हाथ मांग लिया।
विवाह का दूसरा साल था और मैं तीन माह की गर्भवती थी। उन्हीं दिनों मनोज एक सर्च ऑपरेशन के दौरान मेघालय के जंगलों में विद्रोहियों की गोली के शिकार हो गये। अगले कुछ माह मेरे जीवन में बहुत उथल पुथल भरे रहे। मेरे सास-ससुर को कम्पेनशेसन की आधी राशि व शेष आधी राशि मुझे मिली। मेरे ससुर मुझे मिली राशि को उन्हें देने का दबाव बनाने लगे। मेरे सामने मेरे अजन्मे शिशु का भविष्य था अतः मैं इनकार करती रही। और अंत में वह दिन भी आया जब मुझे प्रसव की पीड़ा उठने लगी तब उससमय भी उन्होंने मुझसे उक्त राशि को उनको सौंपने को कहा जिसे मैंने ठुकरा दिया तो उन्होंने मुझे लखनऊ के ठाकुरगंज स्थित अपने आवास से बाहर निकाल कर दरवाजे बंद कर दिये।
किसी तरह मैं एक सरकारी अस्पताल पहुँची क्योंकि आर्मी से सम्बंधित कार्ड आदि सब वहीं छूट गए थे। भर्ती होने के बाद मैं बेहोश हो गयी।
जब चेतना लौटी तो मेरे बगल में मेरा नवजात लेटा था। बेड के एक तरफ एक नर्स खड़ी थी जबकि दूसरी तरफ एक नवयुवक। मुझे अपनी ओर देखता हुआ पाकर नर्स ने कहा,’बधाई हो, आपको बेटा हुआ है। इमरजेंसी थी इसलिये आपको एडमिट तो कर लिया गया था लेकिन कुछ पेपर फॉर्मेलिटीज के लिए आपको अपना नाम पता आदि बताना होगा मैम।’
नर्स की बात सुनकर मैं भावविह्वल हो गयी और अपने बेटे को चूमने लगी। फिर रोते रोते कहा, ‘मेरा नाम शिवानी है और एक सैनिक की विधवा हूँ। इसके सिवा मैं सबकुछ भूल चुकी हूँ।’
‘ऑपरेशन के दौरान आपको दो यूनिट रक्त की आवश्यकता पड़ी थी जिसकी सूचना नोटिसबोर्ड में चिपका दी गयी थी। इस देवदूत ने दो यूनिट रक्त देकर आपकी जान बचाई है।’
उस नवयुवक को देखकर मैंने कृतज्ञता से हाथ जोड़ दिए। उसने मुस्कुरा कर अपनी पलकें झपका दीं और फिर चला गया।
अगले दिन जब मैं अपने भविष्य के विषय में सोच रही थी कि क्या बूढ़े माँबाप के पास वापस देहरादून लौट जाऊँ या फिर क्या सासससुर पर वाद दायर करूँ? देहरादून वापस जाकर माँबाप को अनावश्यक मानसिक सन्ताप नहीं देना चाहिए और दिवंगत पति के प्रिय मातापिता पर वाद दायर करके उन्हें अपमानित भी नहीं करना चाहिए। यही सोच कर हृदय ने दोनों ही विचारों को तिरोहित कर दिया। फिर अब? तभी वह नवयुवक कुछ फल ले कर बेड के समीप आया और स्टूल लेकर पास ही बैठ गया। एक सेब काटकर मुझे खिलाने लगा। मैं झिझक रही थी। मेरी झिझक देख कर वह बोला, ‘मेरा नाम रोहन है और मैं अनाथ हूँ। किसी तरह से पढ़लिखकर नौकरी के लिए इन्टरविव देने के लिए कल यहाँ आया था। वापसी में हमारी ऑटो का एक्सीडेंट हो गया। कई लोग घायल हो गए थे किंतु मुझे हल्की सी खरोंचें ही लगीं थीं। मैं भी घायलों के साथ हॉस्पिटल आया हुआ था और यहॉं पर रक्तदान की आवश्यकता देखी तो रक्तदान कर दिया। कमाल देखिए कि आज सुबह ही कम्पनी की कॉल आ गयी और मुझे प्रयागराज की यूनिट में जॉब मिल गया। यह बच्चा मेरे लिए लकी चार्म बन गया है। क्या मैं आपको अपनाकर इसके पिता के स्थान पर मेरा नाम लिखा सकता हूँ।’
