परीक्षा भवन – पूनम शर्मा : Moral Stories in Hindi

आज से हाॅफ-ईयरली का लिखित परीक्षा आरम्भ हो गया है। वंदना जब विद्यालय के स्टाफ रूम में पहुँची तो, उसे मोबाइल पर ड्युटी रूम को तलाशती रिया दिखी। वह मोबाइल में देखते हुए इक्जामिनेशन रूम की ओर जा रही थी, कि वह उससे टकराई। ‘साॅरी मैम, गुड माॅर्निग मैम’  के साथ माफी और अभिवादन का सम्यक भाव प्रकट करते हुए, तेज कदमों से आगे बढ़ गई।

वंदना भी अपने जरूरी सामान निकाल पर्स कवर्ड में डालकर उसी गन्तव्य की ओर प्रस्थान की । उसके कदमों  में हड़बडी़ नहीं थी, क्योंकि उसका इंविजलेशन रूम रूम नं0 25 ठीक इक्जामिनेशन रूम के सामने था। लाल और नीला कलम बाएँ हाथ में सम्हालते हुए वह दाहिने हाथ से अपने रूम का लिफाफा उठाई और वह अपने रूम नं0 25 में पहुँची।

अव्यवस्थित तरीके से बैठे बच्चे उसे देखते ही गुड माॅर्निगं का अभिवादन करते हुए अपने निर्धारित स्थान पर जाने लगें। इस रूम में अलग-अलग उम्र समूह के बच्चों को देख उसकी निगाह लिफाफे पर पेस्ट सिटिंग प्लान पर गई। उसे देखते ही समझ गई कि, इसमें जूनियर और सिनीयर दोनों ग्रुप के बच्चें हैं।

वह अपने स्वाभाविक अंदाज में  बच्चों को नकल न करने की हिदायत देती हुई, स्टडी मैटेरीय बाहर रखने को कहा। एक बार फिर वह कक्षा का निरीक्षण की, फिर उपस्थिती अनुक्रमांक के अनुसार लिख, अपने कलाई घडी़ पर नजर दौडा़ई और देखी, पाँच सेंकेंड बेल लगने में बाकी था। लिफाफा से क्लास के अनुसार प्रश्न-पत्र सम्हालते हुए वितरण के लिए तैयार हो गई ।

बिना वक्त गवाएँ  प्रश्न-पत्र वितरण करके, उसने उत्तर पुस्तिकाओं को प्रत्येक छात्र के टेबल पर रख दिया। लगभग पैतालिस मिनट ही गुजरा था, कि पीछे बैठे आयुष की हरकत आरंभ हुई। उसने उसी पल उसे वहाँ से बुलाकर ठीक अपने टेबल के सामने बिठा दिया। वह अपने टेबल से टेक लगाए लगातार छात्रों की निगरानी रही थी।

उसकी निगाह कक्षा की निशिका पर पडी़। वह थोडी़-थोडी़ देर पर उसकी ओर सिर झुकाए ही तिरछी नजर से देख रही थी। लगभग डेढ़ घण्टा गुजर चुका था। पूरी कक्षा में शांति बनी हुई थी, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा था, छात्रों में हलचल शुरू हुई। एक और बच्चे को उसके सीट से उठाकर उसने अपने चेयर पर बिठाकर कक्षा की दीवार की ओर उसका मुँह करा दिया । 

इसके बाद एक बार फिर कक्षा में सन्नाटा पसर गया। बच्चों में इधर-उधर देखने की हरकत थम गई । उसे पता था कि, अगर वो थोडा़ भी बच्चों के साथ हमदर्दी दिखाई तो, कक्षा उसके नियंत्रण से बाहर हो जाएगी।

‘बी’ काॅपी देते हुए फिर उसकी निगाह एक बार फिर निशिका पर पडी़। वह सिर झुकाए रुआँसी सी लगी। वह उसके पास जाकर उसके सिर पर हाथ रखते हुए बोली-‘ क्या हुआ बेटा?’  मैम की आवाज़ सुनकर उसके सब्र का बाँध टूट गया। वह फफक कर रोते हुए बोली- ‘ मैम मुझे कुछ भी नहीं आ रहा है। मैं क्या करूँ? मैं फेल हो जाऊँगी।’ उसे देख अमित धीरे से भुनभुनाया- ‘ मैम बच्ची है, उसे देखने दीजिए।’  वंदना ने लगभग डाँटते हुए स्वर में अमित को तो चुप करा दी।

  लेकिन अंतिम के आधे घंटे में वह अपने ही अंतर द्वंद्व में उलझ रही थी। उसका भावुक मन उस बच्ची को बताने के लिए उद्वेलित कर रहा था तो वहीं विवेक सख्ती के साथ कर्तव्य पथ पर अडिग रहने के लिए प्रेरित कर रहा था। इस उहापोह में परीक्षा का वाॅर्निंग बेल बज गया। वह छात्रों से उत्तर पुस्तिका एकत्र करने लगी।

उसे बच्ची के लिए दुःख तो हो रहा था और वह मदद भी करना चाह रही थी, लेकिन उसका कर्तव्य बोध उसे ऐसा करने की गवाही नहीं दिया। अंततः सबसे अंत में वह निशिका की काॅपी लेकर  बेल लगते ही  छात्रों को कक्षा से भेजने लगी। वह काॅपी जमा करके जब लौटी तब तक निशिका जा चुकी थी, लेकिन वंदना उसके शब्द जाल से मुक्त नहीं हो पा रही थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह स्वयं को अपराधी समझे या कर्तव्य निष्ठ। वह कितना न्याय या अन्याय की भागीदार है? यह प्रश्न उसके समझ से परे था।

 वह विद्यालय से छूटने के बाद स्कूल बस पर घर जाने के लिए सवार हुई। बैठे- बैठे वह बस में आज उसी के बारे में सोच रही थी। उसे बार-बार उसकी बेचैनी सता रही थी। वह चाह रही थी, कि काश उस बच्ची के समस्या का भी हल निकल आता। उसे अपना बचपन याद आने लगा था। वह दृश्य उसे आज भी स्पष्ट है।

जब वह कक्षा सात के ईयरली परीक्षा देने, दादी के अंतिम संस्कार बिताने के बाद गाँव से वापस आई थी। पहला ही पेपर इंग्लिश था। पढा़ई के नाम पर उसने निल बटा सन्नाटा तैयारी की थी। जब वह पेपर देने लगी तो पेपर सिर के उपर से गुजर रहा था। उस समय उसे बस एक बात सताए जा रही थी कि, फेल हो गई तो क्या करेगी?

लेकिन बगल में बैठे बडे़ क्लास के एक भैया ने उसकी दुविधा को समझ लिया था। उसने अपना पेपर खत्म करके अपने काॅपी और पेपर पलट कर बडी़ सफाई से उसकी ओर खिसका दिएँ थें और स्वयं उसका पेपर हल किए थें। वह उस पेपर में पच्चास में से पैंतीस अंक। भी प्राप्त की थी।

आज वह स्वयं कर्तव्य में बँधी कुछ नहीं कर पाई थी, लेकिन वह यह जरूर कामना कर रही थी कि, काश! उसे भी उसके अपने उस देवदूत की तरह कोई देवदूत मिल जाता। वह मिला या नहीं इसका उसे पता नहीं है।

                                   – पूनम शर्मा, वाराणसी।

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