यह सब इतना अप्रत्याशित और शीघ्रता में घटित हुआ कि मेरा मस्तिष्क संज्ञाशून्य होने लगा। मुझे ध्यान है कि जब मैं संज्ञान में आयी तो मैंने अपने हाथों से उसकी कलाई पकड़ रखी थी।
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रोहन मुझसे उम्र में दो वर्ष छोटा है किन्तु बहुत परिश्रमी और देखरेख करने वाला है। ऋषि को वह अपने बेटे जैसा प्यार दे रहा है। मैं बहुत खुश और सन्तुष्ट भी हूँ। एकाकी और प्रसन्न वातावरण में एक बार जब मैंने उसे अपने अतीत के विषय में बताना चाहा तो उसने मेरे अधरों में चुम्बन लेते हुए कहा था,’शिवानी प्लीज, भूत को भूलकर वर्तमान को देखो और भविष्य की चर्चा करो.. बस्स!’ उसे नहीं पता कि मैं किस परिवार की बहू थी, ऋषि के पिता का नाम क्या है या मेरे पास कितने रुपये हैं.. वह दिन और आज का दिन .. माधवी सच में मैं अतीत भूल ही गयी थी।”
“ईश्वर से प्रार्थना है दीदी कि आपका परिवार सदैव हँसता खेलता रहे।” माधवी ने कहा।
“माधवी, कुछ अपने विषय में भी बताओ न प्लीज।” शिवानी ने कहा तो माधवी बोली, “बिल्कुल दीदी, कल इसी समय। अभी तो माँ को ले आने का समय हो गया है। अब चलती हूँ।”
कह कर माधवी उठ खड़ी हुई तो शिवानी ने कहा, “ठीक है। अभी जाओ किन्तु कल प्रतीक्षा रहेगी।”
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योग, प्राणायाम, उपचार और औषधियों की सघन प्रक्रिया में अगले दस दिनों तक सुप्रभातम-नमस्कारम के अलावा शिवानी और माधवी की बैठक नहीं जम सकी। आज जब नर्मदा जी व ऋषि के स्वास्थ्य में आशातीत सुधार दिख रहा था तो इनकी औषधियों व देखरेख में कुछ शिथिलता दी गयी थी ताकि इनके शरीर की रोगरोधी प्राकृतिक क्षमता का सृजन हो सके। जब इमली के बड़े से पेड़ के नीचे नर्मदाजी व ऋषि खेल रहे थे तब वहीं थोड़ी दूर पर घास पर एक चटाई बिछाकर शिवानी व माधवी बैठे बैठे उन्हें निहार रही थीं व प्रसन्न भी हो रही थीं।
सहसा दूर क्षितिज की ओर देखते हुए माधवी बोली, “दीदी, मेरी एक नन्ही सी कहानी है। मैं सासू माँ के एक दूर के सम्बन्धी की बेटी हूँ जिसे उन्होंने अपने बेटे शिवम के लिए पसन्द कर लिया था। शायद उनके बेटे जी इस सम्बंध से प्रसन्न नहीं थे किंतु माँ को मना भी नहीं कर सके। शीघ्रतिशीघ्र सम्पन्न हुए हमारे विवाह के दूसरे ही दिन वे कहीं चले गए और फिर आज पाँच वर्ष होने को हैं, वे वापस नहीं आये। मुझे अभी भी उनकी प्रतीक्षा है। मुझे पता है कि वे मेरे लिए नहीं किन्तु अपनी माँ के लिए अवश्य लौटेंगे। सासू माँ को एकाकी छोड़कर मैं कहीं जा भी तो नहीं सकती अब। हमारा एक अनोखा रिश्ता बन चुका है। मैं सेवा करने के बाद सासू माँ की गोद में सिर रखकर सो जाती हूँ। प्रतीक्षा तो माँ को भी है अपने बेटे की पर वे मेरे सामने कभी व्यक्त नहीं करतीं।”
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“क्या सच में माधवी?” आश्चर्य से शिवानी ने कहा।
“जो कुछ भी कहा है वह अक्षरशः सत्य है दीदी।” माधवी ने शिवानी का हाथ थामते हुए कहा।
“क्या तुम्हारे पास कोई चित्र भी नहीं है तुम्हारे पति का?”
“दीदी, मैंने तो उन्हें दृष्टि भर कर देखा भी नहीं। पहली रात को ये मित्रों के साथ बाहर रहे। सुबह आये और नहाकर बिना बताए कहीं चले गए फिर आये ही नहीं। घर पर कुछ चित्र हैं इनके जिन्हें देखा है मैंने।” भरे नयनों से माधवी ने कहा तो शिवानी ने उसे गले से लगा लिया और पीठ थपथपाने लगी।
तभी शिवानी का फोन बजा। बातचीत से लग रहा था कि वे अपने पति को ऋषि के स्वास्थ्य का अपडेट दे रहीं थीं। बात करने के बाद वे हँसकर बोली, “रोहन का फोन था।”
“जी दीदी, मैं समझ गयी थी।” मुस्कुराकर माधवी ने कहा।
तब शिवानी ने अपने मोबाइल की स्क्रीन पर अपने पति के चित्र को स्थिर करते हुए माधवी से कहा, “देखो, ये रहा मेरा रोहन..”
शरमाते हुए माधवी ने कहा, “नहीं दीदी, अच्छा नहीं लगता इस तरह किसी के पति को देखना।”
“अरे पगली! तू साक्षात तो नहीं देख रही न, यह तो फोटो है। अच्छा ठीक है, ये अपने जीजा जी की फोटो समझ कर देख ले। ले देख ना अब।”
शिवानी ने प्रेम भरी मनुहार की तो माधवी ने शिवानी के हाथों से मोबाइल लेकर उसकी तरफ पीठ कर के चित्र को देखने लगी।
पर्याप्त समय के बाद भी जब माधवी ने न शिवानी की तरफ देखा और ही उसका मोबाइल लौटाया तो शिवानी ने कहा, “माधवी, अपने जीजा जी को इतने गौर से क्या देख रही है.. लाओ मोबाइल दे दो।”
उसी दशा में बैठे-बैठे माधवी ने मोबाइल वापस किया तो उसकी स्क्रीन को गीला पाकर शिवानी ने झुककर माधवी के चेहरे को दीखते हुए बोली, “माधवी, यह क्या?”
शिवानी ने पाया कि माधवी का चेहरा आँसुओं से गीला था तथा वह धीरे धीरे सुबक भी रही थी।
अचरज से कभी रोहन के चित्र को तो कभी माधवी के चेहरे को देखकर शिवानी ने कहा, “माधवी, कुछ तो बोलो। क्यों रोयीं तुम इस चित्र को देखकर..!”
अपने आँसू पोछकर तनिक संयत होकर माधवी ने कहा, “दीदी, जिनकी मैं प्रतीक्षा कर रही हूँ, वे यही सज्जन हैं। लेकिन… दीदी आज इस प्रतीक्षा का अंतहीन अंत हो गया। मैं बहुत प्रसन्न हूँ कि उन्होंने एक बलिदानी वीर सैनिक की गर्भवती पत्नी को तब सहारा दिया जब वह अत्यंत दयनीय स्थिति में थीं। आपको शपथ है कि आप उन्हें उनके अतीत की जानकारी के विषय में कभी कुछ नहीं बताएंगी। आप सभी यूँ ही सदैव प्रसन्न व स्वस्थ रहें। दीदी, सच में अब मैं उनकी परित्यक्ता बन कर सहर्ष जी लूँगी।”
“परित्यक्ता..? कैसी परित्यक्ता?” नर्मदा जी की आवाज सुनकर दोनों चौंक गयीं।
“मैंने सब सुन लिया है और शिवानी बेटी के मोबाइल में शिवम की फोटो भी देख ली है। बेटी माधवी, अब मैं भी खुश हूँ कि शिवम अपने जीवन में प्रसन्न तो है और रही बात तेरी… तो तू अब परित्यक्ता तो तब रहेगी तब मैं रहने दूँगी। तेरी माँग में टिमटिमाता हुआ यह सिन्दूर शिवम नहीं तो किसी और के नाम का पड़ेगा…. पर पड़ेगा अवश्य। एक नया रिश्ता बनेगा।”
“लेकिन माँ जी यह शिवम और रोहन का क्या चक्कर है?” विस्मित सी शिवानी ने प्रश्न किया।
“दोनों मेरे बेटे के ही नाम हैं। रोहन उसका स्कूली नाम है जबकि शिवम उसका घरेलू नाम।” मुस्कुराते हुए नर्मदा जी रहस्योद्घाटन किया।
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डेढ़ वर्ष बाद..
माधवी अपने नवजात बेटे को गोद में लिए पति ललित के साथ जब अस्पताल से घर के द्वार पर पहुँची तो नर्मदा जी मंगल कलश व आरती की थाल के साथ देहरी पर उपस्थित थीं। आरती उतार कर पौत्र की बलैयां लीं और गोद मे लेकर बोलीं, “आ गया मेरा नारायण! मेरे बुढापे की लाठी और मेरा साथी।” कोमल कपाल पर चुम्बन अंकित करते हुए माधवी से बोलीं, “अब तनिक शिवानी बेटी को फोन लगाकर मुझे दे दो।”
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सन्ध्या वेला में ऑफिस से आकर जब रोहन ऋषि के साथ खेल रहा था तब शिवानी ने एक प्याली चाय उसे देकर दूसरी प्याली से स्वयं सिप करते हुए बोली, “ऋषि बेटे, अपना होमवर्क कर लीजिए जाकर।”
“ओके मम्मी जी।” कह कर ऋषि उछलता हुआ स्टडीरूम में चला गया।
उचित अवसर देखकर शिवानी ने कहा, “रोहन, मैं जो कुछ कहने जा रही हूँ उसे आप धैर्य से सुनें। आज दोपहर में नर्मदा माँ का फोन आया था। उन्होंने बताया कि पिछले वर्ष उन्होंने आपकी बरेली वाली रंजना मौसी के बेटे ललित के साथ माधवी की शादी कर दी थी। परसों ही माधवी ने एक बेटे को जन्म दिया है। अगले दो दिन बाद छठी सम्पन्न होनी है। इस अवसर पर माँ जी ने हमें वहाँ ससम्मान आमंत्रित किया है। रोहन! हम वहॉं जा रहे हैं।”
“क्या.. मगर यह सब …उफ्फ! स्वार्थी बेटा बनकर मैं कैसे माँ का सामना कर सकूँगा..” पश्चाताप की अग्नि में भस्म होता हुआ रोहन अपना सिर पकड़ कर रो पड़ा।
समीप बैठकर उसका सिर सहलाते हुए शिवानी ने फिर कहा, “कुछ और भी बताना है आपको…” फिर वह अपनी व मनोज की पूरी बात बताते हुए कहा, “मेरे खाते में इस समय जो भी तीस – पैतीस लाख रुपये हैं वे ऋषि के भविष्य के लिए हैं। आप इनका सदुपयोग कर सकते हैं।”
रोहन किंकर्तव्यविमूढ़ बना बैठा रहा और कमरे की छत को अपलक घूरते हुए आँसू बहाता रहा जिन्हें शिवानी अपने दुपट्टे से साफ करती जा रही थी। वर्षों का ठहरा हुआ समुद्र आज छलक उठा था।
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छोटे से पारिवारिक कार्यक्रम के बाद रात में जब बड़े से हाल में नर्मदा अपने दोनों बेटों, बहुओं और पौत्रों के साथ बैठीं थीं तब रोहन ने अपनी ब्रीफकेस से लिखा हुआ एक स्टाम्प पेपर निकाल कर माँ की तरफ बढ़ाया। शिवानी सहित सबके सब चौंक पड़े।
“क्या है यह?” निर्विकार भाव से नर्मदा जी ने पूछा।
“माँ, यह शपथपत्र है कि रोहन उर्फ शिवम का नर्मदा जी की चल अचल संपत्ति से कोई लेना देना नहीं है। आप स्वतन्त्र हैं इसे किसी को भी देने के लिए।”
“मैं तो पहले ही अपना सबकुछ अपने नारायण को ही अर्पित कर चुकी हूँ। मुझे इस कागज की आवश्यकता नहीं है।” कहकर वे उसे उठाकर दुलराने लगीं और नन्हा नारायण अपनी बड़ी बड़ी आँखों से टुकुर-टुकुर देखते हुए अपनी दादी जी के होंठों को पढ़ने का प्रयास करने लगा।
।। इति ।।
मौलिक रचना:©जयसिंह भारद्वाज, फतेहपुर (उ.प्र.)